भारत

बलिदान दिया पर झुके नहीं

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पाञ्चजन्य ब्यूरो

भारत के जनजातीय समुदाय ने हमेशा आक्रांताओं का कड़ा विरोध किया। संथाल क्रांति हो या भूमकाल आंदोलन, बिरसा मुंडा का नेतृत्व हो या वीर नारायण सिंह का बलिदान, इन सभी क्रांतिकारी घटनाओं और गतिविधियों को इतिहास के पन्नों में दबाकर रखा गया। स्वाधीनता के लिए पहली संगठित क्रांति 1857 में हुई थी। हालांकि इससे पूर्व और इसके बाद भी देशभर में जनजातीय समुदाय विदेशी आक्रांताओं से संघर्ष करते रहे। झारखंड से लेकर छत्तीसगढ़, बंगाल, बिहार, ओडिशा, आंध्र और तेलंगाना समेत गुजरात और राजस्थान में जनजातीय समुदाय के योद्धाओं ने पहले मुगल आक्रांताओं से, फिर अंग्रेजों से संघर्ष किया।

14वीं सदी में रोहतासगढ़ के युद्ध में वहां की राजकुमारी सिनगी दई और सेनापति की पुत्री कइली दई ने अपने अद्भुत युद्ध कौशल एवं बुद्धिमत्ता से इस्लामी आक्रांताओं को नाकों चने चबवा दिए थे। मातृभूमि की स्वतंत्रता, संप्रभुता के लिए गोंडवाना की रानी दुर्गावती ने अनेक बार मुगल सेना को पराजित किया। उनके नेतृत्व में किया गया युद्ध हो या रोहतासगढ़ की संघर्ष गाथा, इन सब में सर्व समाज ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, खासतौर पर जनजातीय समुदाय की महिलाएं इन युद्धों में आगे रहीं।

1857 के स्वातंत्र्य समर से 80 वर्ष पूर्व बिहार के वनवासी क्षेत्रों में वीर तिलका मांझी ने ईसाई मिशनरियों के विरुद्ध संघर्ष की शुरुआत कर दी थी। वनवासियों की भूमि कब्जाने और ईसाई मिशनरियों द्वारा किए जा रहे कन्वर्जन के विरुद्ध उन्होंने समाज को एकजुट कर क्रांति की लौ जलाई थी। 1771 से 1784 तक तिलका मांझी ने अंग्रेजों के विरुद्ध ऐसा संघर्ष छेड़ा कि अंग्रेजी हुकूमत घबरा गई। बाद में अंग्रेजों ने उन्हें धोखे से पकड़ा और फांसी दे दी। तिलका मांझी के बलिदान ने क्रांति का ऐसा बीज बोया, कि देश के स्वाधीन होने तक समय-समय पर जनजातीय समाज अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्षरत रहा। 1855 की संथाल क्रांति को हूल क्रांति के नाम से भी जाना जाता है। इसका नेतृत्व सिद्धो, कान्हो, चांद और भैरव नामक 4 भाइयों ने किया था। इस क्रांति में इनकी दो बहनें, फूलो और झानो भी शामिल हुई थीं। क्रांति का क्षेत्र वर्तमान झारखंड और बंगाल का पुरुलिया एवं बांकुड़ा था। ब्रिटिश ईसाइयों के विरुद्ध इस क्रांति में 20,000 से अधिक वनवासियों ने हिस्सा लिया था।

1828 से लेकर 1832 के बीच, वर्तमान झारखंड क्षेत्र में जनजातीय समुदाय ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एक और बड़ी क्रांति को अंजाम दिया था। इसे ‘लरका आंदोलन’ के नाम से जाना जाता है। इस आंदोलन में जनजातीय समुदाय के हजारों लोग शामिल हुए थे, जिनका नेतृत्व 7 लोगों ने अलग-अलग स्तर पर किया था। अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें हिलाने वाले संघर्ष में बुद्धू भगत, हलधर, गिरधर, उनकी बहन रुनिया और झुनिया समेत कई क्रांतिकारी शामिल थे। इन क्रांतिकारियों को पकड़ने के लिए अंग्रेजों ने दिन-रात एक कर दिया था, पर 2 वर्ष तक वे नाकाम रहे। लरका क्रांति के दौरान क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी सेना के गोला-बारूद डिपो को ध्वस्त कर दिया था। कई बार उनके हथियार लूटे, और अनेक अंग्रेज अफसरों को मौत के घाट उतार दिया। लरका आंदोलन के नेतृत्वकर्ताओं की गिरफ्तारी के लिए अंग्रेजों ने पहले अभियान चलाए, फिर उन पर इनाम भी घोषित किए। इनाम के लालच में आंदोलन से जुड़ा एक व्यक्ति अंग्रेजों का मुखबिर बन गया। नतीजा, एक साथ कई क्रांतिकारी पकड़े गए। इसके बाद इन स्वाधीनता सेनानियों ने मां भारती को स्वतंत्र कराने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी, लेकिन ब्रिटिश सत्ता के सामने झुके नहीं।

