दत्तोपंत ठेंगड़ी ने ‘स्वदेशी’ को देशभक्ति की व्यावहारिक अभिव्यक्ति के रूप में परिभाषित किया। यह ‘स्वदेशी’ की एक बहुत ही आकर्षक और सभी के लिए स्वीकार्य परिभाषा है जो राष्ट्रीयता की भावना और कार्य की इच्छा को सामने लाती है। हालांकि, उन्होंने बताया कि देशभक्ति का अर्थ दूसरे देशों की ओर से मुंह मोड़ना नहीं है बल्कि एकात्म मानव दर्शन के सिद्धांत का पालन करना है। हम समानता और आपसी सम्मान के आधार पर अंतरराष्ट्रीय सहयोग के लिए हमेशा तैयार हैं।
उन्होंने लिखा “यह पूर्वाग्रह रखना गलत है कि ‘स्वदेशी’ केवल वस्तुओं या सेवाओं से संबंधित है बल्कि इसके उससे भी अधिक प्रासंगिक पहलू है। मूलतः यह राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता, राष्ट्रीय संप्रभुता और स्वतंत्रता के संरक्षण, और समान स्तर पर अंतरराष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करने के लिए निर्धारित भावना से संबंधित है…। ‘स्वदेशी’ केवल भौतिक वस्तुओं तक ही सीमित आर्थिक मामला नहीं था बल्कि राष्ट्रीय जीवन के सभी आयामों को अंगीकृत करने वाली व्यापक विचारधारा है।
हर समाज की अपनी संस्कृति होती है और हर देश की प्रगति और विकास के माँडल का उस देश के सांस्कृतिक मूल्यों के साथ तारतम्य होना चाहिए। आधुनिक बनने का मतलब पश्चिमीकरण नहीं है। आधुनिकीकरण के क्रम में राष्ट्रीय पहचानों को गड्ड-मड्ड कर देने की कोशिशों का विरोध करते हैं।
युगदृष्टा – दीनदयाल उपाध्याय
दतोपंत ठेंगड़ी जी ने दीनदयाल जी के तत्व चिंतन, व्यक्तित्व और विचार पर बहुत ही गहनता से अध्ययन किया है इसी कारण उनकी कई पुस्तकें दीनदयाल जी के कार्यों को समर्पित हैं। दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के अनुसार दीनदयाल उपाध्याय सच्चे राष्ट्रभक्त थे। उनकी राष्ट्रीयता की धारणा मात्र काल्पनिक न थी, अपितु वह बड़ी व्यवहारिक थी। इसके साथ उनकी राष्ट्रभक्ति उनके अंतर राष्ट्रीयवादी होने में बाधक नहीं थी। उल्टे, अन्तर्राष्ट्रीयता उनके प्रगतिशील राष्ट्रवाद का स्वाभाविक परिणाम थी। उन्होंने यह अनुभव किया था कि किसी व्यक्ति का परिवार से लेकर ब्रह्राण्ड तक सभी से लगाव उसकी चेतना के विकास की बाह्रा अभिव्यक्ति मात्र है। इस प्रकार, समाज के सभी अंगों के साथ समान रूप से तथा एक साथ ही, उसमें से किसी एक के साथ भी बिना कोई अन्याय किये, लगाव बनाया रखा जा सकता है। आवश्यकता होती है एक यथार्थवादी तथा भेद-विहीन दृष्टिकोण की। मानव की भी कल्पना भेद विहीन रूप में की जानी चाहिए। किसी व्यक्ति के शरीर, मस्तिष्क, दृष्टि एवं आत्मा की कल्पना सम्यक् रूप से ही, न की अलग-अलग करनी चाहिए।
इसी के आधार पर दीनदयाल जी ने अपने ‘एकात्म मानवदर्शन’ के सिद्धांत का प्रतिपादन किया, जो पाश्चात्य देशों की संकुचित एवं सीमाबद्ध विचारधाराओं के ठीक विपरित है। इन विदेशी विचारधाराओं के ही कारण जीवन के सभी स्तरों तथा क्षेत्रों में पारस्परिक झगड़े तथा संघर्ष उत्पन्न हो गये है। बीज, अंकुर, तना, शाखा, तथा फल एक ही अबाधित विकास प्रक्रिया के अंग है। उनमें आपस में कोई विपरितता या अनन्यता नहीं है।
दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का मानना है कि धर्म के अग्रदूत होने के नाते दीनदयाल जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक बन गये। वह जानते थे कि जब तक राष्ट्र एक दृढ आधार पर संगठित नहीं हो जाता, सिद्धान्तों के प्रतिपादन से कोई लाभ नहीं। उन्होंने अनुभव किया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सारे राष्ट्र के मनोवैज्ञानिक एवं धारणा के अनुकूल है। उन्होंने संघ की वर्तमान शाखाओं को आदर्श राष्ट्र के आधारभूत ढांचे के रूप में देखा और उसे दृढ बनाने के लिए कठिन परिश्रम किया।
वह देश के पहले राजनीतिक नेता थे, जिन्होंने राष्ट्र की पारम्परिक परिभाषा एवं तत्संबंधी धारणा को एक नया रूप दिया। उन्होंने कहा कि प्रत्येक राष्ट्र का अपना अन्त:करण अपना चित् होता है। राष्ट्र को जागरूकता एवं चेतना प्रदान करने वाली शक्ति एवं उर्जा उसका ‘विराट’ है। वह चित् द्वारा उपयुक्त दिशा में प्रेरित होता है। किसी राष्ट्र के जीवन में ‘विराट’ का वही स्थान है, जो शरीर में प्राण का। जिस प्रकार प्राण शरीर के विभिन्न अंगों को शक्ति प्रदान करता है, बुद्धि को ताजा करता है और मानसिक एवं शारीरिक संतुलन ठीक रखता है, उसी प्रकार किसी राष्ट्र में शक्तिशाली ‘विराट’ के रहने से ही लोकतंत्र सफल हो सकता है तथा सरकार कारगार हो सकती है। जब ‘विराट’ जागा हुआ रहता है तो विभिन्नता पारस्परिक संघर्ष उत्पन्न नहीं करती, तथा राष्ट्र के लोग एक दूसरे के साथ सहयोग करते है, जैसे मानव शरीर के विभिन्न अंग या किसी परिवार के विभिन्न सदस्य एक दूसरे के साथ सहयोग करते है।
संविधान के अनुच्छेद 370, सीमावर्ती राज्यों, भाषावार राज्यों, एकात्म प्रकार की सरकार, गोवा, कच्छ, चीनी, तथा पाकिस्तानी आक्रमणों जैसे विभिन्न प्रश्नों के संबंध में जो दृष्टिकोण अपनाया था, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि दीनदयाल जी को मुख्य पथ प्रदर्शक के रूप में पाकर इस राजनीतिक दल ने किस प्रकार राष्ट्र के ‘विराट’ को फिर से जगाने का श्रेष्ठ कार्य पहले से ही अपना लिया था।
दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के अनुसार दीनदयाल जी एक युगदृष्टा थे। किसी काल चक्र की भांति स्वंय को शताब्दियों के आरपार ले जा सकते थे। वह प्राचीन दृष्टाओं तथा आने वाली पीढ़ियों, दोनों का ही सामना कर सकते थे। वह प्राचीन ऋषियों की बुद्धिमत्ता के सहारे आधुनिक समस्याओं का हल हमारे लिए निकाल देते थे। वह पहले से ही जान गये थे और पहचान गये थे कि सुदूर भविष्य में मानव के समक्ष कौन सी समस्याएं आएगी और उनके लिए उन्होंने सनातन धर्म के आधार पर अचूक उपचार बतलाये।
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