दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की पुस्तकों में बाबा साहेब अम्बेडकर जी के व्यक्तित्व और विचारों पर भी गहनता से अध्ययन मिलता है। उनका मानना है कि विदेशी शासकों ने भारत में अपने शासन का औचित्य सिद्ध करने के लिए अनेक भ्रान्तियां निर्माण की थी। बाबा साहेब ने उनका अत्यन्त कठोरता पूर्वक खंडन किया। उन्होंने अपने सामने आने वाले प्रश्नों को कभी भावावेश में नहीं देखा। उन्होंने उनका गहराई से अध्ययन किया तथा उनका अत्यंत तर्कयुक्त निराकरण प्रस्तुत किया।
दत्तोपंत ठेंगड़ी जी अम्बेडकर जी के बारे में बताते हुए कहते हैं कि मुसलमान या ईसाई बनने में उन्हें क्या आपत्ति थी यह उनसे पूछा भी गया। इस प्रश्न के उत्तर में जो कुछ उन्होंने कहा वह जहाँ उनकी प्रखर राष्ट्रवादी दूरदर्शिता का परिचायक है वहीं वह तथाकथित असांप्रदायिकता का देश भर में ढोल पीटने वाले नेताओं की कान खिंचाई भी है। उन्होंने साहस के साथ कहा कि ऐतिहासिक तथा वैश्विक कारणों से मुसलमान या ईसाई बनने वाले भारतीय के मन मस्तिष्क की दिशा बदल सकती है। वह भारत, भारतीयता, यहां का इतिहास, यहां की परम्परा आदि से विमुख हो जाते हैं, यहां तक कि वे अपने भारतीय होने के बारे में कठिनाई से ही अनुभव कर पाते हैं।
बौद्ध बनने से केवल उपासना की प्रक्रिया ही बदलती है। सामाजिक अथवा धार्मिक दृष्टि से कुछ मान्यतायें ही बदलती हैं परन्तु राष्ट्रीयता, राष्ट्रभिमान आदि में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। जबकि इस्लाम या ईसाई मत ग्रहण करने में एक प्रकार से व्यक्ति राष्ट्रत्व से ही असंबद्ध (Denationalized) हो जाता है। उसका अराष्ट्रीयकरण हो जाता है। अपने पीड़ित बन्धुओं के उत्थान में भी उन्होंने इस बात को ध्यान में रखा कि कहीं इस परिवर्तन के परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता अथवा राष्ट्रीय एकात्मकता पर कोई आँच न आवे। उनके इस निर्णय लेने में स्वभावत: उनकी महानता ही प्रकट होती हैं। उनके तनिक भी दांभिकता या अपने को बड़ा बताने की भावना नहीं थी। यदि उनमें तनिक भी इस प्रकार की बात होती तो निश्चय ही मुसलमान या ईसाई उन्हें अपने कंधों पर उछालते तथा दुनियां में अपने भारत विजय का ढिंढोरा पीटते। राष्ट्रीय एकात्मता की रक्षा के लिये उन्होंने इस अनायास प्राप्त होने वाली ख्याति का तिरस्कार किया। उन्होंने हर स्थिति में भारतीय ही बने रहना पसंद किया।
दत्तोपंत ठेंगड़ी जी अपनी और अम्बेडकर जी की भेंट के बारे में भी बताते हैं कि – मेरा सौभाग्य है कि मुझे उन्हें केवल निकट से ही देखने का नहीं अपितु प्रत्यक्ष वार्तालाप एवं विचार विनिमय का भी अवसर मिला। एक बार बातचीत में कश्मीर संबंधी उनके विशेष दृष्टिकोण का पता चला। वे कश्मीर को पाकिस्तान को दे देना चाहिए इस मत के थे। उनका यह भाव हिन्दू और मुसलमान की सामाजिक मनोभूमिका से संबद्ध था। उनका मत था कि कट्टर मुसलमान कभी किसी उस राष्ट्र का राष्ट्रीय नहीं बन सकता जहां शरीयत का कानून न चलता हो।
