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दर्ज होगा ‘दर्जा’!

केंद्र सरकार ने एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान मानने से इनकार कर दिया है। अब सर्वोच्च न्यायालय की नियमित पीठ के सामने यह कठिन चुनौती होगी कि एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे के लिए किन-किन आधारों पर विचार किया जाए, क्योंकि अभी भी बहुत से सवालों के जवाब आने हैं

by आशीष राय
Nov 20, 2024, 11:20 pm IST
in भारत
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का प्रवेश द्वार

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का प्रवेश द्वार

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सर्वोच्च न्यायालय ने गत 7 नवंबर को अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक दर्जा देने संबंधी मामले को नियमित पीठ के पास भेजने का निर्णय लिया है। इस यूनिवर्सिटी के दर्जे के बारे में न्यायाधीश तो बाद में फैसला देंगे ही,लेकिन इस यूनिवर्सिटी की शुरुआत से ही इसे लेकर अनेक विवाद रहे हैं।

आशीष राय
अधिवक्ता, सर्वोच्च न्यायालय

वर्षों पहले एक झूठा विमर्श गढ़ा गया था कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को सर सैयद अहमद ने स्थापित किया और इस झूठे विमर्श को खड़ा करने वाला इकोसिस्टम इसमें सफल भी रहा। असर यह हुआ कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का नाम आते ही सर सैयद अहमद का नाम भी लोगों की जबान पर आने लगा। परंतु यह झूठा विमर्श तथ्यहीन व आधारहीन है। वास्तविकता यह है कि सर सैयद अहमद ने 1875 में मदरसातुल उलूम मुसलमानन-ए-हिन्द स्थापित किया था और 1877 में यह अलीगढ़ में मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज में बदल गया। यह कॉलेज पहले कलकत्ता यूनिवर्सिटी, फिर इलाहबाद यूनिवर्सिटी से संबद्ध रहा। 1898 में सर सैयद अहमद का निधन हो गया।

1920 में जो सोसाइटी इस कॉलेज को चला रही थी, वह समाप्त कर दी गई। 1920 में इंपीरियल गवर्नमेंट यानी सरकार ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अधिनियम-1920 बनाकर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) की स्थापना की, न कि किसी मुसलमान ने ने। इस अधिनियम में 1951 और 1965 में संशोधन किए गए, जो मुस्लिम छात्रों की मजहबी शिक्षा और विश्वविद्यालय के प्रशासनिक ढांचे से संबंधित थे।

अल्पसंख्यक संस्थान पर चर्चा की शुरुआत

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अधिनियम में हुए संशोधनों को न्यायालय में चुनौती दी गई। एस. अजीज बाशा मामले में याचिकाकर्ताओं ने तो तर्क दिया कि एएमयू की स्थापना मुसलमानों द्वारा की गई थी, जो कि अनुच्छेद 30(1) के अंतर्गत अल्पसंख्यक होने के नाते मुसलमानों को उनके द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय का प्रशासन करने का अधिकार है। 1951 और 1965 के संशोधन अनुच्छेद 30(1) का उल्लंघन करते हैं क्योंकि ये संशोधन मुस्लिम समुदाय के संस्थान में प्रशासन के अधिकार में हस्तक्षेप करते हैं।

यह भी दावा किया गया कि संशोधन अन्य मौलिक अधिकारों जैसे: मजहबी और दान कार्यों का संचालन करने का अधिकार (अनुच्छेद 26(ए), मजहब की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25), संस्कृति और भाषा को संरक्षित करने का अधिकार (अनुच्छेद 29), संपत्ति अधिग्रहित करने का अधिकार (अनुच्छेद 31) का भी उल्लंघन करते हैं। इसके विरोध में तर्क दिया गया कि मुसलमानों को एएमयू का प्रशासन चलाने का अधिकार नहीं है क्योंकि इस संस्थान की स्थापना उन्होंने नहीं की थी। एएमयू की स्थापना संसद द्वारा की गई थी।

