‘रेवड़ी’ और कांग्रेसी हेकड़ी

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अखिलेश वाजपेयी

सत्ता में वापसी के लिए छटपटा रही कांग्रेस ने ‘रेवड़ी कल्चर’ को हथियार बना लिया है। लोकसभा चुनाव में इसने 48 पन्नों के अपने घोषणा-पत्र में 5 न्याय, 25 गारंटी और 300 से अधिक वादे किए थे। अब झारखंड और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में भी यही हथकंडा अपनाया है। कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश में मुफ्त घोषणाएं करके कांग्रेस सत्ता में आई। कांग्रेस ने कर्नाटक विधासभा चुनाव में ‘5 गारंटी’ दी थी। लेकिन इसे पूरा करने में सरकारी खजाने की स्थिति गड़बड़ाई तो उप-मुख्यमंत्री डीके शिवकुमार ने महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा योजना की पुन: समीक्षा की बात कही, तो कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने उन्हें आड़े हाथों लिया। यही स्थिति हिमाचल प्रदेश की भी है। चुनाव से पहले कांग्रेस ने 10 वादे किए थे, लेकिन उन्हें पूरा करने के लिए सरकार के पास पैसे ही नहीं हैं। सरकारी कर्मचारी वेतन, पेंशन और डीए के लिए तरस रहे हैं।

क्या हो कसौटी?

सर्वोच्च न्यायालय से लेकर चुनाव आयोग तक मुफ्त की योजनाओं की वजह से आर्थिक असंतुलन और विकास पर पड़ने वाले विपरीत असर को लेकर चिंता व्यक्त करते रहे हैं। इसी सिलसिले में कर्नाटक के शशांक जे. श्रीधर ने एक याचिका दाखिल की है। इसे पुरानी याचिकाओं के साथ जोड़ते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग और केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया है। प्रश्न है कि लोकलुभावन वादों को नैतिक माना जाए या अनैतिक? क्या इन पर रोक नहीं लगनी चाहिए? क्या इन्हें लागू करने के लिए कोई नियम बनना चाहिए या इसे राजनीतिक दलों के विवेक पर छोड़ देना चाहिए?

इसे लेकर देश में दशकों से प्रश्न उठाए जाते रहे हैं। इस पर राजनीतिक दलों की राय अलग-अलग है। मुफ्त के वादे करने वाले दलों का तर्क है कि देश के विकास और समाज में समानता लाने के लिए ऐसा करना जरूरी है, अन्यथा समाज में विषमता बनी रहेगी। वहीं, विरोध करने वालों का कहना है कि ऐसी घोषणाएं आर्थिक ढांचे को कमजोर करने और असंतुलन बढ़ाने के अतिरिक्त कुछ नहीं करतीं। सर्वोच्च न्यायालय भी इस मुद्दे पर एक राय व्यक्त नहीं कर सका है।

एक मामले में न्यायालय ने इसे ‘गंभीर मुद्दा’ तो माना, लेकिन यह भी कहा कि करदाता कह सकते हैं कि उनके कर से प्राप्त राजस्व को राजनीतिक लाभ के लिए खर्च करना नैतिकता नहीं है। सरकारों को कर से प्राप्त धन का उपयोग विकास पर खर्च करना चाहिए। हालांकि ‘रेवड़ी’ बांटने वाला राजनीतिक दल यह तर्क दे सकता है कि लोगों के कल्याण व उनके सर्वांगीण विकास के लिए ऐसा करना जरूरी है। इसलिए इस प्रश्न का उत्तर बहुत सीधा नहीं हो सकता। इस पर नीति बनाते समय लोगों के कल्याण और अर्थव्यवस्था को होने वाले नुकसान में संतुलन का ध्यान रखा जाना चाहिए। संभवत: इसीलिए तमिलनाडु सरकार से संबंधित मामले में शीर्ष अदालत को कहना पड़ा कि राजनीतिक दलों के घोषणापत्र में किए गए वादों को भ्रष्ट आचरण नहीं कहा जा सकता।

सर्वोच्च न्यायालय की उपरोक्त टिप्पणियों, चुनाव आयोग और रिजर्व बैंक की राय को अगर कसौटी मानें तो मुफ्त की सुविधाओं के कारण कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश में आर्थिक बदहाली के बाद यह प्रश्न अधिक प्रासंगिक हो गया है कि कांग्रेस द्वारा की जा रही चुनावी घोषणाओं का उद्देश्य लोक कल्याण है या कपटपूर्ण तरीके से सत्ता हासिल करना।