शूरवीर समाज, अनूठा शौर्य

भारत में अंग्रेजों के पांव जमाने से पूर्व जनजातीय समाज वनांचल में शांतिपूर्ण तरीके से जीवन व्यतीत कर रहा था, लेकिन अंग्रेज ईसाइयों की नीतियों और उनकी गतिविधियों ने वनवासी समाज को न सिर्फ आक्रोशित किया, बल्कि उन्हें एकत्रित भी किया। औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा कृषि, मछली पालन, पशुपालन एवं वन्य संबंधी नीतियों के कारण वनवासियों की पारंपरिक भूमि और व्यवस्था का ह्रास हुआ, जिससे जनजातीय समाज मे निराशा बढ़ती गई। 1856 में की वन नीति, 1865 का वन अधिनियम, 1878 में पारंपरिक वन उत्पादों के उपयोग पर प्रतिबंध और फिर 20वीं शताब्दी में विभिन्न कानूनों ने भी जनजातीय समाज में रोष पैदा किया। इसके अलावा, वनवासी समाज के भीतर सहस्राब्दियों पुरानी सनातन परंपरा को क्षीण कर ईसाई मिशनरियों द्वारा ईसाइयत का जिस तरह से प्रसार कर कन्वर्जन किया जा रहा था, उसने भी जनजातीय समाज के भीतर ब्रिटिश ईसाई सत्ता के विरुद्ध नाराजगी को और बढ़ा दिया था।

जनजातीय समाज की क्रांतियों एवं विद्रोहों को तीन चरणों में बांटा जा सकता है। पहला चरण 1795 से 1860 तक चला, जो ब्रिटिश ईसाई सत्ता की स्थापना एवं उसके विस्तार का था। दूसरा चरण 1860 से 1920 तक चला, जिसमें मुंडा क्रांति ने जनजातियों द्वारा की गई क्रांति की रूपरेखा को ही बदल दिया। तीसरा चरण 1920 से भारत की स्वाधीनता तक चला, जिसमें देश के विभिन्न हिस्सों में क्रांतियां हुईं।

पाइक क्रांति

1817 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध ओडिशा में पाइक जनजाति द्वारा की गई एक सशस्त्र क्रांति थी, जिसने ब्रिटिश सत्ता की नींव हिला दी थी। शेष भारत की भांति अंग्रेजों की नीतियां ओडिशा में शोषणकारी, दमनकारी, तानाशाही और धर्म विरोधी थीं, जिसने पाइक समाज के आक्रोश को बढ़ाया। बक्सी जगबंधु (बक्सी जगबंधु विद्याधर महापात्र भ्रमरबर रे) ने इस क्रांति का नेतृत्व किया था, जो खुर्दा के राजा मुकुंद देव के सेनापति थे। उन्होंने स्थानीय लोगों के साथ विद्रोह किया था। बाद में विद्रोह ने क्रांति का स्वरूप ले लिया। अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों के कारण एक वर्ष बाद आंदोलन शिथिल पड़ गया। अंतत: 1825 में सेनापति को पकड़ लिया गया और जेल में ही उनकी मृत्यु हो गई। 2017 में जब पाइक क्रांति के 200 वर्ष पूरे हुए, तब भारत सरकार ने आधिकारिक रूप से इसे ‘प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ का दर्जा देने की बात कही।

