धर्म बेहद निजी मामला होता है और यह व्यक्तिगत इच्छा पर निर्भर करता है। मगर कई बार ऐसा हुआ कि मुनाफे के लिए लोग धार्मिक पहचान को ओढ़ लेते हैं। वे धर्म परिवर्तन करने के बाद भी मुनाफे के लिए अपनी पुरानी धार्मिक पहचान को धारण करते हुए चलते हैं। ऐसे प्रश्न पहले भी उठते रहे हैं और डीलिस्टिंग की मांग भी लगातार चल रही है।
अब एक मामले को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह कहा है कि आरक्षण पाने के लिए धर्म परिवर्तन करना संविधान के मूल भाव के विपरीत है। यह संविधान के साथ छल है। एक और बात उभर कर आती है कि क्या बिना उस धर्म में विश्वास किये हुए, उस धर्म का प्रमाणपत्र पाया जा सकता है? जाहिर है कि नहीं! मगर फिर भी ऐसा होता है और होता आया है। न्यायालयों से भी इस संबंध में टिप्पणी आती रही हैं, लेकिन अब सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि हिन्दू धर्म में केवल आरक्षण लेने के लिए परिवर्तित होना संविधान के साथ बहुत बड़ा छल है।
न्यायालय द्वारा यह भी कहा गया कि जिन लोगों ने ईसाई मत अपना लिया है, वे अपनी उस जातिगत पहचान पर दावा नहीं कर सकते जो उनकी हिन्दू धर्म में थी। 26 नवंबर 2024 को सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए यह कहा कि जब तक किसी धर्म में आस्था नहीं है, तब तक केवल आरक्षण के लिए उस धर्म का होने का दावा करना संविधान के साथ किया जा रहा बहुत बड़ा छल है।
मामला है सी सेल्वरानी की याचिका की। उन्होंने दावा किया था कि चूंकि उनके पिता हिंदू धर्म की वलुवन जाति से रहे हैं और वह अनुसूचित जाति की श्रेणी में आती हैं, इसलिए उन्हें क्लर्क की नौकरी के लिए आरक्षण चाहिए। सेल्वरानी ने यह भी दावा किया कि उन्होंने हिंदू धर्म अपना लिया है और उन्हें इस आधार पर आरक्षण दिया जाए, लेकिन उनका यह दावा जांच में गलत पाया गया था। जांच में सामने आया ता कि वह लगातार ईसाई मत की ही प्रार्थना और उपासना पद्धति का पालन कर रही थीं। वह चर्च जाती हैं और चर्च की आस्था का पालन करती हैं।
न्यायालय ने टिप्पणी की कि इस मामले में जो भी साक्ष्य प्रस्तुत किये गए हैं, उनसे यह पूरी तरह से स्पष्ट होता है कि अपील करने वाली महिला ईसाई मत का पालन करती है। न्यायालय के निर्णय के कुछ बिन्दु महत्वपूर्ण रहे, जिनमें सबसे पहला था कि जब पूरी तरह से विश्वास हो तभी धर्म परिवर्तन करना चाहिए। दरअसल इस महिला ने पहले मद्रास उच्च न्यायालय में भी यह याचिका दायर की थी, जो खारिज हो गई थी। मद्रास उच्च न्यायालय ने भी इस मांग को नहीं माना था। और उसके बाद उसने सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया था। वहां पर उसकी ओर से आठ वकीलों ने जिरह की थी।
आठों वकीलों की जिरह काम नहीं आई और सर्वोच्च न्यायालय ने भारत के संविधान के साथ इतने बड़े छल को स्वीकार न करते हुए यह महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया कि “बिना आस्था धर्म परिवर्तन की अनुमति नहीं है।” यह कहा कि यदि धर्म परिवर्तन का उद्देश्य मात्र आरक्षण का फायदा उठाना है, और उस व्यक्ति को उस धर्म पर विश्वास ही नहीं है तो इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती है। यह आरक्षण नीति के लिए हानिकारक है। सबसे महत्वपूर्ण जो टिप्पणी है, वह यह कि “बाप्टिज्म के बाद हिंदू होने का दावा नहीं कर सकते।”
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा
न्यायमूर्ति पंकज मिथल और न्यायमूर्ति आर. महादेवन ने 21 पृष्ठ के इस निर्णय में कहा कि हमारे सामने जो साक्ष्य रखे गए उनके आधार पर यह स्पष्ट है कि याचिककर्ता ने ईसाई मत अपनाया है और वह लगातार चर्च जाती हैं। अर्थात वह ईसाई मत का पालन भी कर रही हैं और दूसरी तरफ यह भी दावा करती हैं कि वह हिन्दू हैं। वह नौकरी के लिए अनुसूचित जाति का प्रमाणपत्र चाहती हैं। ऐसा नहीं हो सकता। बापटिज्म के बाद खुद के हिंदू होने का दावा वह नहीं कर सकती हैं।
फैसले का असर
इस मामले में हिंदू पिता और ईसाई माता की संतान इस महिला का बापटिज्म उसके जन्म के कुछ समय बाद कर दिया गया था और वह अभी तक ईसाई मत का ही पालन कर रही हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय बहुत महत्वपूर्ण है और यह उन सभी तमाम लोगों के लिए न्याय की खिड़की खोलता है जो अपनी नौकरियों को उनके हाथों में लगातार जाते देख रहे हैं, जिन्होनें धर्म तो परिवर्तित कर लिया है, पूजा पद्धति बदल ली है, मगर अभी तक वह नाम नहीं त्यागा है, जो उन्हें नौकरी दिला रहा है।
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