दिल्ली में यमुना नदी में प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुंच चुका है। वैसे तो पूरे साल इस पर यदा-कदा ही बात होती है, लेकिन जैसे ही छठ पर्व निकट आता है, यमुना के प्रदूषण पर बहस पूरे उफान पर होती है। सर्दी शुरू होते ही यमुना के जहरीले पानी और इसमें झाग को लेकर लोगों की बढ़ती चिंताओं और नदी प्रेमियों के सवालों के बीच राजनीतिक दोषारोपण का दौर शुरू हो जाता है। दोषारोपण में आम आदमी पार्टी आगे है।
गत 23 अक्तूबर को दिल्ली की मुख्यमंत्री आतिशी मार्लेना ने वजीराबाद वाटर रिजर्वायर के निरीक्षण के दौरान भाजपा नेताओं पर आरोप लगाया कि पहले उन्होंने दिल्ली की हवा को प्रदूषित किया और अब पानी को भी जहरीला बना रही है। भाजपा शासित हरियाणा और उत्तर प्रदेश के उद्योगों से आने वाला जहरीला पानी यमुना को प्रदूषित कर रहा है। इससे यमुना में झाग बन रहा है। प्रश्न है कि हथिनी कुंड और कालिंदी कुंज बैराज से पूरे साल यमुना में पानी छोड़ा जाता है, लेकिन इसमें झाग केवल दीपावली और छठ के समय ही क्यों बनती है?
भाजपा का कहना है कि 2020 में तत्कालीन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने 2025 तक यमुना को प्रदूषण से मुक्त करने का दावा किया था। केजरीवाल और आतिशी की सरकार ने यमुना सफाई निधि के 8500 करोड़ रुपये लूट लिए पर यमुना की सफाई नहीं की। इसी तरह, दिल्ली की खराब हवा को लेकर पंजाब को क्लीनचिट देकर आतिशी सारा दोष हरियाणा पर मढ़ रही रहीं, पर दिल्ली में पराली जलाने के मामले बढ़े हैं, यह उन्हें दिखाई नहीं दिया।
खैर, इस बार दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह कह कर यमुना में छठ पूजा करने पर रोक लगा दी कि इसका पानी जहरीला है। यमुना की कुल लंबाई 1,376 किलोमीटर है। दिल्ली में इसकी लंबाई लगभग दो प्रतिशत यानी 22 किलोमीटर ही है। लेकिन यमुना में 80 प्रतिशत गंदगी दिल्ली में ही उत्पन्न होती है। दिल्ली में 122 छोटे-बड़े नाले यमुना में गिरते हैं। यमुना की सफाई का जिम्मा अलग-अलग विभागों के जिम्मे है।
दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण कमेटी (डीपीसीसी) का कहना है कि बीते 4-5 वर्ष में (2017-18 से 2021-22) संबंधित विभागों को यमुना की सफाई के लिए 6,939.5 करोड़ रु. स्वीकृत किए गए। इससे पहले यमुना एक्शन प्लान के नाम पर 1993 से 2003 तक एक दशक में तीन चरण में मोटी राशि खर्च की गई। पहला चरण 1993-94 में शुरू हुआ, जबकि दूसरा चरण 2002 में। तीसरा चरण 2012 में आया, लेकिन यमुना आज तक साफ नहीं हुई।
तीसरे चरण में 1,656 करोड़ रु. दिए गए जो कागजों में दर्ज है। इसके अलावा, दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की सरकार बनने के बाद 2015 से 2023 की पहली छमाही तक केंद्र सरकार ने दिल्ली जल बोर्ड को यमुना को स्वच्छ बनाने के लिए लगभग 1,200 करोड़ रु. दिए। जल शक्ति मंत्रालय के अनुसार, दिल्ली में यमुना सफाई से जुड़ी 11 परियोजनाओं पर काम करने के लिए केजरीवाल सरकार को 2,361.08 करोड़ रु. दिए गए। लेकिन यमुना का प्रदूषण कम होने के बजाए बढ़ता चला गया।
इस प्रकार, यमुना की सफाई पर अब तक 4,000 करोड़ रु. से अधिक राशि खर्च हो चुकी है। इसका बड़ा हिस्सा सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी), सीवरेज नेटवर्क बनाने, घाट बनाने और सौंदर्यीकरण व जागरूकता के नाम पर खर्च किया गया है। सफाई योजना की स्थिति यह है कि दिल्ली में बने एसटीपी में से अधिकांश तय मानकों के अनुरूप काम ही नहीं कर रहे हैं। सिर्फ दिल्ली में ही रोजाना 36,000 लाख लीटर (एमएलडी) नाले का पानी उत्पन्न होता है, जबकि इसके शोधन के लिए बने एसटीपी की कुल क्षमता 2,874 एमएलडी है। इसमें भी मात्र 2,486.7 एमएलडी नाले के पाने के निस्तारण का दावा किया जाता है। यानी रोजाना 1,113 एमएलडी नाले का पानी सीधे यमुना में गिर रहा है।
