1996 में एक फिल्म आई थी मासूम। उसमें एक गाना था, हमारी-आपकी पीढ़ी उस गाने से परिचित होगी। बड़ा पॉपुलर हुआ था। इस गाने के बोल थे –
छोटा बच्चा जान के
न कोई आंख दिखाना रे
अकल का कच्चा समझ के
हमको न समझाना रे
यह थी रील लाइफ यानी फिल्म की बात। आज के समय में बच्चों को आंख न दिखाएं, लेकिन उन्हें समझाना बड़ा जरूरी हो गया है। बात आगे कहने से पहले आपको एक खबर बताते हैं। यह घटना उत्तर प्रदेश के आगरा की है। दयालबाग के राम मोहन विहार क्षेत्र से पुलिस कंट्रोल रूम में इमरजेंसी कॉल गई। बच्चे की आवाज आने पर पुलिस ने सवाल किया तो सात साल के बच्चे ने कहा कि मम्मी-पापा ने मारा है। इस पर पुलिस तत्काल मौके पर पहुंची। वहां पता चला कि बच्चे को किसी ने भी नहीं मारा। बच्चे ने गुस्से में यह बात कही थी। गुस्सा इस बात से कि वह फोन देखना चाह रहा था, लेकिन फोन लॉक था। गलती से इमरजेंसी कॉल लग गई।
कहने को बात आई और गई, लेकिन बच्चों के हाथ में फोन न केवल उनका बचपन छीन रहा है बल्कि उनके व्यवहार पर भी असर डाल रहा है। मीडिया में ऐसी कई रिपोर्ट आई हैं जिनमें विशेषज्ञों ने कहा है कि मोबाइल बच्चों पर शारीरिक और मानसिक रूप से असर डाल रहा है। बच्चों में चिड़चिड़ेपन की एक वजह मोबाइल फोन भी है। विशेषज्ञों का तो यहां तक कहना है कि दो साल तक के बच्चों को बिल्कुल भी स्क्रीन नहीं देखने दें।
यह दौर डिजिटल क्रांति और टेक्नोसेवी का है। बच्चों को मोबाइल फोन से एकदम दूर तो नहीं कर सकते लेकिन उनके लिए समय जरूर निर्धारित कर सकते हैं। यह अभिभावकों की जिम्मेदारी है कि वह बच्चों की मोबाइल एक्टिविटी पर ध्यान रखें। बच्चों को सही दिशा की जरूरत होती है। बच्चे मोबाइल की तरफ इसलिए भी जाते हैं क्योंकि अभिभावक उन्हें समय नहीं देते। यह घरों में आम बात है कि बच्चा रो रहा है तो उसे फोन पकड़ा दो। घर में चाय बनानी है और बच्चे को इंगेज करना है तो उसके हाथ में मोबाइल दे दो। जब साल भर के बच्चे के हाथ में मोबाइल होगा तो दस साल तक आते-आते वह इसका आदी हो जाएगा। तो पहली गलती अभिभावक की है कि वे बच्चों को समय नहीं देते हैं। अब तो बच्चों के लिए भी अलग से मोबाइल फोन दे दिया जाता है। इस पर नियंत्रण लगाना बहुत जरूरी है, नहीं तो हम एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर देंगे जो शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत नहीं होगी। पीढ़ी को संवारना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है। नहीं तो दस साल बाद यह सवाल पूछा जाएगा कि आपने बच्चों को मना क्यों नहीं किया ?