भाजपा से सीखे कांग्रेस

अर्थशास्त्री प्रो. ए.पी. तिवारी कहते हैं कि भाजपा सरकारों ने राजकोषीय सेहत से कोई समझौता नहीं किया। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार और भाजपा शासित राज्य सरकारों ने ज्यादातर घोषणाएं बजट प्रस्तुत करते हुए की हैं। साथ ही, पूर्व की घोषणाओं को लागू करते समय केंद्र और भाजपा शासित राज्यों ने उनके लिए धन की व्यवस्था कहां से होगी, इसकी स्पष्ट व्यवस्था की। चाहे मुफ्त रसोई गैस कनेक्शन हो, गरीबों को मुफ्त अनाज हो, प्रधानमंत्री आवास हो या आयुष्मान भारत योजना, सभी को धन की व्यवस्था करने के बाद लागू किया गया। दूसरी बात, मोदी सरकार की अधिकांश योजनाएं गैर चुनावी दिनों में लागू की गईं।

2017 में भाजपा ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान किसानों का एक लाख रुपये तक कर्ज माफ करने का वादा किया था। जब उसकी सरकार बनी तो बाकायदा एक कमेटी बनाई, फिर माफी से खजाने पर पड़ने वाले असर को कम करने के लिए वैकल्पिक इंतजाम किया, तब इसे लागू किया। लेकिन कांग्रेस ने बिना सोचे-समझे जिस तरह मुफ्त वाली घोषणाएं कीं, उससे खजाने पर बोझ पड़ा और वित्तीय स्थिति चरमराने लगी। इससे तो यही लगता है कि सत्ता पाने के लिए व्याकुल कांग्रेस मुफ्त वाली घोषणाएं करते समय यह भी नहीं देखती कि उन्हें पूरा करने के लिए राजकोषीय सामर्थ्य है या नहीं। यही कारण है कि खड़गे को कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री को कहना पड़ा कि वही चुनावी वादे किए जाएं, जिन्हें पूरा किया जा सके। इसके बावजूद मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने योजनाएं जारी रखने की घोषणा की है।

चुनावी वादे पूरा करने में कर्नाटक और हिमाचल की सरकारों हांफते देखकर भी राहुल गांधी ने झारखंड में 7 गारंटी दी है। इसमें 450 रु. में गैस सिलेंडर, 300 यूनिट मुफ्त बिजली, हर व्यक्ति को 7 किलो अनाज, महिलाओं को प्रतिमाह 2,500 रुपये देने, आरक्षण, 10 लाख लोगों को नौकरी और 15 लाख रु. तक स्वास्थ्य बीमा देने जैसे वादे शामिल हैं। 81 विधानसभा सीटों वाले झारखंड में पहले चरण 43 सीटों पर 66 प्रतिशत से अधिक मतदान हुआ है, जो 2019 विधानसभा चुनाव से अधिक है।

शेष सीटों पर 20 नवंबर को मतदान होगा। उधर, कांग्रेस ने महाराष्ट्र में महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा, हर माह 3,000 रुपये, किसानों को तीन लाख रुपये तक कर्ज माफी, बेरोजगार युवकों को प्रतिमाह 4,000 रुपये भत्ता व 25 लाख रुपये तक स्वास्थ्य बीमा सुविधा देने का वादा किया है। लेकिनराहुल के वादों का हश्र वही न हो जाए, जो कर्नाटक व हिमाचल में हुआ है।

मंशा उजागर

कांग्रेस ने राज्य में महा विकास अघाड़ी की सरकार बनने पर जातिगत जनगणना कराने और नौकरियों में अधिकतम 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा को समाप्त करने का वादा भी किया है। प्रश्न है कि कर्नाटक में जातिगत जनगणना हो चुकी है, तो आंकड़े अभी तक जारी क्यों नहीं किए गए? राहुल गांधी इसे जारी करने के लिए क्यों नहीं कहते? इसी तरह, आरक्षण की सीमा सर्वोच्च न्यायालय ने तय की थी। इसके पीछे न्यायालय की मंशा रही होगी कि मेधावी छात्रों के लिए अवसर सीमित न हो जाएं और आर्थिक रूप से पिछड़े परिवार को सहायता तथा सम्मान का काम भी न रुके। हालांकि, कुछ राज्य सरकारों ने इसे तोड़ने की कोशिश भी की, लेकिन उन्हें कोई लाभ नहीं मिला। कई मामलों में न्यायालय ने ही इन कोशिशों को खारिज कर दिया।