कोल क्रांति

अंग्रेजों के विरुद्ध जनजातियों की सबसे प्रमुख क्रांतियों में से एक कोल क्रांति भी है, जिसे झारखंड के छोटा नागपुर क्षेत्र में अंजाम दिया गया था। यह क्रांति अंग्रेजों द्वारा जनजातियों के पारंपरिक पेय ‘हड़िया’ पर कर लगाने और पूरे क्षेत्र में ईसाई मिशनरियों द्वारा बार-बार धार्मिक व्यवस्थाओं एवं परंपराओं पर चोट करने से उपजी थी। इसके बाद 1827 से इस क्षेत्र में जबरन अफीम की खेती की जाने लगी। मुसलमानों से साठ-गांठ कर अंग्रेजों ने जनजातियों की जमीन उन्हें दे दी। इससे आक्रोशित कोल जनजाति ने संगठित होकर 1831 में विद्रोह कर दिया, जिसका नेतृत्व सिंदराय मानकी और विंदराय मानकी ने किया था। बाद में वनवासी नेता बुधू भगत ने इसका नेतृत्व किया। इस क्रांति के दौरान जनजातियों ने कई ब्रिटिश अधिकारियों, सैनिकों एवं उनके नुमाइंदों को जला दिया या उनकी हत्या कर दी, जिसके बाद अंग्रेज बुरी तरह से कांप चुके थे। हालांकि, अंग्रेजों ने 2 वर्ष के बाद इस क्रांति को बेरहमी से कुचल दिया। इसमें जनजाति समाज के सैकड़ों वीर बलिदान हो गए।

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भील क्रांति

भीलों ने महाराणा प्रताप के साथ मुगलों से युद्ध किया और मातृभूमि व धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। 1812 से 1819 तक भीलों ने अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिए। इस क्रांति के दौरान पेशवा बाजीराव द्वितीय और उनके प्रतिनिधि त्र्यंबकजी दांगलिया ने भील समूह का पूरा सहयोग किया था। 1825 में सेवाराम भील के नेतृत्व में भीलों ने एक बार फिर अंग्रेजों को ऐसी धूल चटाई कि अंग्रेज भयभीत हो गए। हालांकि, एक ओर से अंग्रेजों का दमन चक्र जारी रहा, लेकिन भीलों ने बार-बार पलटवार किया। 1831 और 1846 में भीलों ने फिर क्रांति की मशाल जलाई और अंग्रेजों की नींद उड़ा दी। भीलों के बीच से अमर बलिदानी गोविंद गुरु ने लंबी अवधि तक दक्षिण राजस्थान के क्षेत्र में भीलों को संगठित कर 1913 तक विभिन्न प्रकार के संघर्षों को अंजाम दिया।

मुंडा क्रांति

यह मुंडा जनजातियों द्वारा की गई क्रांति थी, जिसे अंग्रेजों के विरुद्ध अलग-अलग काल में 7 बार अंजाम दिया गया। 1789 से 1832 के बीच ही मुंडाओं ने अंग्रेजों के विरुद्ध लगातार विद्रोह किए। 1857 के बाद मुंडाओं के बीच ईसाई मिशनरियों की पैठ मजबूत होती गई और ये ईसाई उन्हें उनकी परंपराओं से दूर करते गए। मुंडाओं का संघर्ष विभिन्न स्तरों पर जारी रहा, लेकिन उन्हें कोई बड़ी सफलता नहीं मिली। इसके बाद बिरसा मुंडा के नेतृत्व में 1894 में इस क्रांति को नई दिशा मिली। 1899 में उन्होंने सशस्त्र क्रांति का आह्वान किया और उनकी एक आवाज पर हजारों वनवासी नागरिकों ने ब्रिटिशों को जड़ से उखाड़ फेंकने का प्रण लिया। बिरसा मुंडा की बुद्धिमत्ता, कौशल एवं रणनीतियों से अंग्रेज बुरी तरह घबरा चुके थे।

खासी क्रांति

उत्तर-पूर्व भारत में अंग्रेजों द्वारा गारो एवं जयंतिया पहाड़ी क्षेत्रों पर कब्जा करने के बाद खासी समुदाय ने 1829 में तिरोत सिंह के नेतृत्व में क्रांति का बिगुल फूंका था। अगले 4 वर्ष तक अंग्रेजों को उन्होंने चैन से नहीं रहने दिया। 1833 में अंग्रेजों ने निर्दयता से इस क्रांति को कुचल दिया। इसमें हजारों वीर बलिदान हुए। इस क्रांति की शुरुआत अंग्रेजी सेना पर तिरोत सिंह के हमले से हुई थी। इस लड़ाई में खासी समुदाय की हार हुई और इनके क्षेत्रों पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया। अंग्रेजों ने खासी भूमि पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए और खासी समुदाय के गांवों को जला दिया।

सिंगफोस विद्रोह

अंग्रेज एक तरफ खासी समुदाय का विरोध झेल रहे थे, दूसरी ओर असम में सिंगफोस विद्रोह शुरू हो गया। 1830 में शुरू हुए इस विद्रोह को अंग्रेजों ने मात्र 4 माह में ही दबा दिया। लेकिन ब्रिटिश अधिकारी की हत्या के बाद एक बार फिर से यह विद्रोह शुरू हुआ। 1843 में सिंगफोस के प्रमुख निरंग फिदु ने ब्रिटिश अधिकारी पर हमला किया और कई सैनिकों को मौत के घाट उतारा दिया। 1849 में सिंगफोस समूहों ने असम में पुन: आक्रामकता दिखाई, लेकिन अंतत: अंग्रेजी सरकार ने इस विद्रोह को भी दबा दिया।