एक समय की घटना है वे तब संविधान सभा (Constituent Assembly) की ध्वज समिति (Flag Committee) के सदस्य थे। एक बार बम्बई के हवाई अड्डे पर उनसे एक प्रतिनिधि मण्डल मिलने गया। प्रतिनिधि मण्डल ने उनसे प्रार्थना की कि वे ध्वज समिति में अपने परम्परागत गेरुवे ध्वज को भारत का राष्ट्रध्वज बनाने के लिये आग्रहपूर्वक प्रतिपादन करें। प्रतिनिधि मण्डल ने इसके लिये एक गेरुवे रंग के झंडे का नमूना उन्हें भेंट किया। श्रद्धेय बाबा साहेब ने ध्वज स्वीकार करते हुए उन्हें यह सलाह दी कि मैं तो यह प्रस्तावित कर दूंगा, परन्तु इतने से काम नहीं बनेगा। इसके साथ-साथ इस निमित्त बाहर बड़ा जन-आन्दोलन भी खड़ा करना होगा तभी मेरे प्रस्ताव को बल मिलेगा। उन्होंने अपना वचन निश्चित ही पूरा किया परन्तु विशिष्ट परिस्थितिवश बाहर आवश्यक जन-आन्दोलन खड़ा न किया जा सका और परिणामस्वरूप यह योजना सफल न हो सकी।
दत्तोपंत जी बताते हैं कि एक बार उनसे वार्तालाप में उनके बौद्ध मत में दीक्षित होने की बात आई। उन्होंने बात ध्यानपूर्वक सुनी और तब वे थोड़ा अधिक गम्भीर होकर शांत भाव से बोले, “तुम्हारे संस्कारों के कारण मैं तुम्हारी भावनाओं की व्याकुलता को भलीभांति समझता हूं। तुम्हारे हिन्दू संगठन के कार्य से मैं भली भांति परिचित एवं प्रभावित भी हूं। परन्तु हमें काल की गति को पहचानना होगा। मेरे जीवन का अब यह संध्याकाल आ गया है। अपने जनमानस पर चारों ओर विदेशी विचार धाराओं का आक्रमण चल रहा है। इससे स्वदेशी जनमानस दिग्भ्रमित होने की पूरी संभावना है। राष्ट्र की मूल जीवन-धारा से यहां के दलित समाज को, अलग विधर्मी एवं विदेशाभिमुख बनाने का प्रयास जोरों से चल रहा है। यह गति प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।
यहां तक कि यहां का मान्यता प्राप्त नेतृत्व भी इस प्रवाह में बहने लगा है और अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए धर्म निरपेक्षता, प्रगतिशीलता, उन्नति आदि नामों पर इसे बढ़ावा देने लगा है। इस सब परिस्थिति का लाभ साम्यवादी बड़े मजे से उठा रहे हैं। दूसरी और विरोध की बात तो अलग है मेरे अनेक साथी कार्यकर्त्ता भी दरिद्रता, दीनता, असमानता, अस्पृश्यता आदि से चिढ़कर इसी प्रवाह में बहने को आतुर हैं। फिर सर्वसाधारण की बात क्या कहें? अत: इन्हें कोई न कोई नई दिशा मिलना आवश्यक है जिससे वे राष्ट्र जीवन की मूलधारा से अलग न हो जावें। साथ ही अपने सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक जीवन में कुछ परिवर्तन लाने में भी समर्थ हो सकें। इसी विचार से मैंने यह मार्ग चुना है।“ इस दृष्टि से श्रद्धेय बाबासाहब ने आवश्यक सतर्कता भी बरती थी। उनका प्रयास था कि कोई भी स्वबांधव चाहे उसे उसके राजनीतिक या धार्मिक-सामाजिक विचार मान्य न हों अपनी मूल जीवन धारा से बाहर न जाने पावे।
श्रद्धेय बाबासाहेब दलित स्वबांधवों के आगामी नेतृत्व के बारे में भी सदैव चिन्तित रहते थे। उनका विचार था कि इस युवा वर्ग को भविष्य में कोई योग्य कर्णधार न मिला तो इन्हें साम्यवाद के प्रभाव या नये भीषण दास्य से बचाना असम्भव हो जावेगा। विदेशी वादों के प्रभाव से अपने युवकों को बचाने का उन्होंने भरसक प्रयास किया।
