9 अक्तूबर, 1930 को टुरिया सत्याग्रह में भाग लेने वाली जनजातीय वीरांगनाओं के बलिदान की अमर गाथा को इतिहास के पन्नों से विस्मृत कर दिया गया। यह सत्याग्रह जंगल को बचाने के लिए किया गया था। जलियांवाला बाग की तरह इस सत्याग्रह में भाग ले रहे जनजातीय समुदाय के निहत्थे लोगों पर अंग्रेजों ने ताबड़तोड़ गोलियां बरसाई थीं। इसमें जनजातीय समुदाय से आने वाली कई वीरगंनाएं मारी गई थीं।
भारत में असहयोग आंदोलन के असफल होने के बाद स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए आंदोलन और उग्र हो चला था। ब्रितानिया सरकार यह चाहती थी, कि 1919 के मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार का सर्वे किया जाए, इसलिए साइमन कमीशन को भारत भेजा गया। लेकिन इस कमीशन में भारत का एक भी प्रतिनिधि न होने के कारण तथा उसमें भारत को ‘डोमिनियन स्टेटस’ यानी ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन स्वायत्त-संपन्न देश का दर्जा न देने के कारण विवाद उत्पन्न होता चला जा रहा था। ऐसी स्थिति में संपूर्ण भारत में उत्तेजना का वातावरण उत्पन्न हो गया था। इंकलाब जिंदाबाद, क्रांति अमर रहे के स्वर उठ रहे थे।
भारत सचिव बर्कनहेड ने स्पष्ट कर दिया था कि भारत को डोमिनियन स्टेटस का दर्जा अभी नहीं दिया जा सकता, इसलिए महात्मा गांधी के साथ कांग्रेस ने 1929 में लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पारित किया। गांधीजी ने तत्कालीन वायसराय इरविन को 11 सूत्रीय मांगें प्रस्तुत की, परंतु वायसराय ने मानने से इनकार कर दिया। इसीलिए महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन का मार्ग अपनाया, जिसका मूल मंत्र था-अहिंसा के साथ सत्याग्रह। गांधी जी ने सविनय अवज्ञा के अंतर्गत नमक सत्याग्रह आरंभ किया और 241 मील पैदल यात्रा कर दांडी पहुंचे। उन्होंने 6 अप्रैल को सांकेतिक रूप से नमक कानून तोड़ दिया।
महाकौशल प्रांत में सविनय अवज्ञा आंदोलन का शानदार आरंभ हुआ। जबलपुर से 15 स्वतंत्रता सेनानी मार्च के अंतिम सप्ताह में ही समुद्र का पानी लेने के लिए मुंबई चले गए थे। 4 अप्रैल, 1930 तक वे सभी जबलपुर लौट आए और 15 पात्रों में समुद्र का पानी भर कर लेकर आए। 8 अप्रैल को तिलक भूमि तलैया में नमक कानून तोड़ा गया और सिवनी में गांधी चौक पर दुर्गाशंकर मेहता जी के नेतृत्व में नमक कानून तोड़ा गया।
महाकौशल प्रांत में भी नमक कानून को तोड़ा गया। शराब की दुकानों के सामने धरने दिए गए, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया गया, लेकिन इसके बाद आंदोलन में शिथिलता आने लगी। इसलिए महाकौशल प्रांत में एक अद्भुत और अद्वितीय आंदोलन प्रारंभ हुआ, जिसे हम सभी जंगल सत्याग्रह के नाम से जानते हैं। यह संपूर्ण भारत में अपने आप में सबसे अलग था। महाकौशल के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के मध्य वन सत्याग्रह को लेकर विचार विमर्श हुआ और उसकी अनुमति लेने के लिए द्वारका प्रसाद मिश्र इलाहाबाद गए। जहां एक यह विचार उठा कि पेड़ काटना अहिंसक आंदोलन के विरुद्ध होगा वहीं उन्होंने इस बात की पुष्टि करते हुए कहा कि मध्य प्रांत में बहुत अधिक वन हैं और वन विधानों के विरुद्ध यह आंदोलन बहुत सफल होगा, क्योंकि जनजातियां भी इसमें अपना महत्वपूर्ण योगदान निभाएंगी।
सो जनजाति समुदाय ने पूरे महाकौशल प्रांत में वन सत्याग्रह आरंभ कर दिया। बैतूल और सिवनी जिलों में अंग्रेजी फौज ने वन सत्याग्रहियों के ऊपर गोलियां चलवाईं। जंगल सत्याग्रह पूरे क्षेत्र में फैल गया। बंजारी ढाल में 500 जनजाति सत्याग्रहियों की भीड़ पर पुलिस ने गोली चलाई। इसमें कई लोग घायल हुए। जंगल सत्याग्रह जबलपुर, कटनी और सिहोरा तहसीलों में हुआ जहां पुलिस ने सत्याग्रहियों को बुरी तरह पीटा और बड़ी संख्या में गिरफ्तार कर लिया।