टाना भगत आंदोलन

1900 में बिरसा मुंडा के बलिदान के बाद मध्य भारत में क्रांति की लहर दौड़ गई थी। इसके परिणामस्वरूप 1914 से 1919 के बीच छोटा नागपुर क्षेत्र में टाना भगत के नेतृत्व में उरांव समूहों का विशाल जनांदोलन हुआ। शुरुआत में यह धार्मिक आंदोलन था, जो बाद में स्वतंत्रता संग्राम में बदल गया। आंदोलन के बाद क्षेत्र के कई हिस्सों में उरांव समाज ने विभिन्न प्रकार से सत्याग्रह या सविनय अवज्ञा आंदोलन किया व अंग्रेजों द्वारा थोपे गए कानूनों का विरोध किया। इसे एक प्रकार के सांस्कृतिक आंदोलन की संज्ञा भी दी जाती है।

रम्पा क्रांति

इस क्रांति से भारत का दक्षिणी हिस्सा भी अछूता नहीं रहा। 1922 से 1924 के बीच विशाखापत्तनम क्षेत्र के पूर्वी गोदावरी भाग में अल्लूरी सीताराम राजू के नेतृत्व में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध ऐसा विद्रोह हुआ, जिसने अंग्रेजों की नींव हिला दी। इस क्रांति के दौरान क्षेत्र के तमाम जनजातीय समुदायों ने अलग-अलग तरीके से आंदोलन किए। आंदोलन के दौरान पुलिस थानों के सामने धरना देने से लेकर कई अंग्रेज अधिकारियों को मौत के घाट उतारा गया। इस विद्रोह को उस क्षेत्र के लगभग सभी जनजातीय समूहों का समर्थन प्राप्त था। 1924 में अंग्रेजों ने इस विद्रोह का नेतृत्व करने वाले अल्लूरी सीताराम राजू को पकड़ लिया और एक पेड़ से बांधकर उन्हें गोली मार दी।