दत्तोपंत जी के अनुसार बौद्ध मत में दीक्षित होने में उनका एक और विचार था विश्व के मानचित्र पर यदि हम दृष्टि डालें तो एक बात ध्यान में आवेगी कि दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों में बहुत बड़ी संख्या में बौद्ध रहते हैं। बौद्ध मतावलम्बी होने के कारण ये देश स्वभावत: भारत की और नेतृत्व के लिये देखते हैं। अत: नवजागृति के कारण इन देशों के भारत के साथ प्रगाढ़ धार्मिक सांस्कृतिक सम्बन्ध स्थापित होकर उसके नेतृत्व मे विश्व में एक नयी शक्ति का उदय होगा। यह था उनका स्वप्न। इसीलिये चीन के तिब्बत संबंधी मंसूबों का उन्होंने डटकर विरोध किया तथा भारत सरकार की इस संबंध में अदूरदर्शितापूर्ण एवं दब्बूनीति की निंदा की। उन्होंने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को इस बारे में बार-बार चेतावनी दी परन्तु दुर्भाग्य से प्रधानमंत्री नेहरू ने उनकी उपेक्षा ही की।
भारत की सुरक्षा की दृष्टि से तो आवश्यक था ही, बौद्ध जगत का श्रद्धा केन्द्र होने के कारण भी तिब्बत का स्वतंत्र रहना आवश्यक था। यद्धपि चीन भी बौद्ध बहुल देश था परन्तु साम्यवादी हो जाने में उसका अपने प्राचीन सांस्कृतिक विरासत से सम्बन्ध विच्छेद हो चुका था। श्रद्धेय बाबासाहब की यह अपेक्षा थी कि भारत दक्षिण पूर्वी देशों के शक्ति समूह का नेतृत्व करता हुआ साम्यवाद का मुकाबला करता। इस प्रकार समूचे बौद्ध जगत की श्रद्धा पुन: भारत के प्रति प्रस्थापित होती। परन्तु हमारे यहां के भीरु नेतृत्व ने विश्व में अपनी अदूरदर्शिता एव अक्षमता तो प्रकट की ही परन्तु साथ ही विश्व नेतृत्व का अत्यन्त उपयुक्त अवसर खो दिया।
तीसरा रास्ता
ठेंगड़ी जी ने साम्यवाद के समाप्त होने और पूंजीवाद के संभावित पतन की भविष्यवाणी पीटर ड्रकर और पॉल सैमुअलसन और अन्य विचारकों से बहुत पहले ही कर दी थी।
ठेंगड़ी जी कहते हैं, हमें अपनी संस्कृति, अपनी पिछली परंपराओं, वर्तमान आवश्यकताओं और भविष्य के लिए आकांक्षाओं के आलोक में प्रगति और विकास के अपने मॉडल की कल्पना करनी चाहिए। विकास का कोई भी विकल्प जो समाज के सांस्कृतिक मूल को ध्यान में रखते हुए नहीं बनाया गया हो, वह समाज के लिए लाभप्रद नहीं होगा।
तृतीय मार्ग के लिए मानव जाति की सुगबुगाहट-पश्चिमी विचारधाराओं की दयनीय विफलता के बाद, नियति अंधेरे में डूबी दुनिया को भारत द्वारा नया नेतृत्व प्रदान करने का संकेत दे रही है। मानव जाति एक नई व्यवस्था के लिए उत्सुक है जिसे ‘तृतीय मार्ग’ कहा जाता है।
वैश्वीकरण
दत्तोपंत जी ने लिखा है कि वास्तविक वैश्वीकरण हिंदू विरासत का एक अभिन्न अंग है। प्राचीन काल से ही हम सदैव अपने आप को पूरी मानवता का अभिन्न अंग मानते रहे हैं। हमने कभी भी अपने लिए एक अलग पहचान बनाने की चिंता नहीं की। हमने सम्पूर्ण मनुष्य जाति से अपनी पहचान जोड़ी है। ‘पूरी पृथ्वी हमारा परिवार है’ अर्थात ‘वसुधैव कुटुंबकम’ हमारा आदर्श वाक्य रहा है।… लेकिन अब भूमिकाएं उलट गई हैं। वैश्वीकरण का ज्ञान हमें उन लोगों द्वारा दिया जा रहा है जो अपने साम्राज्यवादी शोषण और यहां तक कि नरसंहार के इतिहास के लिए जाने जाते हैं। शैतान बाइबल का संदर्भ दे रहे हैं। आधिपत्य वैश्वीकरण के रूप में अपनी शोभा यात्रा निकाल रहा है! ठेंगड़ी जी ने कहा कि दक्षिणी गोलार्ध के देशों के बीच स्वदेशी और आपसी सहयोग के बारे में सोच हमें आगे बढ़ने के लिए रास्ता दिखाएगा।
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