कुछ ऐसी भी बातें होती हैं जो हम और आप तय नहीं करते, बल्कि वह हो जाया करती हैं। इसे लोग डेस्टिनी मानते हैं। प्रख्यात गीतकार योगेश भी फिल्मों के लिए गीत लिखने को अपनी डेस्टिनी ही मानते थे। उत्तर प्रदेश के लखनऊ से निकलकर बॉम्बे तक का योगेश गौड़ का सफर ऐसा ही है।
गीतकार योगेश का जन्म 19 मार्च 1943 को लखनऊ में हुआ। दो बहनें और अकेले भाई। जब वह यूनिवर्सिटी में पहुंचे ही थे तो पिता का हाथ सिर से उठ गया। पिता पीडब्ल्यूडी में इंजीनियर थे, लेकिन बेहद ईमानदार और पक्के उसूल वाले। वे समझौता नहीं करते थे। एक इंटरव्यू (The Bollywood Dynasty) में वह अपने बारे में सबकुछ बताते हैं। संघर्ष किया, हालात से लड़े-भिड़े और फिर उठ खड़े हुए।
पिता के निधन के बाद घर में पार्थिव शरीर था और रिश्तेदार इस पर चर्चा कर रहे थे कि अंतिम संस्कार और क्रिया-कर्म का पैसा कौन देगा। इंटरव्यू में योगेश गौड़ बताते हैं कि उन्होंने शॉर्टहैंड टाइपिंग सीखी। पिता जी ने जिन्हें नौकरी दिलाई, उन्होंने भी मदद नहीं की। एक खास बात थी जिसे डेस्टिनी मानता हूं। ऐसा निर्धारित होता होगा। मेरा गहरा दोस्त था सत्यप्रकाश तिवारी। जब लखनऊ में कुछ नहीं हुआ तो उससे कहा कि मैं बॉम्बे जा रहा हूं। मेरे बुआ के लड़के वहां रहते थे। उनका फिल्म इंडस्ट्री में काम जमा था। वे प्रसिद्ध डॉयलॉग रायटर थे। मैं और सत्यप्रकाश बॉम्बे पहुंचे। काकड़वाड़ी आर्य समाज में ठहरे। बॉम्बे में सबसे पहले बुआ के लड़के से मिलने गया। वह अंधेरी में रहते थे। मुझे देखकर उन्हें आश्चर्य नहीं हुआ। उन्हें मालूम था कि मामा का निधन हो गया फिर भी उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। उनसे कहा नौकरी दिला दो। उन्होंने कहा कि देखते हैं। हम रोज आते थे उनसे मिलने, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।
मैंने सत्यप्रकाश से कहा कि कोई रेस्पॉन्स नहीं मिल रहा है। उसने कहा कि तुम्हें एक ही काम करना है, फिल्म लाइन में जाकर दिखाना है। जीना मरना जैसा है। लखनऊ वाला घर किराए पर उठाकर मां-बहन का गुजारा हो जाएगा। यहां (बॉम्बे) में रहने के लिए जगह देखते हैं। उन दिनों पगड़ी का सिस्टम था। हमारे पास पांच सौ रुपये थे। अंधेरी में एक पहाड़ी के ऊपर रेंट में ग्यारह रुपये पर एक घर लिया। सत्यप्रकाश ने चपरासी की नौकरी मेरे लिए की। उसने मुझसे कहा कि बाहर जाकर लोगों से मिलो। मुझे कविताओं में रुचि थी, लेकिन लिखने में नहीं। मैं कविताएं अच्छे से सुना लेता था। मां गुरुकुल में पढ़ी थीं औ उन्हें कविताओं का शौक था। मैंने लोगों से पूछा कि स्क्रिप्ट कैसे लिखी जाती है, संवाद कैसे लिखे जाते हैं। मैं बॉम्बे में भटका। फिर जिंगदी के बारे में सोचा कि मेरे पिता ने लोगों के लिए इतना किया और कोई काम नहीं आया। मैं सारे रिश्ते तोड़कर आया था। मेरे साथ सिर्फ सत्तू (सत्यप्रकाश) था।
इसी इंटरव्यू में योगेश कहते हैं कि दुख को कविता के रूप में लिखा। मैं नोट करता था। वह स्टाक के रूप में हो गया। ओसीवाड़ी में एक पेट्रोल पंप के पास एक चॉल में रहने के लिए आए। वहां पंजाबी माहौल था। गीतकार गुलशन बावरा भी वहां रहते थे। कुछ दिन बाद पता लगा कि गुलशन के गाने कल्याण जी के साथ रिकार्ड हुए। मुझे वहां से प्रेरणा मिली। मैं वहां दोस्तों को अपना लिखा सुनाता था, लेकिन बताता नहीं था कि मैंने लिखा। उस समय महालक्ष्मी स्टेशन के पास एक प्रसिद्ध इमारत थी। उसमें करीब पांच सौ ऑफिस थे फिल्मों के। वहां कुछ लोग मिले।