दिसंबर, 2024 तक दिल्ली में यमुना को पूरी तरह स्वच्छ करने का लक्ष्य है। लेकिन स्थिति यह है कि अगस्त में ही एनजीटी ने केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड की रिपोर्ट दिल्ली में लगे 38 एसटीपी के ठीक काम नहीं कर पाने पर दिल्ली जल बोर्ड को आड़े हाथ लिया था। एनजीटी ने दिल्ली जल बोर्ड पर इस बारे में कोई जवाब नहीं देने पर जुर्माना भी लगाया था। दिल्ली के उपराज्यपाल तो कई बार यमुना परियोजनाओं, इसके लिए दी जाने वाली निधि और दिल्ली जल बोर्ड के काम-काज पर सवाल उठा चुके हैं।
कुल मिलाकर 30 वर्ष में यमुना की सफाई पर पानी की तरह पैसा बहाने के बाद मामला यहां तक पहुंचा कि एनजीटी ने 2015 के बाद ‘मैली से निर्मल यमुना’ के लिए हर साल नए-नए निर्देश देकर डूब वाले इलाकों के बचाव, गंदे पानी की सफाई और उद्योगों का पानी नदी में बहाए जाने की निगरानी करवाई। 2019 में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि एक वर्ष में नए एसटीपी लगाने का काम पूरा किया जाए। इसके अलावा, यमुना के बहाव वाले राज्यों हरियाणा और उत्तर प्रदेश के बीच समन्वय और सफाई के लिए दी जाने वाली करोड़ों रु. की निधि के सही उपयोग पर भी जोर दिया था।
दिल्ली सरकार ने इस काम के लिए पिछले वर्ष 1,850 करोड़ अलग से रखे, जिससे 6 एसटीपी और लगने हैं। फरवरी, 2024 में जारी यमुना संसदीय रिपोर्ट के अनुसार, यमुना एक्शन प्लान के एक और दो चरण में 1,514.70 करोड़ रु. यमुना सफाई के नाम पर खर्च हो चुके हैं। बीते एक दशक में इसी काम के लिए नमामि गंगे योजना के तहत भी 5,834.7 करोड़ रु. मंजूर किए गए, जिसमें से 2,597.28 करोड़ रु. खर्च हो चुके हैं।
आजीविका पर असर
यमुना पर काम करने वालों में एक वे लोग हैं, जो जन-स्वास्थ्य, यमुना किनारे रहने वाले लोगों की आजीविका पर पड़ने वाले असर को वैज्ञानिक और पर्यावरण की दृष्टि से आंक कर बार-बार आगाह कर रहे हैं। साथ ही, इस मुद्दे को चर्चा में बनाए रखने का प्रयास भी कर रहे हैं ताकि सरकारों-अधिकारियों की आंखें खुलें। दूसरे वे लोग हैं, जो सरकारी ढर्रे को अच्छी तरह समझ गए हैं। वे नदी की सफाई के सरकारी ठेके उठाने और अपने काम का बखान करने का हुनर जान गए हैं। सरकार भी इन ‘इवेंटनुमा’ ऊपरी-कागजी काम की पूछ करती रही है। इसलिए आने वाले दशकों में भी यमुना की दशा बदल पाएगी, इसकी खास उम्मीद नहीं है। स्थिति यह है कि यमुना में आक्सीजन शून्य है। शुद्ध पानी का हर मानदंड यहां विफल है। यमुना किनारे मछली पकड़ने वाले मछुआरे और उनकी बस्तियां भी हैं, जिनके हाथ अब मुश्किल से मछलियां आती भी हैं तो वे जहरीली हैं या बदबू वाली। यमुना के जहरीले पानी में हर दिन असंख्य जल-जीव घुटकर मर रहे हैं।
बहरहाल, बीते 25 वर्ष में हजारों करोड़ रु. खर्च करने के बावजूद जो यमुना स्वच्छ-निर्मल नहीं हो सकी, उसने कोरोना काल में स्वयं ही अपनी सफाई कर ली थी। 2020 में दो माह के लॉकडाउन के दौरान जब औद्योगिक गतिविधियां ठप पड़ गईं और अन्य व्यावसायिक गतिविधियां धीमी हो गईं, तो यमुना ने खुद को साफ कर लिया था।
कौन श्रेष्ठ, किसका श्रेय
नदी की बारिश सोखने की क्षमता कम होने से यमुना की बाढ़ भी हर साल जीवन बहा ले जाती है। देश के सात राज्यों से गुजरने वाली यमुना के बहाव क्षेत्र में लगभग 6 करोड़ आबादी रहती है। औद्योगिक इकाइयों का 55 प्रतिशत अपशिष्ट इसमें छोड़ा जाता है। हरियाणा के पानीपत और दिल्ली के बीच ही 300 से अधिक उद्योगों का अपशिष्ट यमुना में छोड़ा जाता है।
