हम जानते हैं कि भारत के जनजातीय समाज का स्वतंत्रता आंदोलन में व्यापक, विस्तृत व विशाल योगदान रहा है। विदेशी आक्रान्ताओं के विरुद्ध 1812 से 1947 तक, भारत की अस्मिता के रक्षण हेतु इस समाज के हजारों योद्धाओं ने अपना सर्वस्व बलिदान किया है। जनजातीय समाज की आतंरिक संरचना ही ऐसी विलक्षण है कि यह सदैव स्वयं को देश की मिट्टी से जुड़ा हुआ पाता है। इस समाज की प्रत्येक पीढ़ी ने केवल जनजातीय परम्पराओं और राज्यों के लिए ही संघर्ष नहीं किया, बल्कि वनों से लेकर नगरीय समाज तक प्रत्येक देशज तत्व की विदेशियों से रक्षा का कार्य भी किया है।
ब्रिटिश राज के बाद से आज तक, वनवासी नगरीय समाज की वक्रदृष्टि के शिकार रहे हैं। अंग्रेजी शासन के दो सौ वर्षों मे तो जनजातीय समाज पर जैसे अंग्रेजों की गिद्धदृष्टि ही रहती थी। ब्रिटेन से जितनी भी राजनैतिक, आर्थिक, समाजसेवी संस्थाएं आती थीं, वे सबसे पहले जनजातीय समाज को ही कन्वर्जन के षड्यंत्र का शिकार बनाती थीं। अंग्रेजों को देश मे शासन करने के लिए यहां के वनों, खनिज-खदानों व अन्य प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करना था और ये सभी जनजातीय क्षेत्रों में स्थित थे। अंग्रेजों को यहां इस काम में बाधा बहुधा जनजातीय समाज से आती थी। अंग्रेजों के विरुद्ध जनजातियों के आक्रमण नगरीय समाज के संघर्षों से कहीं ज्यादा पैने, मारक सिद्ध होते थे। इन संघर्षों से घबराए अंग्रेजों ने जनजातीय समाज को अपनी नीतियों का केंद्र बना लिया था। वे दबाव, दमन से, बहला—फुसलाकर, लालच आदि देकर अंग्रेज जनजातीय समाज को नियंत्रण में रखना चाहते थे। लेकिन स्वाभिमानी जनजातीय समाज किसी भी प्रकार से अंग्रेजों के वश में नहीं आया था। यहां यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर क्या कारण था कि निर्धन व कम साधनों में जीवन जीने वाला जनजातीय समाज अंग्रेजों से न तो कभी दबा, न ही उनके बहकावे में आया?
वनवासी सतत दो सौ वर्ष तक अंग्रेजों के साथ संघर्ष करते रहे किंतु कभी उनसे दबे नहीं। उस कालखंड में संवाद—संचार के माध्यम नहीं थे। देश में सैकड़ों किलोमीटर दूर बसे वनवासी समाज में केवल एक ही समानता थी कि सभी अपनी भूमि, संस्कृति, परम्पराओं हेतु कड़ा संघर्ष करते रहे। उनके कन्वर्जन हेतु जिस प्रकार का अत्याचारपूर्ण दबाव अंग्रेजों ने बनाया था, उन्होंने जिस प्रकार के करोड़ों रुपयों के स्वास्थ्य, शिक्षा प्रकल्प जनजातीय क्षेत्रों में प्रारम्भ किए, उस हिसाब से स्वतंत्रता तक भारत मे जनजातीय समाज समाप्तप्राय हो जाना चाहिए था। लेकिन तमाम दबावों के बाद भी वे अपनी संस्कृति को सुदृढ़ता से थामे रहे। यह अध्ययन का विषय है कि जनजातीय समाज की इस जिजीविषा का स्रोत क्या था?