पीठ का निर्णय

एस. अजीज बाशा मामले में 20 अक्तूबर 1967 को, पांच न्यायाधीशों की पीठ, जिसमें मुख्य न्यायाधीश के.एन. वांचू और न्यायाधीश आर.एस. बछावत, वी. रामास्वामी, जी.के. मित्र, और के.एस. हेगड़े शामिल थे, ने सर्वसहमति से निर्णय दिया कि याचिकाकर्ताओं के मौलिक अधिकारों का कोई उल्लंघन नहीं हुआ है और संशोधन को बरकरार रखा। पीठ ने कहा कि अनुच्छेद 30 (1) में स्थापित और प्रशासित वाक्यांश को संयुक्त रूप से पढ़ा जाना चाहिए। अल्पसंख्यकों को केवल उन्हीं शैक्षणिक संस्थानों का प्रशासन चलाने का अधिकार है जिन्हें उन्होंने स्थापित किया है और स्थापित शब्द का अर्थ अस्तित्व में लाना है। पीठ ने माना कि एएमयू की स्थापना मुसलमानों ने नहीं की थी क्योंकि एएमयू अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अधिनियम-1920 के तहत अस्तित्व में आया।

कॉलेज का विश्वविद्यालय में परिवर्तन अल्पसंख्यकों द्वारा नहीं बल्कि 1920 के अधिनियम के तहत किया गया था। पीठ ने स्पष्ट किया कि एएमयू अधिनियम की धारा 4 के तहत, एमएओ कॉलेज और मुस्लिम विश्वविद्यालय संघ को भंग कर दिया गया और उनकी संपत्तियां, अधिकार और देयताएं एएमयू को हस्तांतरित की गईं। इस प्रकार, मुस्लिम समुदाय ने एएमयू की स्थापना नहीं की, इसलिए वे अनुच्छेद 30(1) के तहत इसके प्रशासन का दावा नहीं कर सकते। इसलिए, एएमयू अधिनियम में किए गए कोई भी संशोधन संविधान के अनुच्छेद 30 के विरुद्ध नहीं होंगे।

एएमयू अधिनियम के अनुसार, एएमयू का प्रशासन मुसलमानों के पास नहीं था क्योंकि एएमयू के सर्वोच्च शासी निकाय, न्यायालयों, के सभी सदस्यों का मुसलमान होना अनिवार्य था, लेकिन वोट देने वाले सदस्य केवल मुसलमान नहीं थे। अन्य प्रशासनिक निकायों जैसे एग्जीक्यूटिव काउंसिल और एकेडमिक काउंसिल के सदस्य का मुसलमान होना अनिवार्य नहीं था। तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड रेक्टर को प्रशासन पर प्रमुख शक्तियां दी गई थीं और उनका मुसलमान होना आवश्यक नहीं था। विजिटिंग बोर्ड के सदस्य, जिनमें यूनाइटेड प्रोविंसेज के गवर्नर और अन्य अधिकारी शामिल थे, उनका मुसलमान होना अनिवार्य नहीं था। इसलिए, ‘स्थापित और बनाए रखना’ वाक्यांश को अनुच्छेद 26 में भी संयुक्त रूप से पढ़ा जाना चाहिए, जैसे कि अनुच्छेद 30 में ‘स्थापित और प्रशासित करना’ पढ़ा जाता है। पीठ ने यह निर्णय दिया कि 1951 और 1965 के संशोधन संविधान के अनुच्छेद 14, 19, 25, 29 और 31 का उल्लंघन नहीं करते।

कांग्रेस द्वारा संविधान से खिलवाड़

अजीज बाशा के निर्णय के 15 वर्षों बाद 1981 में एक और अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान का मामला उच्चतम न्यायलय के सामने आया। उच्चतम न्यायालय की दो-न्यायधीशों की पीठ ने ‘अंजुमन-ए-रहमानिया बनाम जिला निरीक्षक, स्कूल्स’ में यह सवाल उठाया कि क्या वी.एम.एच.एस. रहमानिया इंटर कॉलेज एक अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान है। 26 नवम्बर 1981 को एक आदेश में, पीठ ने अजीज बाशा के फैसले की सटीकता पर सवाल उठाते हुए टिप्पणी की कि पक्षकारों के वकीलों से सुनवाई के बाद, हम स्पष्ट रूप से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इस मामले को सात न्यायधीशों की पीठ के समक्ष भेज दिया जाए क्योंकि इस मामले में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 (1) की व्याख्या से संबंधित दो महत्वपूर्ण प्रश्न हैं।