कांग्रेस शासित राज्य ही नहीं, जिन राज्यों में उसके सहयोगी दलों की सरकारें हैं, वे भी चुनावी वादे पूरे नहीं कर पा रही हैं। दिल्ली, पंजाब, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु सहित कई राज्य चुनावी वादों को पूरा करने में आर्थिक रूप से बदहाल हो गए हैं। यह सब देखकर यह प्रश्न अधिक समीचीन हो जाता है कि लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी ने संविधान की रक्षा का जो संकल्प लिया था, क्या वह भी सिर्फ सत्ता में आने का हथकंडा था? कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों द्वारा चुनाव में मुस्लिम आरक्षण का वादा क्या संविधान की अनदेखी नहीं है? कर्नाटक सरकार ने निजी क्षेत्र में कन्नड़ भाषियों के लिए आरक्षण का फैसला करके क्या क्षेत्रवाद को बढ़ावा नहीं दिया? अलग बात है कि विरोध के बाद उसे अपना फैसला टालना पड़ा, लेकिन इस प्रकरण में राहुल गांधी की चुप्पी ने कांग्रेस की मंशा को तो उजागर कर ही दिया।

कांग्रेस की देन

राजनीति में क्षेत्रवाद की परंपरा की शुरुआत सबसे पहले दक्षिण में कांग्रेस ने ही शुरू की थी। उस समय तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के. कामराज थे। ‘रेवड़ी कल्चर’ की शुरुआत भी वहीं से हुई। उन्होंने स्कूलों में गरीब बच्चों के लिए मुफ्त भोजन और ड्रेस योजना लागू की थी। हालांकि, उन्होंने इसके लिए धन की पर्याप्त व्यवस्था की थी। लेकिन 2006 में द्रमुक ने इसे व्यापक रूप दिया। महिलाओं को रंगीन टेलीविजन देने का वादा कर वह सत्ता में आई। बाद में 2011 में अन्ना द्रमुक ने मिक्सर ग्राइंडर से लेकर सोने की थाली देने का वादा कर सत्ता पर काबिज हुई। फिर तो यह सिलसिला चल निकला। लेकिन बिना सोचे-समझे वादे कर सत्ता में आने पर कांग्रेस की सरकारें अपने वादों से पलट रही हैं। इस पर भी राहुल गांधी चुप्पी साध लेते हैं और वादों को पूरा कराने के बजाय नए चुनावी वादों से लोगों को भरमाते दिखते हैं। इससे उनकी व कांग्रेस की नीयत पर संदेह बढ़ना स्वाभाविक है।

बहरहाल, वर्तमान मुख्य निर्वाचन आयुक्त ने कहा है कि राजनीतिक दलों ने ‘रेवड़ी कल्चर’ को अपना अधिकार समझ लिया है। उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि जनता को जानने का अधिकार है कि उससे किए जा रहे वादे कैसे पूरे होंगे? उनके लिए धन कहां से आएगा? जनता को यह भी जानने का अधिकार है कि घोषणा-पत्र में किए गए वादों को पूरा करने से बजट में टैक्स बढ़ेगा या कुछ योजनाएं बंद होंगी? साथ ही, उन्होंने इस बाबत उम्मीदवारों या संबंधित राजनीतिक दलों से एक प्रपत्र भरवाने की प्रक्रिया शुरू करने की बात भी कही है। चुनाव आयोग के इस रुख से उम्मीद जगी है कि देरे-सबेर ‘रेवड़ी कल्चर’ पर रोक लगेगी।

क्या है ‘रेवड़ी कल्चर’?

‘रेवड़ी कल्चर’ की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है। इसी तरह के एक मामले में चुनाव आयोग द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल शपथ-पत्र में कहा गया है कि प्राकृतिक आपदा से प्रभावित लोगों को मुफ्त खाना या अन्य मदद को ‘रेवड़ी कल्चर’ नहीं कहा जा सकता, लेकिन बिना जरूरत सिर्फ लोगों को प्रभावित करने के लिए की जाने वाली घोषणाएं ‘रेवड़ी कल्चर’ की श्रेणी में आती हैं। इसी तरह के एक प्रश्न पर भारतीय रिजर्व बैंक ने कहा है कि अगर किसी घोषणा या योजना से ऋण के लेन-देन का तंत्र कमजोर हो, सब्सिडी की वजह से वस्तुओं की कीमतें बिगड़ें, निजी निवेश में गिरावट आए, श्रम बल घटने लगे तो उसे ‘रेवड़ी कल्चर’ का हिस्सा ही मानना चाहिए। इसलिए भी यह प्रश्न उठता है कि रेवड़ी कल्याण और कल्याणकारी योजनाएं एक ही हैं या अलग-अलग?

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