प्रकृति का संरक्षण हमारे सनातन हिन्दू धर्म के मूल में है। कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को मनाया जाने वाला आंवला नवमी का पुरातन पर्व हमारी इसी मान्यता को पुष्ट करता है। सनातनधर्मी हिन्दू धर्मावलम्बी इस दिन श्रद्धा भाव से आंवला वृक्ष का पूजन करते हैं। शास्त्र कहते हैं कि इस दिन जो व्यक्ति आंवले के पेड़ का पूजन व प्रदक्षिणा करके पेड़ के नीचे बैठकर भोजन करता व कराता है, उसे स्वास्थ्य लाभ के साथ अनंत पुण्य फल प्राप्त होता है। बताते चलें कि आंवला वृक्ष की उत्पत्ति तथा पूजन परंपरा से जुड़े रोचक कथानक हमारे धर्मशास्त्रों में वर्णित हैं।
ब्रह्मा जी के अश्रु बिंदुओं से हुई आंवला की उत्त्पति
पौराणिक मान्यता के अनुसार आदिकाल में जल प्रलय के उपरांत जब पूरी पृथ्वी जल में डूबी हुई थी और दूर-दूर तक जीवन का कोई नामो निशान नहीं था। तब पूरी पृथ्वी को जलमग्न होता देख सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी के नेत्रों से अनायास ही आंसू टपकने लगे। ब्रह्मा जी के नेत्रों से छलके उन अश्रु बिंदुओं से एक वृक्ष उत्पन्न हुआ, जिससे अमृत फल आंवला की उत्त्पति हुई। चूंकि सब वृक्ष-वनस्पतियों में आंवला ही सबसे पहले प्रकट हुआ था, इसलिए उसे ‘आदिरोह’ कहा गया। ब्रह्मा जी ने पहले आंवले को उत्पन्न करने के बाद शेष समस्त सृष्टि की। जब सृष्टि कर्म पूरा हो गया तो वे उस स्थान पर आये जहां भगवान विष्णु को प्रिय लगने वाला आंवले का वृक्ष था। उसी समय आकाशवाणी हुई – “यह आंवले का वृक्ष सब वृक्षों से श्रेष्ठ है; क्योंकि यह भगवान विष्णु और देवाधिदेव महादेव दोनों को ही अत्यंत प्रिय है।”
विष्णु व शिव का दोनों का समन्वित प्रतीक है आंवला वृक्ष
शास्त्रीय मान्यता के अनुसार अक्षय नवमी को आंवला वृक्ष के पूजन और इस वृक्ष के नीचे भोजन करने की प्रथा माता लक्ष्मी ने डाली थी। एक बार माता लक्ष्मी पृथ्वी भ्रमण पर निकलीं। तभी उनके मन में विचार आया कि भगवान विष्णु एवं शिव की एक साथ पूजा करने का विचार आया। उन्होंने पाया कि तुलसी भगवान विष्णु को प्रिय है और बेल शिव को मगर आंवला ऐसी वनस्पति है जिसमें दोनों के गुण एक साथ पाये जाते हैं। तब उन्होंने आंवले के वृक्ष को विष्णु और शिव का दोनों का प्रतीक मानकर पूजन किया और उनकी पूजा से प्रसन्न हो महादेव व श्रीहरि एक साथ प्रकट हुए। लक्ष्मी माता ने आंवले के वृक्ष के नीचे भोजन बनाकर दोनों को करवाया। इसके बाद स्वयं भोजन किया। वह कार्तिक शुक्ल नवमी की तिथि थी। तभी से सनातनधर्मी हिन्दू धर्मावलम्बी इस परंपरा का निर्वहन करते आ रहे हैं।
आज भी अक्षय नवमी (आंवला नवमी) के दिन सनातनधर्मी महिलाएं इस वृक्ष का विधि विधान से पूजन करती हैं। वे प्रात: स्नान कर आंवला वृक्ष की जड़ों को कच्चे दूध से सींच कर उसके तने पर कच्चे सूत का धागा लपेट कर पूर्व दिशा में मुंह करके रोली, चावल, धूप-दीप से वृक्ष की पूजा करती हैं। तत्पश्चात वृक्ष की सात परिक्रमाएं करके दान पुण्य के साथ परिवारीजनों व इष्ट-मित्र, परिजनों को प्रसाद वितरित कर भोजन ग्रहण करती हैं। मान्यता है कि आंवला नवमी को इस वृक्ष के पूजन से श्री सौभाग्य की प्राप्ति होती है। मान्यता है कि आंवला नवमी पर आंवले के पेड़ से अमृत की बूंदें बरसती हैं। इसलिए इस दिन इस वृक्ष के नीचे बैठने और भोजन करने से तमाम रोगों का नाश होता है, प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है व आयु लंबी होती है। इस दिन जो व्यक्ति आंवले का पेड़ लगाता है उसको अक्षय पुण्य का फल मिलता है।
अक्षय नवमी से प्रारंभ हुआ था सतयुग
पौराणिक आख्यानों के अनुसार कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को किए गए व्रत, पूजन और दान का फल अक्षय होता है। मान्यता है कि इसी तिथि से सतयुग प्रारंभ हुआ था। इसलिए इसे अक्षय नवमी या युग तिथि भी कहते हैं। धार्मिक मान्यता के अनुसार आंवला नवमी के दिन ही भगवान विष्णु ने कुष्माण्डक नामक दैत्य को मारा था इसलिए इस तिथि को कूष्माण्ड नवमी के नाम से भी जाना जाता है।
हर मर्ज की दवा है आंवला
महान आयुर्वेदाचार्य चरक द्वारा लिखी चरक संहिता में जिस जड़ी बूटी का बार बार उल्लेख मिलता है, वह अमृत फल आंवला ही है। आयुर्वेद में आंवला को प्रमुख स्थान दिया है। आयुर्वेदाचार्यों ने इसे हर मर्ज की दवा कहा है। आंवला पाचन तंत्र से लेकर स्मरण शक्ति को दुरुस्त करता है। नियमित रूप से आंवले का सेवन करने से बुढ़ापा भी दूर रहता है।
मधुमेह, बवासीर, नकसीर, दिल की बीमारी जैसी समस्याओं का इलाज आंवले में छिपा है। इसीलिए प्राचीन काल से आज तक आयुर्वेद की प्रसिद्ध दवाइयों, च्यवनप्राश, ब्रह्म रसायन, धात्री रसायन, अनोशदारू, त्रिफला रसायन, आमलकी रसायन, त्रिफला चूर्ण, धात्ररिष्ट, त्रिफलारिष्ट, रक्तवर्धक नवायस लौह, धात्री लौह, योगराज रसायन, त्रिफला मंडूर, त्रिफला घृत आदि के साथ मुरब्बे, शर्बत, केश तेल आदि निर्माण में आंवला का प्रयोग आधार घटक के रूप में किया जाता है।
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