वर्तमान संस्थान की स्थापना 1938 में हुई थी और यह 1940 में सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट के तहत पंजीकृत हुआ था। संस्थान की स्थापना के समय के दस्तावेज यह स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि संस्थान मुख्य रूप से मुसलमानों द्वारा स्थापित किया गया था, लेकिन इसमें गैर-मुस्लिम समुदाय के सदस्य भी थे जिन्होंने स्थापना की प्रक्रिया में भाग लिया। सवाल यह है कि क्या संविधान के अनुच्छेद 30 (1) में केवल अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित एक ऐसा संस्थान शामिल है जिसमें किसी अन्य समुदाय का कोई योगदान न हो। इस विषय पर इस न्यायालय का कोई स्पष्ट निर्णय नहीं है।

एस. अजीज बाशा और अन्य बनाम भारत संघ के मामले में कुछ टिप्पणियां हैं, लेकिन स्पष्टता आवश्यक है। एक और सवाल कि क्या संस्थान की स्थापना के तुरंत बाद यदि इसे सोसाइटी रजिस्ट्रेशन एक्ट के तहत पंजीकृत कराया जाए, तो इसके अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में दर्ज होने की स्थिति बदल जाती है। इसी दौरान संविधान पर लगातार झूठा विमर्श खड़ा करने की कोशिश करने वालों ने तुष्टीकरण की राजनीति के चलते समाज के वंचित वर्ग की परवाह किए बगैर एएमयू को अनुचित लाभ पहुंचाने के लिए संविधान को ताक पर रख संसद द्वारा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अधिनियम-1920 में परिवर्तन करा दिया और तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने निर्णय के एक महीने बाद ही 31 दिसम्बर 1981 को, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (संशोधन) अधिनियम 1981 को राष्ट्रपति की सहमति भी दिलवा दी।

इस अधिनियम के कई प्रावधानों में संशोधन किया गया, जिसमें विश्वविद्यालय के लंबे शीर्षक और प्रस्तावना से ‘स्थापित और’ शब्दों को हटा दिया गया। अधिनियम में संशोधन के बाद ‘विश्वविद्यालय’ को परिभाषित किया गया कि भारत के मुसलमानों द्वारा स्थापित शैक्षिक संस्थान, जो पहले मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज, अलीगढ़ के रूप में स्थापित हुआ था और जिसे बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में शामिल किया गया था।

आरक्षण पर विवाद

कालांतर में एएमयू ने अपने पोस्ट-ग्रेजुएट मेडिकल कोर्स में प्रवेश के लिए 50 प्रतिशत सीटें मुसलमान अभ्यर्थियों के लिए आरक्षित करने की नीति प्रस्तावित की, जिसे तत्कालीन भारत सरकार ने स्वीकार भी कर लिया। इस आरक्षण नीति को इलाहबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि 50 प्रतिशत सीटें मुसलमानों के लिए आरक्षित करना असंवैधानिक है, क्योंकि एएमयू एक अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान नहीं है, जैसा कि इस न्यायालय ने अजीज बाशा के फैसले में कहा था।

याचिकाकर्ताओं ने कहा कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अधिनियम 1981 में संशोधन करके अजीज बाशा के फैसले को पलटने की कोशिश की गई, लेकिन इस मामले में उस फैसले के आधार को बदला नहीं गया। इसके जवाब में, एएमयू ने यह तर्क दिया कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (संशोधन) अधिनियम 1981 ने अजीज बाशा के फैसले के आधार को बदल दिया था, और अब अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी एक अल्पसंख्यक संस्थान है, इस कारण इसे मुस्लिम समुदाय के उम्मीदवारों के लिए सीटें आरक्षित करने का अधिकार है।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय की सख्त टिपणी