जनजातीय समाज की जिजीविषा का अशेष स्रोत था उनके बड़ादेव, देव परंपरा, पूजा पद्धति, प्रकृति को देव मानने की उनकी आस्था व सबसे बड़ी बात, उनके भगत, भूमका, बड़वे, भोपे आदि। जनजातीय बंधुओं की समाज व्यवस्था भी उनकी इस सुदृढ़ता का बड़ा कारण थी। जनजातीय समाज अपने-अपने स्थानीय टोले के भगत, भूमका, बड़वे, भोपे के प्रत्यक्ष नियंत्रण में एकजुट रहने को ही अपना धर्म समझता रहा। जनजातीय समाज के ये भगत, भूमका भी अपने बजरे, टोले, ढाने के लिए वैचारिक ढाल की भूमिका में अटल रहते थे। यह भी सत्य है कि यदि ये जनजातीय समाज अंग्रेजों के अधीन चले जाते तो संभवत: अंग्रेज भारत से आज भी न गए होते। और, यह भी सत्य है कि जनजातीय और वनवासी समाज अंग्रेजों से केवल और केवल अपनी समाज व्यवस्था व देव प्रेम के कारण ही लोहा ले पाया था। इसीलिए जनजातीय समाज भारत की सामरिक रीढ़ माना जाता रहा है।
आज भी देश का कथित सभ्य समाज जनजातीय समाज की देव परंपरा के मर्म को नहीं समझ पाया है। आज जनजातीय समाज की देव परंपरा शनै: शनै: हमारे ग्रामीण परिवेश में तो भली भांति प्रवेश कर गई है और कई स्थानों पर नगरीय क्षेत्र भी इन जनजातीय देवी-देवताओं को पूजते हैं। आज हमारे लगभग सभी कस्बों, ग्रामों, नगरों के प्रारम्भ में मिलने वाले खेड़ापति मंदिर जनजातीय देव परंपरा का ही एक अंग हैं। जनजातीय देव जैसे बड़ादेव, बुढ़ादेव, फड़ापेन, घुटालदेव, भैरमदेव, डोकरादेव, चिकटदेव, लोधादेव, पाटदेव, सियानदेव, ठाकुरदेव आदि देवता आज वनवासी समाज के अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्रों में भी पूजनीय देव माने जाते हैं। यह देव परंपरा ही गहन अरण्य में रहने वाले आरण्यक समाज, ग्रामों के ग्रामीण समाज व नगरों के नागर समाज की जिजीविषा का मर्म है। इस परंपरा को हम जितना थामे रखेंगे उतना ही स्वदेश जीवित रह पायेगा।
गांधी जी ने यंग इंडिया के 23 अप्रैल 1931 के अंक में लिखा था- ‘‘मुझे स्वीकार्य नहीं है कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का कन्वर्जन करे। दूसरे के धर्म को कम आंकना मेरा प्रयास कभी नहीं होना चाहिए। इसका अर्थ है सभी पंथों के सच में विश्वास करना और उनका सम्मान करना। इसका अर्थ है, सच्ची विनयशीलता। मेरा मानना है कि मानवतावादी कार्य की आड़ में कन्वर्जन रुग्ण मानसिकता का परिचायक है। यहीं लोगों द्वारा इसका सबसे अधिक विरोध होता है। आखिर धर्म नितांत व्यक्तिगत मामला है। यह हृदय को छूता है। मैं अपना धर्म इस वजह से क्यों बदलूं कि ईसाई मत का प्रचार करने वाले डॉक्टर का पंथ ईसाई है, जिसने मेरा इलाज किया है? या डॉक्टर मुझसे यह उम्मीद क्यों रखे कि मैं उससे प्रभावित होकर अपना धर्म बदल लूंगा?’’
गांधीजी के इन विचारों को कांग्रेस अपने आचरण, व्यवहार में कभी नहीं ला पाई। कांग्रेस सदैव गांधीजी के इन विचारों के प्रतिकूल रही, यह उसके लिए घातक हो गया। यही कारण रहा कि भारत में सर्वाधिक कन्वर्जन अशिक्षित, निर्धन व पिछड़े वर्ग का हुआ। यह दुष्कृत्य बाद में समाजतोड़क के रूप में सामने आया। कई जनजातीय समुदायों द्वारा शासकीय रिकार्ड में स्वयं को हिंदू न लिखाने की सोच इसी का परिणाम है। झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और पूर्वोत्तर के राज्यों में जनजातीय समाज का तेजी से षड्यंत्रपूर्वक कन्वर्जन कराया जा रहा है, यह चिंताजनक बात है।
प्यू रिसर्च ने अपने 2021 के सर्वे में लिखा है कि इन राज्यों में ईसाई पंथ को मानने वालों में से 64 प्रतिशत लोग अनुसूचित जनजाति से कन्वर्टिड हैं। मिशनरियां कन्वर्जन के कुत्सित अभियान में हिंसक हो रही हैं। 2008 में ओडिशा के कंधमाल में हुई स्वामी लक्ष्मणानन्द जी की हत्या को भला कौन भूल सकता है! पूर्वोत्तर राज्यों में भोले-भाले जनजातीय बंधुओं को रक्तरंजित संघर्षों का सामना करना पड़ा है। ओडिशा के सुन्दरगढ़, क्योंझर व मयूरभंज जिलों की ईसाई जनसंख्या चौंकाने वाली है।
झारखंड में जनजातीय समाज 9.7 प्रतिशत कम हो गया है। इसी प्रदेश में रांची, खूंटी, सिमडेगा, लोहरदगा, गुमला, पलामू, लातेहार, कोल्हान और संथाल परगना जिलों में बड़ी संख्या में वनवासियों का कन्वर्जन हुआ है। मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा, बैतूल, झाबुआ, खंडवा, खरगोन, बड़वानी आदि जिलों में जनजातीय समाज को बड़ी संख्या में शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार के नाम पर बहला-फुसलाकर कन्वर्ट किया गया है। ईसाई मिशनरियों के अतिरिक्त कट्टर मुस्लिम तत्व जनजातीय समाज की लड़कियों की तस्करी, लव जिहाद, लैंड जिहाद, इंटरनेट कैफे आदि गतिविधियों के माध्यम से भी बड़ी संख्या में कन्वर्जन कर रहे हैं।
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