इसी क्रम में सिवनी जिले के टुरिया गांव का आंदोलन अकेली ऐसी चिंगारी थी, जिसने ब्रितानिया साम्राज्य को हिला के रख दिया था। महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मूका लुहार, बिरजू भोई और राम प्रसाद के नेतृत्व में टुरिया वन सत्याग्रह का शंखनाद कर दिया गया। 9 अक्तूूबर, 1930 को टुरिया (विकास खंड-कुरई) से वन सत्याग्रह का आरंभ हो गया। यह खबर सिवनी के डिप्टी कमिश्नर सीमेन को लग गई। उसने इंस्पेक्टर सदरुद्दीन के साथ 100 हथियारबंद पुलिस वाले भेज दिए। साथ ही, उसने सदरुद्दीन को एक चिट दी, जिसमें लिखा था, ‘टीच देम लेसन’ जिसका स्पष्ट आशय था कि टुरिया के गांव वालों को सबक सिखाओ।
मूका लुहार को गिरफ्तार कर लिया गया। उनकी गिरफ्तारी की बात सुनकर गांव के स्त्री-पुरुष, बालक सभी पुलिस कैंप की ओर चल दिए। बिरजू भोई (ग्राम-मुरझोड़) और महिलाओं में श्रीमती मुड्डे बाई (ग्राम-खामरीठ-अमरीठ), श्रीमती रेनो बाई (ग्राम-खंबा), श्रीमती देभो बाई (ग्राम-भिलसा) नेतृत्व कर रही थीं। वीरांगना मुड्डे बाई के नेतृत्व में जनजातीय समुदाय के 500 लोग एकत्रित हो गए थे। उनके हाथ में हंसिए थे, परंतु उन्होंने आक्रमण नहीं किया और मूका लुहार को छोड़ने को कहा। सदरुद्दीन चेतावनी दिए बिना गोली चलाने का आदेश दिया।
इस गोलीकांड में बिरजू भोई के साथ मुड्डे बाई, रेनी बाई और देभो बाई बलिदान हो गईं। बाकी बचे स्वतंत्रता सेनानियों को पेड़ से बांधकर कोड़े लगाए गए। डिप्टी कमिश्नर ने 18 लोगों पर मुकदमा चलाने के आदेश दिए। इनकी पैरवी सिवनी के दो वकीलों पी.डी. जटार एवं एन.एन. सील ने की। दोनों ने अंग्रेज अधिकारियों की बर्बरता को उजागर करने की दृष्टि से उन गांव वालों का बचाव करने का निश्चय किया। जब सील मुकदमे के रिकॉर्ड की जांच कर रहे थे, उन्हें सदरुद्दी को भेजा गया वह पत्र लिफाफे में बंद मिला, जिसमें सीमेन ने उसको टुरिया के गांव वालों को सबक सिखाने की हिदायत दी थी। इंस्पेक्टर ने अपने बचाव के लिए वह पत्र संभाल कर रखा था।
उस पत्र का पता लगने पर अदालत में उत्तेजना फैल गई थी। डिप्टी कमिश्नर यह समाचार मिलते ही क्रोधित हो गया और न्यायालय में यह जानने के लिए दौड़ा आया कि पत्र रिकॉर्ड में कैसे पाया गया। डिप्टी कमिश्नर की उपस्थिति के बावजूद बिना घबराए वकीलों ने उस पत्र की अधिकृत प्रति के लिए अर्जी लगाई। मजिस्ट्रेट महोदय दोनों वकीलों को अपने खास कमरे में ले गए और सभी सत्याग्रहियों को इस शर्त पर जमानत पर छोड़ने के लिए तैयार हो गए कि वे लोग उस पत्र की प्रति नहीं मांगेंगे। लेकिन वकीलों ने उनके प्रस्ताव को नामंजूर कर उच्च न्यायालय को उस न्यायालय से मुकदमा किसी दूसरे न्यायालय में स्थानांतरण करने का आवेदन दिया।
उच्च न्यायालय ने मुकदमे को तो स्थानांतरित नहीं किया, लेकिन शासन ने डिप्टी कमिश्नर का सिवनी से स्थानांतरण कर दिया। टुरिया सत्याग्रह की आग संपूर्ण महाकोशल प्रांत में फैल गई और सर्वत्र वन सत्याग्रह आरंभ हो गया, लेकिन महात्मा गांधी द्वारा सविनय अवज्ञा आंदोलन समाप्त कर देने के कारण यह आंदोलन भी समाप्त हो गया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में इस महान सत्याग्रह को कहीं भी राष्ट्रीय स्तर पर अथवा पाठ्यपुस्तकों में उचित स्थान नहीं दिया गया। टुरिया सत्याग्रह के बलिदानी गुमनाम ही रहे।
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