भारत के इतिहासकारों ने मुगलों को महान और बेचारा आदि दिखाने में बहुत श्रम किया है। जहां बाबर को एक ऐसे योद्धा के रूप में दिखाया गया, जिसने तमाम मुसीबत झेलते हुए हिंदुस्तान पर कब्जा किया। मगर उसकी बहादुरी के किस्सों में उसने जितने कटे हुए सिरों की मीनारें बनाईं, उन्हें अनदेखा कर दिया गया। ऐसे ही हुमायूं, जो अफीमची था और जिसमें नेतृत्व का गुण नहीं था, जो निहायत ही कमजोर और अय्याश था, उसे बेचारा साबित करने में काफी श्रम किया गया।
जब उसकी मौत लड़खड़ाकर गिरने से हुई तो उसके विषय में लिखा गया कि “हुमायूं जीवन भर लड़खड़ाता रहा और लड़खड़ाते हुए अपनी जान दी!” मगर उसके गिरने के कारणों पर नहीं लिखा गया। हुमायूं के विषय में एक पुस्तक है हुमायूंनामा! इसे लिखा है बाबर की बेटी गुलबदन बेगम ने। गुलबदन बेगम ने इस पुस्तक में काफी कुछ ऐसा लिखा है, जो इन मुगलों की असलियत बताने के लिए पर्याप्त है। इसी किताब में यह भी लिखा है कि कैसे कनीजों को सेक्स के लिए प्रयोग किया जाता था।
हुमायूंनामा में लिखा है कि – ‘माहम बेगम की बहुत इच्छा थी कि हुमायूं के पुत्र को देखूं। जहां सुन्दर और भली लड़की होती, वह बादशाह की सेवा में लगा देतीं थी। खदंग चोबदार की पुत्री मेव जान मेरी गुलामी में थी। बादशाह फिर्दैसमकानी की मृत्यु के उपरान्त एक दिन उन्होंने स्वयं कहा कि हुमायूं, मेव जान बुरी नहीं है। इसे अपनी कनीज क्यों नहीं बनाते। इस कथनानुसार उसी रात हुमायूँ बादशाह ने उससे निकाह कर लिया’
हुमायूंनामा-पृष्ठ 38
लड़के की चाह में निकाह कनीज से ही पढ़वा दिया जाए? यह कैसी स्त्री विरोधी मानसिकता थी? हुमायूं की अय्याशियों के किस्सों को जानबूझकर जैसे छिपा दिया गया। उसे बहुत ही बेचारा दिखाने की लगातार कोशिश की गई। मगर वह बेचारा न होकर शातिर था, जैसा कि रानी कर्णावती वाले वाकये से स्पष्ट होता है। कैसे पूरा ईकोसिस्टम यह साबित करने में लग गया कि हुमायूं रानी कर्णावती की राखी का मोल चुकाने के लिए गया था। मगर वह पूरा किस्सा कुछ और ही कहानी बताता है। इसी कथित महानता के झूठ में दब जाती है वह कहानी जिससे यह पता चलता है कि पराई बहन को बचाने का दावा करने वाले हुमायूं ने अपनी ही बेटी को अपनी जान बचाने के चक्कर में नदी में बह जाने दिया था।
चौसा के युद्ध की बात है। युद्ध में हुमायूं की शेरशाह सूरी के हाथों पराजय हुई थी और उसे जान बचाकर भागना पड़ा था। इसी युद्ध में उसकी बेटी अकीक बेगम खो गई थी। गुलबदन बेगम ने लिखा है, ‘लाहौर पहुंचने पर समाचार आया कि गंगा के किनारे पर युद्ध हुआ और शाही सेना हार गयी। इतना ही अच्छा रहा था कि बादशाह बच गए थे। दूसरे संबंधीगण जो आगरे में थे, वह अलवर होते हुए लाहौर चले। उस समय बादशाह ने मिर्जा हिंदाल से कहा कि प्रथम घटना (चौसा युद्ध) में अकीक बीवी खो गयी थी और दुःख है कि उसे अपने सामने ही क्यों नहीं मार डाला। अब भी औरतों का ऐसे समय साथ ही रक्षा के स्थान पर पहुंचना कठिन है!’
ऐसा हुमायूं था, जो चाहता था कि अपनी ही बेटी को अपनी आंखों के सामने मार डाले। मगर उसने खुद की जान बचा ली और अकीक बेगम कहां गई, कुछ पता नहीं चला। दुर्भाग्य यही है कि ऐसे भगोड़े और अय्याश, अफीमची लोगों को बेचारा बताकर उसके प्रति सहानुभूति पैदा करने का प्रयास अभी तक किया जाता रहा। जो अपनी बेटी के लिए ऐसा सोच सकता है, वह क्या हिंदू रानी को बचाने के लिए जा सकता है? ऐसा भी प्रश्न कभी नहीं हुआ।
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