स्वीडन ने तय कर दी है लिमिट
स्वीडन ने तो 2 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए स्क्रीन के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया वहीं 2 से 12 वर्ष तक के बच्चों के लिए स्क्रीन देखने की सीमा भी तय कर दी है।
ब्रिटेन भी जाग गया है
ब्रिटेन के सबसे बड़े मोबाइल नेटवर्क ऑपरेटर (EE) ने अभिभावकों से अपील की है कि वे 11 साल से कम उम्र के बच्चों को स्मार्टफोन न दें। ब्रिटेन के कम्युनिकेशन रेगुलेटर ने हाल ही में एक अध्ययन किया था। इसमें यह निकलकर आया कि ब्रिटेन के एक चौथाई बच्चे जिनकी उम्र पांच से सात साल के बीच है , उनके पास स्मार्टफोन है। इसके बाद इस कंपनी (ईई) ने गाइडलाइंस जारी की कि बच्चों को केवल ऐसे डिवाइस दिए जाएं जिससे वे केवल टेक्स्ट और फोन कॉल कर सकें। सोशल मीडिया पर 13 साल तक के बच्चों पर प्रतिबंध लगाया जाए। साथ ही 16 साल तक के किशोरों के लिए पैरेंटल कंट्रोल फीचर होना चाहिए।
क्या चल रहा है ब्रिटेन में
ब्रिटेन में बच्चे जब प्राइमरी से सेकेंडरी में जाते हैं (11 वर्ष की उम्र में) तो उनके माता-पिता उनके हाथ में मोबाइल पकड़ा देते हैं। इस चलन के खिलाफ ब्रिटेन में आवाज उठने लगी है। माता-पिता को डर होने लगा है कि बच्चे साइबर क्राइम का शिकार हो सकते हैं। ईई के कारपोरेट मामलों के निदेशक मैट सियर्स का कहना है कि तकनीकी के पास जीवन के बदलने की शक्ति है, लेकिन हम मानते हैं कि स्मार्टफोन माता-पिता के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकते हैं। इसीलिए हम 11 वर्ष से कम आयु के बच्चों, 11 से 13 वर्ष के बच्चों और 13 से 16 वर्ष के बच्चों के लिए स्मार्टफ़ोन के उपयोग पर नए दिशा-निर्देश जारी कर रहे हैं। भारत में भी डिजिटल अरेस्ट के मामलों को देखते हुए बच्चों पर ध्यान देना जरूरी है।
मुश्किल है, लेकिन नामुमकिन नहीं
अमेरिकी लेखक जोनाथन हैडट 14 साल की उम्र से पहले स्मार्टफोन या फिर 16 साल की उम्र से पहले सोशल मीडिया का इस्तेमाल नहीं करने की वकालत करते हैं। उनका कहना है कि माता-पिता के तौर पर ऐसा करना थोड़ा मुश्किल है, लेकिन आधे लोग भी मिलकर ऐसा कर पाए तो चीजें बहुत आसान हो जाएंगी।
क्या कहती है रिसर्च
प्यू रिसर्च सेंटर ने एक रिपोर्ट जारी की थी। रिसर्च अमेरिका के संदर्भ में थी, लेकिन हर देश में लागू होती है। यह रिसर्च 13 से 17 वर्ष की आयु के अमेरिकी किशोरों और उनके माता-पिता के बीच की गई थी। इसमें 72 प्रतिशत किशोरों का कहना था कि जब उनके पास स्मार्टफोन नहीं होता है तो वे अक्सर या कभी-कभी शांति महसूस करते थे। 69 प्रतिशत किशोरों का मानना था कि स्मार्टफोन उनके शौक और रुचियों को पूरा करने में मदद करता है, लेकिन 30 प्रतिशत का ही कहना था कि उन्हें सामाजिक कौशल सीखने में मदद मिलती है। यानी एक बड़ा हिस्सा यह कह रहा है कि वह समाज से कम घुल-मिल पा रहे हैं।
लाडला और लाडली के लिए तय करें लिमिट
अब आप समझ गए होंगे कि बच्चों को समझाना क्यों जरूरी हो गया है। यदि हम उनकी मोबाइल और स्क्रीन देखने की लिमिट तय नहीं करेंगे तो वे अकल के कच्चे रह जाएंगे। कहीं ऐसा न हो कि आपका लाडला या लाडली स्क्रीन के चक्कर में अपना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बिगाड़ ले?
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