फिर किसी ने रॉबिन बनर्जी से मिलाया। उन्होंने कहा कि अच्छा लिखता हो। कुछ मिलेगा तो बताऊंगा। वह मेरे गाने सुनते थे, लेकिन कंपोज नहीं करते थे । उनसे पूछा कि आप मेरे गाने कंपोज क्यों नहीं करते। उन्होंने कहा कि तुम धुन पर लिखो। वहां मुझे पता चला कि कंपोजिशन पर सिचुएशन के हिसाब से लिखना पड़ता है। एक साल के बाद रॉबिन ने बताया कि एक फिल्म मिली है और उसमें तुम्हारे छह गाने हैं। मैं जब प्रोड्यूसर से मिलने गया तो उन्होंने कहा कि 25 रुपये एक गाने के हिसाब से मिलेंगे। दो दिन में 150 रुपये कमाए । रॉबिन का काम शुरू हुआ तो गाड़ी आगे बढ़ी। रॉबिन, जीएस कोहली, ऊषा खन्ना और सुरेश कुमार के साथ काम चलता रहता था।धीरे-धीरे एक गाने के 100 रुपये मिलने लगे।
संगीतकार सलिल चौधरी से एक दिन मुलाकात हुई। वह पढ़ते बहुत थे। लगा कि नीरस टाइप के आदमी हैं। वह वापस चले आए। इसी बीच दुखद खबर आई कि शैलेंद्र जी का निधन हो गया। सलिल चौधरी के पास नियमित लिखने के लिए कोई राइटर नहीं था तो उन्होंने योगेश गौड़ को बुलाया। इसके बाद सलिल ने एक कंपोजिशन पर योगेश गौड़ को गाना लिखने को दिया। वह गाना सोच रहे थे और इतनी देर में ट्यून भूल गए। वे बड़े परेशान हुए। वह सलिल चौधरी के घर से निकले और बस स्टॉप पर पहुंचे। वहां मन में आया कि भागना नहीं है, सलिल दा से पूछ लेंगे। आज भागे तो कभी आ नहीं पाएंगे। इसी कश्मकश में एक बस आई और इसी के साथ योगेश के दिमाग में ट्यून आई। ट्यून के साथ शब्द भी आए। उन्होंने सलिल दा को सुनाया तो वह बहुत तेज से चिल्लाए। उनकी पत्नी ने कहा कि योगेश ने बहुत अच्छा लिखा। वह गाना सलिल को पसंद आया। वह गाना रिकार्ड हुआ, लेकिन फिल्म बनी नहीं।
लता जी ने जब तारीफ की
योगेश बताते हैं कि एक दिन सलिल चौधरी ने पूछा कि तेरा लक्ष्य क्या है। मैंने कहा कि लता जी ने कभी मेरा गाना नहीं गाया। उन्होंने कहा कि एक गाना है लता का। उन्होंने रिकार्ड दिया। वह गाना बंगाली में हिट था। मैंने ग्रामोफोन में लेकर वह गाना लिखा। लता मंगेशकर जी ने बोला कि बहुत अच्छा लिखा। मेरे लिए ऐतिहासिक क्षण था। इस गाने के बोल थे-कोई पिया से कहो अभी जाए न जाए न…। तब मुझे लगा कि मैं लिख लेता हूं। सलिल चौधरी के कंपोजिशन पर मैंने लिखा। वह फिल्म रिलीज नहीं हुई।
जब सलिल चौधरी ने गुलजार से नहीं लिखवाया, आनंद फिल्म का गाना लिखा
योगेश गौड़ बताते हैं कि वासु भट्टाचार्य ने सलिल दा से कहा कि उन्हें तीन गाने चाहिए। गुलजार से लिखवाना। लेकिन सलिल दा ने मुझसे लिखवाए। मैं लखनऊ आया। अचानक मुझे टेलीग्राम आया। बॉम्बे जल्द आने के लिए कहा। वासु भट्टाचार्य जो फिल्म बना रहे थे वह बंद हो गई थी। लेकिन वह तीन गाने सलिल ने ऋषि दा को सुनाए। ये तीन गाने उन्होंने खरीद लिए। उन्होंने कहा कि एक फिल्म आ रही है आनंद। इसमें से एक मेरा गाना था – कहीं दूर जब दिन ढल जाए साँझ की दुल्हन बदन चुराए …। इसी से मेरी पहचान बनी। इस तरह सिलसिला शुरू हो गया।
दिल का दर्द अपने आप आता था
उस टाइम पर कहानी हुआ करती थी। अगर वह अपने से मिल जाए तो दिल का दर्द अपने आप आ जाता है। ये लाइन इसी तरह निकल कर आई है – कहीं तो ये, दिल कभी, मिल नहीं पाते कहीं से निकल आए, जनमों के नाते…। ईश्वर नें मेरी डेस्टिनी लिखी थी। जो उसने दिया मैंने ईमानदारी से किया।
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