भारत अनादिकाल से एक अध्यात्म-प्रधान समृद्ध संस्कृति वाले सनातन राष्ट्र के रूप में विख्यात रहा है। भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है। यह सनातन संस्कृति है। ‘सनातन’ शब्द का अर्थ है जो शाश्वत है, ‘अनादि’ है, ‘अनंत’ है। अर्थात् भारतीय सनातन संस्कृति शाश्वत है, सार्वभौमिक है, अनवरत है, न कभी आरंभ और न ही कभी समाप्त होने वाली है, यह चिरस्थायी है। भारत की भौगोलिक स्थिति और यहां निवास करने वाली प्रजा के संबंध में विष्णु पुराण में वर्णित है-
उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्तति:॥
अर्थात् समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो वर्ष (क्षेत्र) है, उसका नाम भारत है तथा यहां की प्रजा भारतीय है।
भारत प्रजा का भरण-पोषण करने वाली अमृतदायिनी ‘भारताग्नि’ का क्षेत्र है (ऋग्वेद 5/11/1)। इस भारताग्नि के प्रभाव से छह विविध ऋतुओं तथा विभिन्न दिशाओं में प्रवाहित होने वाली विशाल नदियों, नद और तीन सप्तसिंधुओं के कारण इस शस्य श्यामला उर्वरा भूमि पर प्रजा का भरण-पोषण होता रहा है। अन्न-धन से संपन्न, भारताग्नि द्वारा पोषित, प्राकृतिक संपदा से भरपूर, स्वाभाविक रूप से प्रजा का भरण-पोषण करने के कारण इस भूभाग को भारताग्नि के समानार्थी शब्द ‘भारत’ के नाम से संबोधित किया जाने लगा।
ऋग्वेद में ‘भारत’ का राष्ट्र के रूप में उल्लेख मिलता है- विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्मेदं भारतं जन (3/53/12)। अर्थात् विश्वामित्र के मंत्र, उनकी प्रार्थनाएं इस भारत जन (राष्ट्र) की रक्षा करती हैं। भारत सदा से प्रचुर मात्रा में सूर्य के प्रकाश को प्राप्त करने वाला, ऊर्जा और सुख का संपूर्ण भरण करने वाले विभिन्न क्षेत्रों में अग्नि के समान तेजस्विता से परिपूर्ण विद्वानों का निवास क्षेत्र रहा है- तस्मा अग्निर्भारत: शर्म यंसज्ज्योक्पश्यात् सूर्यमुच्चरन्तम् (ऋग्वेद 4/25/4)। स्कंद पुराण के अध्याय 37 के अनुसार, भगवान ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र चक्रवर्ती सम्राट महाराज भरत थे, जिनके नाम पर इस भूभाग का नाम भारत पड़ा।
महाभारत के आदिपर्व में, शकुंतला और राजा दुष्यंत के पुत्र भरत के नाम से भी भारत नाम को बल मिलता है। भरत के जन्म के बाद ऋषि कण्व उन्हें आशीर्वाद देते हैं कि वे आगे चलकर चक्रवर्ती सम्राट बनेंगे और उनके नाम पर इस भूखंड का नाम भारत प्रसिद्ध होगा। अग्निपुराण (278/6-7) के अनुसार भी शकुंतला पुत्र भरत के नाम से इस देश का नाम भारत पड़ा-शकुन्तलायान्तु बली यस्यनाम्ना तु भारता:। मत्स्यपुराण (114/5) के अनुसार भरणात्प्रजनाच्चैष मनुर्भरत उच्यते अर्थात् अपनी प्रजा के भरण-पोषण करने के कारण इस देश के मनु (शासक) को भरत नाम से जाना जाता है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है-‘विश्व भरण-पोषण कर जोई, ताकर नाम भरत अस होई।’ अर्थात संपूर्ण विश्व का भरण-पोषण करने वाला भरत कहलाता है।
श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित है कि देवगण भी गीत गाते हैं कि भारत भूमि पर जन्म लेने वाले धन्य हैं, क्योंकि यह भूमि स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग दिखाती है और यहां मानव देवत्व प्राप्त करने के बाद भी पुन: मानव रूप में जन्म लेते हैं-
गायन्ति देवा: किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे।
स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूय: पुरुषा: सुरत्वात्।
भारत के नाम का पौराणिक महत्व हमारे भारतीय जनमानस में रचा-बसा है। भारत केवल शब्द नहीं है, बल्कि ऐसा मंत्र है जिसके उच्चारण मात्र से ‘भा+र+त’ से प्रकृति के तीनों गुणों यानी ‘भा’ से सत्व (प्रकाश, ज्ञान ), ‘र’ से रजस और ‘त’ से तमस का आह्वान हो जाता है। भारत शब्द इस देश की सांस्कृतिक विरासत है जिसके उच्चारण से हमारे मन-मस्तिष्क में वैदिक ऋषियों द्वारा प्रणीत ज्ञान-विज्ञान और संस्कारों की धारा अनायास प्रवाहित होने लगती है।