2005 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने 50 प्रतिशत मुस्लिम आरक्षण को चुनौती देने वाली याचिका ‘डॉ. नरेश अग्रवाल बनाम भारत संघ’ में एएमयू की आरक्षण नीति को असंवैधानिक घोषित कर दिया। उच्च न्यायालय ने कहा कि अजीज बाशा के मामले में निर्णय का आधार धारा 3, 4 और 6 था। इन प्रावधानों में 1981 के अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (संशोधन) अधिनियम से कोई बदलाव नहीं किया गया था। अधिनियम में ‘स्थापित’ शब्द को प्रस्तावना और लंबे शीर्षक से हटाना और धारा 2 (I) में ‘विश्वविद्यालय’ शब्द की परिभाषा में संशोधन यह साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि एएमयू अब एक अल्पसंख्यक संस्थान है।

मुस्लिम समुदाय ने स्वेच्छा से विश्वविद्यालय के प्रबंधन का अधिकार कानूनी संस्थाओं को सौंप दिया था। इलाहबाद उच्च न्यायालय ने कड़ी टिपण्णी करते हुए कहा कि संविधान के किसी शब्द की परिभाषा को केवल संवैधानिक संशोधन द्वारा ही बदला जा सकता है, इसलिए 1981 का एएमयू संशोधन अधिनियम विधायी क्षमता की कमी से पीड़ित है। न्यायालय ने कहा कि धारा 2 (I) में संशोधन एक विधायी कार्य है जो न्यायिक शक्ति में हस्तक्षेप करता है और यह संसद द्वारा अपीलीय न्यायालय या न्यायाधिकरण के रूप में कार्य करने जैसा है। एएमयू जो कि अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है, अनुच्छेद 30 के तहत सुरक्षा का हकदार नहीं है और इस प्रकार धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं प्रदान कर सकता, क्योंकि यह अनुच्छेद 29(2) का उल्लंघन होगा।

एकल न्यायाधीश के निर्णय को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की दो-न्यायाधीशों की खंडपीठ के समक्ष चुनौती दी गई, मुख्य न्यायाधीश ए.एन. रे और न्यायमूर्ति अशोक भूषण की पीठ ने एकल न्यायाधीश के फैसले को कुछ संशोधनों के साथ बरकरार रखा। फैसले में खंडपीठ ने कहा कि अल्पसंख्यक दर्जा नहीं होने पर प्रशासन और नियंत्रण गैर-अल्पसंख्यक समूहों द्वारा किया जाना महत्वपूर्ण हो जाता है। खंडपीठ ने तत्कालीन इंदिरा सरकार पर सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि अनुच्छेद 2(1) में संशोधन कर संसद ने एस. अजीज बाशा के फैसले को पलटने की कोशिश की। हालांकि, यह संशोधन उस फैसले के आधार को नहीं बदलता, क्योंकि विश्वविद्यालय की स्थापना का मुद्दा ही मुख्य कारण नहीं था।

खंडपीठ का मानना था कि धारा 5(2)(सी) भेदभावपूर्ण है और यह भी एस. अजीज बाशा के फैसले के आधार को नहीं बदलता। पीठ ने कहा कि एएमयू केवल एक विश्वविद्यालय नहीं है, बल्कि संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची 1 की एंट्री 63 के तहत एक विधायी शक्ति का क्षेत्र है। संसद ने अनुचित तरीके से धारा 5(2) में संशोधन कर सातवीं अनुसूची में एक शब्द की परिभाषा को बदलने की कोशिश की। इलाहबाद उच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 30 के तहत एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना और 1981 के एएमयू संशोधन अधिनियम के धारा 2(I) और 5(2)(सी) को असंवैधानिक करार दिया।

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की इमारत

सरकार ने नहीं माना अल्पसंख्यक संस्थान

2006 में मनमोहन सिंह सरकार और एएमयू ने उच्च न्यायालय के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। 24 अप्रैल 2006 को, न्यायमूर्ति के.जी. बालाकृष्णन और न्यायमूर्ति डी.के. जैन की खंडपीठ ने एएमयू की आरक्षण नीति पर रोक लगा दी और मामले की संवैधानिकता की समीक्षा के लिए इसे बड़ी पीठ को भेजा। 2014 में भाजपा सत्ता में आई और सरकार ने 2016 में अपील से हटते हुए कहा कि वह यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे को मान्यता नहीं देती।