चक्र बिशोई का जन्म 1823 में ओडिशा के गंजम जिला के चक्रगढ़ गांव में हुआ था। वे राज्य के वनक्षेत्र फुलबनी में बोधमंडल की पहाड़ियों में पर रहने वाली कन्ध जनजाति के सेनापति थे। 1935 तक ब्रिटिश सेना ने फुलबनी के निकटस्थ सभी क्षेत्रों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। एक छोटे से पहाड़ी राज्य घुमसर की वनवासी सेना ने चक्र बिशोई के नेतृत्व में उस समय के आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित ब्रिटिश सेना को दो वर्ष तक आगे बढ़ने से रोके रखा। 1854 में मैक्नील को फुलबनी के इस स्वातंत्र्य संघर्ष को कुचलने के लिए भेजा गया। ब्रिटिश फौज ओंगुल की ओर कुरूमणियां दर्रे की तरफ से बढ़ी। गोड्डा के निकट ब्रिटिश फौज घेर ली गईं और चक्र बिशोई के वनवासी वीरों ने अंग्रेजों के खून से उस दर्रे को रंग डाला। अंग्रेज उन्हें पकड़ने की लगातार कोशिश करते रहे, लेकिन कभी पकड़ नहीं पाए।
हैपोउ जादोनांग का जन्म 1905 में मणिपुर के तामेंगलोंग जिले के कांबिरोन गांव में हुआ था। गरीब परिवार में जन्मे जादोनांग के पिता बचपन में ही चल बसे। बड़े भाई ने उन्हें पाला। उस समय अंग्रेज वहां के युवकों को पकड़-पकड़ कर सेना में नौकरी देकर विदेशों में भेज देते थे। प्रथम महायुद्ध के समय अंग्रेजों ने उन्हें भी मेसोपोटामिया और फ्रांस भेज दिया। वहां से लौटने के बाद उनके मन में स्वतंत्रता की आकांक्षा जगी। उन्होंने ‘हेरका’ नामक धार्मिक आन्दोलन चलाया। उन्होंने जेमी, लियांगमई तथा रांग्मई जनजातियों को एक किया और युवतियों की फौज खड़ी की। नागाओं की इस फौज ने 1931 तक अंग्रेजों के नाकों चने चबवाये। उन्हें घुटनों पर ला दिया। एक दिन वे एक मुस्लिम के घर रात्रि के समय विश्राम कर रहे थे, उसी ने विश्वासघात किया। जादोनांग पकड़े गए। 29 अक्तूबर, 1931 को उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। रानी गाइदिन्ल्यू उनकी चचेरी बहन थीं, जिन्होंने जादोनांग के कार्य को आगे बढ़ाया।
1835 में जन्मे यू कियांग नोंगबा मेघालय के वीर क्रांतिकारी थे। वह जयंतिया जनजाति समुदाय से थे।1835 में जयंतिया राज्य पर ब्रिटिश सेना ने आक्रमण किया। जयंतिया वीरों ने अपने राजा के नेतृत्व में वीरता से युद्ध किया, पर अंग्रेज जीत गए। मंत्रिमण्डल और प्रजा की इच्छा थी कि राजा पर्वतीय क्षेत्र में प्रस्थान करें। पर राजा ने ब्रिटिशों से संधि कर ली और जयंतियापुर में रहने का निर्णय लिया। जयंतिया प्रजा की नाराजगी स्वाभाविक थी और तब जयंतिया दरबार ने ब्रिटिश सत्ता से लोहा लेने के लिए यू कियांग नोंगबा को चुना। उन्होंने वीर युवकों को संगठित करना प्रारंभ किया। उनके निर्देश पर जयंतिया वीरों ने अंग्रेजों पर हमला करना शुरू किया और देखते-देखते प्रमुख स्थानों पर विजय प्राप्त ली। अंग्रेजों ने धोखे से वीर नोंगबा को बीमारी की अवस्था में गिरफ्तार कर लिया। 30 दिसंबर, 1862 को दिन में उन्हें फांसी पर लटका दिया गया।
1910 में बस्तर की राजगद्दी पर युवा राजा चंद्रप्रताप देव आसीन थे, लेकिन राज्य की व्यवस्था में अंग्रेजों के प्रतिनिधि व रियासत के दीवान रायबहादुर पंडा बैजनाथ का दखल अधिक था। बैजनाथ ने कुछ सुधारवादी नियम बनाए थे, जिनसे वनवासी नाखुश थे। कारण, नियमों की आड़ में उनका शोषण बढ़ गया था। राजमाता सुवर्ण कुवंर भी नई व्यवस्था के विरोध में थीं। उन्होंने लोगों को विद्रोह के लिए तैयार किया और उसकी बागडोर वीर गुंडाधुर को सौंपी। उन्होंने अपने विश्वस्त साथियों के साथ विद्रोह को बस्तर के कई हिस्सों में फैलाया। उत्तर-पूर्व में केशकाल और अंतागढ़ से लेकर दक्षिण-पश्चिम में कोटा और भोपालपटनम तक बस्तर का अधिकांश हिस्सा विद्रोह की लपटों में घिर गया था। उन्हें पकड़ने के लिए अंग्रेज दिन—रात एक करते रहे। उन पर 10,000 रुपये का इनाम भी घोषित किया गया, लेकिन उन्हें पकड़ा नहीं जा सका।
टिकैत उमरांव सिंह का जन्म रांची (झारखंड) के ओरमांझी प्रखंड के खटंगा गांव में हुआ था। उनके पास 12 गांवों की जमींदारी थी। 1857 की क्रांति के दौरान माधो सिंह के नेतृत्व में हजारीबाग के सैनिकों ने भी विद्रोह कर दिया। ओरमांझी में उनकी भेंट टिकैत उमरांव से हुई। उमरांव सिंह ने माधो सिंह को सूचित किया कि यूरोपीय सैनिकों के लिए घाट का मार्ग बाधित कर दिया जाएगा। मार्ग बाधित करने से अंग्रेजों के लिए घाटी पार करना मुश्किल था। कर्नल ई. टी. डाल्टन ने उमरांव सिंह को पत्र लिखा कि यदि घाटी-मार्ग को रोका तो तुम्हें प्राण दंड दिया जा सकता है, लेकिन वह नहीं झुके। बाद में अंग्रेज पलामू के रास्ते डोरंडा छावनी में प्रवेश कर गए। कर्नल एवं आयुक्त डाल्टन ने विरोधियों को पकड़ना एवं उन्हें फांसी देना प्रारंभ किया। इसी क्रम में उमरांव सिंह पकड़े गए। 8 जनवरी, 1858 को चुटुपालू घाटी, उमरांव सिंह और उनके साथी शेख भिखारी को एक वट वृक्ष पर लटका कर फांसी दे दी गई।
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