भारत की संस्कृति आदि काल से ही अपने परंपरागत अस्तित्व के साथ अजर-अमर बनी हुई है। संपूर्ण भारत में अनादि काल से राम, कृष्ण और शिव की आराधना, देवी-देवताओं की मान्यता; हवन, पूजा-पाठ की पद्धतियां; नदियों, वृक्षों, सूर्य-चंद्रमा समेत प्राकृतिक देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना होती आ रही है। वेदों और वैदिक धर्म में समस्त भारतीयों की अटूट आस्था है। वेद, गीता और उपनिषदों के संदेश भारतीय संस्कृति की निरंतरता और जीवंतता के मानक हैं। वेद आध्यात्मिक ज्ञान और भौतिक ज्ञान के मूल स्रोत हैं। भारतीय संस्कृति के मूल आधार वेद हैं। ईश्वरीय ज्ञान के कारण वैदिक ज्ञान ही मूल ज्ञान हैं। ईश्वर ने सृष्टि की रचना के साथ ही वेदों की रचना की। ईश्वर शाश्वत है; अत: वैदिक ज्ञान भी शाश्वत है।
सनातन मूल्य भारतीय संस्कृति की आत्मा हैं। ये मूल्य न केवल धार्मिक ग्रंथों में वर्णित हैं, बल्कि जन-जन के जीवन में भी गहराई से समाए हुए हैं। ये मूल्य शाश्वत और चिरस्थायी हैं, सार्वभौमिक हैं। सनातन मूल्य हमारे अपेक्षित पालनीय कर्तव्य हैं। इन मूल्यों को आत्मसात करने से सही अर्थ में धर्मपारायण, शीलवान मानव का निर्माण होता है। महर्षि कणाद वैशेषिक दर्शन के दूसरे ही सूत्र में धर्म की परिभाषा करते हुए कहते हैं-यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि:स धर्म: यानी जिससे मनुष्य की लौकिक उन्नति और पारलौकिक हित प्राप्त हो उसे धर्म कहते हैं। अर्थात् हमारे वे मूल्य या कर्तव्य जिसके पालन से हमें लौकिक और पारलौकिक जगत में सिद्धियां प्राप्त हों, वह धर्म है।
मनुस्मृति (6.92) में धर्म के ये दस लक्षण बताए गए हैं-
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥ अर्थात् धृति (धैर्य), क्षमा, दम (मन को अधर्म से हटा कर धर्म में लगाना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (सफाई), इन्द्रियनिग्रह, धी (बुद्धि), विद्या, सत्य, अक्रोध (क्रोध न करना), ये दस लक्षण हमारे सनातन मूल्यों को दर्शाते हैं, जिसका पालन कर व्यक्ति चरित्रवान बनता है। अध्यात्म प्रधान हमारी सनातन संस्कृति अद्वैत भाव से ओत-प्रोत रही है। इसी अद्वैत भाव के कारण हमें समस्त जगत के चर-अचर में परस्पर प्रेम करने का संदेश मिलता है। वेदों के महावाक्य- अहं ब्रह्मास्मि-मैं ब्रह्म हूं (बृहदारण्यक उपनिषद 1/4/10 – यजुर्वेद), तत्त्वमसि-वह ब्रह्म तू है (छान्दोग्यउपनिषद 6/8/7- सामवेद ), प्रज्ञानं ब्रह्म-वह प्रज्ञान ही ब्रह्म है (ऐतरेय उपनिषद 1/2 – ऋग्वेद), अयम् आत्मा ब्रह्म-यह आत्मा ब्रह्म है (माण्डूक्य उपनिषद 1/2 – अथर्ववेद); यह संदेश देते हैं कि आत्मा ही परब्रह्म के रूप में समस्त प्राणियों में विद्यमान है। वही स्वयं प्रकाशित आत्मतत्त्व है। ब्रह्म एक ही है जो व्यापक है, अविनाशी है, सत्य है, चेतन है, त्रिगुणातीत है, सत चित और आनंद है, सच्चिदानंद है और परमानन्द प्रदान करने वाला है। सभी चर, अचर में, जड़-चेतन में वही ब्रह्म व्याप्त है। अत: विशाल ह्रदय के साथ, परम ब्रह्म की सत्ता में गहरी आस्था रखते हुए परम ब्रह्म की कीर्ति यानी संपूर्ण जगत के प्राणियों के साथ तथा प्रकृति के सभी अवयवों के साथ परस्पर प्रेम रखना सनातन मूल्य का आधार है।