12 फरवरी 2019 को, जब इस फैसले के खिलाफ अपील की सुनवाई हो रही थी, मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव, और न्यायमूर्ति संजय खन्ना के पीठ ने पाया कि उच्च न्यायालय ने एस. अजीज बाशा के फैसले पर भरोसा किया था और यह भी ध्यान दिया कि अंजुमन-ए-रहमानिया में उठाया गया सवाल, जो एस. अजीज बाशा के फैसले की सत्यता से संबंधित था, अभी तक तय नहीं हुआ था। पीठ ने देखा कि अनुच्छेद 30(1) में ‘स्थापित’ और ‘प्रशासित’ शब्दों को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए, जैसा कि एस. अजीज बाशा में कहा गया था। इसलिए, पीठ ने निर्णय लिया कि एस. अजीज बाशा के फैसले से उत्पन्न प्रश्न की सत्यता अभी तक अनुत्तरित है। पीठ ने एस. अजीज बाशा के फैसले की समीक्षा के लिए सात न्यायाधीशों की पीठ को इस मुद्दे पर भी पुनर्विचार करने के लिए भेजा कि क्या अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक दर्जा दिया जा सकता है, खासकर 1981 के संशोधन के बाद।

यह कानूनी बाध्यता भी है कि जब किसी ऐसे मामले पर न्यायालय को पुनर्विचार करने की आवश्यकता होती है जिस पर पहले ही निर्णय किया जा चुका है, तब बड़ी पीठ में मामले को भेजा जाता है। एएमयू के अल्पसंख्यक संस्थान वाले मामले को सात जजों की संवैधानिक पीठ को भेजा गया है, लेकिन एएमयू की स्थापना के झूठे विमर्श का तिलिस्म ऐसा है कि इसमें न्यायिक विमर्श ही उलझ गया और कोई स्पष्ट निर्णय नहीं हो पाया। पूर्व में पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने सर्वसम्मति से एस अजीज बाशा मामले में अनुच्छेद 30(1) का हवाला देते हुए जो निर्णय दिया था, उस निर्णय को पीठ के केवल चार न्यायाधीशों ने यह कहते हुए कि, केवल इसलिए कि एएमयू को कानून के माध्यम से स्थापित किया गया था, इसका यह मतलब नहीं है कि यह अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा स्थापित नहीं किया गया था, इसे ओवर रूल कर दिया जबकि अन्य तीनों न्यायाधीशों ने अजीज बाशा मामले में हुए निर्णय के विपरीत कोई राय नहीं दी।

इस तरह 1967 में अजीज बाशा केस में दिए गए निर्णय को आंशिक रूप से पलट दिया गया क्योंकि फैसले को तो 4-3 के बहुमत से ही पढ़ा जायेगा। सबसे खास बात यह रही कि सातों न्यायाधीश एएमयू के अल्पसंख्यक दर्ज के संबंध में कोई भी निर्णय नहीं कर सके और अब एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा बरकरार रहेगा या नहीं, इसका फैसला नियमित पीठ करेगी। निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश डीवाइ चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ में से खुद न्यायमूर्ति डीवाइ चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति जेडी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्र ने संविधान के अनुच्छेद 30 के मुताबिक अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक संस्थान के दर्जे के कायम रखने के पक्ष में तर्क दिए। जबकि न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा ने विपरीत तर्क दिए।

अनुसूचित जाति—जनजाति और पिछड़े वर्ग की उपेक्षा

तत्कालीन इंदिरा सरकार द्वारा किए गए अनैतिक संशोधन के कारण एएमयू को सरकार से देश के सभी विश्वविद्यालयों से ज्यादा आर्थिक मदद मिलती है। एएमयू को 2019 और 2023 के बीच केंद्र सरकार से लगभग 5,467 करोड़ रुपए की वित्तीय सहायता मिली है। इसी दौरान, दिल्ली विश्वविद्यालय को लगभग 2,709 करोड़ रुपए मिले, जामिया मिल्लिया इस्लामिया को 1,805 करोड़ रुपए और हैदराबाद विश्वविद्यालय को 1,361 करोड़ रुपए। मंडल आयोग की रिपोर्ट के आधार पर देश के सभी विश्वविद्यालय पिछड़ी जाति के छात्रों को प्रवेश में आरक्षण की सुविधा देते हैं लेकिन एएमयू नहीं देता।

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