बीते वर्षों में नदी महोत्सव और नदी मंथन की जो व्यवस्था बनी है, उससे परे धरातल पर हुए काम की तह में जाना ज्यादा जरूरी है। दिखावे के काम और नदियों को सुधारने का श्रेय लेने वालों को ठीक से जांचा-परखा जाना चाहिए। केवल पानी पर ही नहीं, सामाजिक क्षेत्र के हर मुद्दे पर काम कर रहे संगठन अपने-अपने खांचे में काम करते दिखते हैं। सब आपस में प्रतिद्वंद्वी या प्रतिस्पर्धी की तरह काम कर रहे हैं, क्योंकि असली कवायद परियोजना और ठेके हासिल करने की है, न कि सामूहिकता के भाव से काम कर स्थायी समाधान की।
अर्थशास्त्र का ‘पब्लिक गुड’ का नियम कहता है, ‘‘लोगों को उस सुविधा का इस्तेमाल करने से नहीं रोक सकते जो सार्वजनिक है और एक व्यक्ति के इस्तेमाल से दूसरे के लिए उसकी उपलब्धता पर असर नहीं पड़ता।’’ इसे सरकार और नदी तंत्र के संदर्भ में समझें तो जहां तक यमुना को गंदा होने से रोकने की यानी समस्या के पहले उसकी रोकथाम है, वहां सरकार का दखल आसान है। मगर जैसे ही समस्या पैदा होती है, बड़ी होती है तो समाधान और इलाज महंगा होता जाता है। तब बात आती है पूंजी की।
पूंजी जुटाने, लगाने और उसके नतीजों को मापने में सरकारी व्यवस्था में हजार अड़चनें हैं। साफ नदी ‘पब्लिक गुड’ का मामला है। इससे हर एक का लेना-देना है, लेकिन इसके लिए व्यक्तिगत प्रयास का कोई मोल नहीं है। उद्योग और लोग, दोनों इसे प्रदूषित करते हैं, क्योंकि नदी की सफाई की कीमत सीधे उनकी जेब से नहीं वसूली जाती। दूसरे, निगरानी और जवाबदेही, दोनों मुश्किल हैं, क्योंकि प्रदूषित करने वालों पर सरकार का कोई बस नहीं। गैर सरकारी संगठनों के पास संसाधन सीमित हैं और यह काम बहुत बड़े पैमाने पर और साथ मिलकर करने वाला है। जनता और ठेके पर काम करने वाली एजेंसियों और संगठनों को भी सरकार के पैसे की कद्र नहीं है।
देश पर आर्थिक भार
देखा जाए तो देश के हर हिस्से की मुख्य नदियां, जो उन क्षेत्रों की पहचान थीं, औद्योगिक कचरे, नाले के पानी और कूड़े-कचरे की गिरफ्त में हैं। सरकार और संगठन, अपनी परियोजनाएं लागू करते हैं, लेकिन उससे समाज की आदतें नहीं बदलतीं, वहां के स्थानीय राजनीतिक और सामाजिक नेतृत्व में नदी-स्वच्छता के प्रति चेतना नहीं जागती। सफाई की आदत डालना वास्तव में एक बड़ा अभियान है। लोग जैसा देखते हैं, वैसा सीखते हैं। जहां लोग साफ-सफाई देखते हैं, वहां स्वच्छता का ध्यान रखते हैं।
इसलिए नदियों की साफ-सफाई का काम ठेके पर देना ही काफी नहीं है, बल्कि समाज की आदतों को बदलना और कचरा प्रबंधन के पुख्ता इंतजाम करना भी जरूरी है। वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने देश में जिन 13 नदियों को सुधारने का जिम्मा लिया है, उसमें यमुना के अलावा ब्रह्मपुत्र, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी, चेनाब, झेलम, नर्मदा, सतलुज, रावी, व्यास, महानदी और लूणी शामिल हैं। यानी देश के हर हिस्से की बड़ी पहचान वाली नदियां बदहाल हैं।
आज देश की कुल नदियों में से 46 प्रतिशत दूषित हैं। शोध पत्र बताते हैं कि देश में कुल पीने के पानी में से एक चौथाई अशुद्ध है, जिसकी कीमत हर साल अपनी जीडीपी का 3 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च के रूप में चुकानी पड़ती है। यमुना भी बहुत भारी कीमत वसूलेगी, अगर इस पर अब तक हुए और लगातार हो रहे करोड़ों रु. के खर्च के साथ-साथ वास्तविक असर और काम में हुई कोताही का हिसाब नहीं मांगा जाएगा।
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