भारतीय संस्कृति दान की संस्कृति है, भोग की नहीं। प्राचीन भारत में अनेक दानवीरों का वर्णन मिलता है, जैसे – दधीचि, बलि, शिवि, कर्ण। यज्ञ, दान और तप हमारे वे मूल्य हैं जो कभी भी, किसी भी स्थिति में त्याज्य नहीं हैं, क्योंकि इन तीनों मूल्यों को अपनाने से, इन्हें जीने से हम पवित्र हो जाते हैं- यज्ञदानतप:कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्, यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।(श्रीमद्भगवद्गीता 18.5)। भारतीय संस्कृति परोपकार की संस्कृति है। दूसरे का उपकार करना सनातन मूल्य है-अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्, परोपकार: पुण्याय पापाय परपीडनम्। महर्षि वेदव्यास ने अठारह पुराणों में दो महत्वपूर्ण बातें कही हैं- परोपकार करना पुण्य है और दु:ख देना पाप।
सनातन धर्म अपौरुषेय है, यह व्यक्ति आधारित नहीं है, प्रबुद्ध ऋषियों, महर्षियों के आध्यात्मिक अनुभवों पर आधारित है। इसी भारत भूमि से शरीर एवं मन को स्वस्थ रखने के लिए यौगिक दर्शन का विकास हुआ जो षड्दर्शनों में एक है। महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में अष्टांग योग का वर्णन किया है। ये आठ अंग हैं : यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इनमें यम और नियम हमारे सनातन मूल्य हैं जो हमें नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं।
चारित्रिक उन्नति के लिए यम और नियम का पालन करना अनिवार्य माना गया है। यम के पांच भेद हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह(संग्रह का अभाव)। इन्हें महाव्रत कहा गया है। जब महर्षि परशुराम अपने गुरु भगवान शंकर के पास सर्वप्रथम ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए गए तो भगवान शंकर ने परशुराम को पहले यम का पालन करने के लिए कहा, नैतिकता का पाठ पढ़ने के लिए कहा जिससे विद्या ग्रहण करने के लिए सुपात्र और चरित्रवान बना जा सके। इसी प्रकार महर्षि पतंजलि द्वारा बताए गए पांच नियम- शौच (स्वच्छता/पवित्रता), संतोष, तप (तपस्या/अनुशासन), स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान ( ईश्वरोपासना) सनातन मूल्यों को दर्शाते हैं।
भारतरत्न महामना पंडित मदनमोहन मालवीय ने जब ज्ञान, अध्यात्म और सनातन संस्कृति की राजधानी काशी में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की तो उनके मन में यही प्रण था कि इस देश के युवक-युवतियों में भारतीय सनातन मूल्यों का संचार हो। मालवीय जी सदा छात्र-छात्राओं से कहा करते थे कि सत्य, ब्रह्मचर्य, व्यायाम, विद्योपार्जन, देशभक्ति और आत्मत्याग जैसे सनातन मूल्यों को आत्मसात करने से ही तुम समाज में सम्मान के योग्य बन सकते हो। वे कहते थे कि ज्ञानार्जन से ज्यादा महत्वपूर्ण है चरित्र का निर्माण और चरित्र निर्माण के लिए, सनातन मूल्यों को आत्मसात करना होगा, जिसके लिए सनातन धर्म और नीति की शिक्षा को अनिवार्य रूप से पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए।
बदलते हुए वैश्विक परिदृश्य में, सही मानव बनने की प्रक्रिया और चरित्र निर्माण की शिक्षा छात्रों को कौन देगा, यह जिम्मेदारी हमारी शिक्षण संस्थाओं की बनती है। इस पवित्र भारतभूमि पर जन्म लेने वाले प्रत्येक युवक-युवती के भीतर भारतीय सनातन मूल्यों का समावेश अनिवार्य है, ताकि वे केवल ज्ञानार्जन तक सीमित न रहें, बल्कि उनके चरित्र का भी उत्तरोत्तर विकास हो सके। भारत सरकार द्वारा घोषित राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का उद्देश्य ऐसे छात्र-छात्राओं का निर्माण करना है, जिनकी सोच वैश्विक हो, लेकिन जड़ें भारतीयता और भारतीय मूल्यों में गहराई से निहित हों, और जो भारतीय ज्ञान परंपरा के वाहक बन सकें।
अत: हमारे शिक्षण संस्थानों में छात्र-छात्राओं को सनातन मूल्यों की शिक्षा देना अत्यंत आवश्यक है, ताकि उनके व्यक्तित्व का विकास भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार हो सके। हमें ऐसे उद्यमी और समर्थ छात्र-छात्राओं की आवश्यकता है जो न केवल भारत का प्रतिनिधित्व कर सकें, बल्कि वैश्विक दृष्टि के साथ भारतीयता को भी प्रतिबिंबित कर सकें।
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