1984 के सिख विरोधी दंगों में मामलों की पुनर्जांच के लिए गठित एसआईटी के अध्यक्ष न्यायमूर्ति एस.एन. ढींगरा ने दंगा पीड़ितों के साथ हुए अन्याय पर बेबाकी से अपनी बात रखी। उन्होंने स्पष्ट कहा कि पुलिस, अभियोजन पक्ष और न्यायपालिका ने गैर-जिम्मेदारी दिखाई। साथ ही उन्होंने दंगाइयों को बचाने में तत्कालीन कांग्रेस सरकार के रुख को भी उजागर किया। न्यायमूर्ति ढींगरा से पाञ्चजन्य की बातचीत के अंश
1984 के दंगे में पुलिस प्रशासन की संवेदनहीनता रही, इसे आप कैसे देखते हैं?
देखिए, लगभग 190 मामले मैंने दोबारा नहीं, बल्कि तिबारा छानबीन के लिए भेजे थे। एसआईटी पहले से गठित थी। एसआईटी ने इन केसों के बारे में यह रिपोर्ट दी थी कि इनमें दोबारा किसी प्रकार की कोई संभावना नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय में दूसरे पक्ष के अधिवक्ता ने कहा कि वे इस रिपोर्ट से संतुष्ट नहीं हैं। तब सर्वोच्च न्यायालय ने मेरी अध्यक्षता में एसआईटी बनाई ताकि इन मामलों को फिर से एक बार देखें। हमारी कमेटी ने प्राथमिकी नंबर, थाना लिखकर अखबारों में विज्ञापन दिया कि कोई गवाह, कोई भी व्यक्ति इन मामलों के बारे में किसी प्रकार की जानकारी रखता है तो वह आकर एसआईटी को अपना बयान दे सकता है। अगर नहीं आ सकता तो लिखित भेज दे, शपथपत्र भेद दे। हमें पत्र लिखें और हम उसका संज्ञान लेंगे। लेकिन कोई भी व्यक्ति इस मामले में गवाही देने सामने नहीं आया। यही रिपोर्ट पिछली एसआईटी ने भी दी थी। इससे पहले शायद यही कहकर इन मामलों को बंद कर दिया गया था कि इनमें कोई गवाह नहीं है। इनमें से बहुत मामले ऐसे थे जिनमें ट्रायल हो चुका था, फैसला आ चुका था। लेकिन फुलका जी एवं अन्य वकील इससे संतुष्ट नहीं थे ट्रायल के निष्कर्ष से।
इसके बाद मैंने उन मामलों का अध्ययन किया। अध्ययन के बाद मैंने निष्कर्ष दिया कि इसमें प्रथम तो पुलिस ने बड़े गैर-जिम्मेदाराना ढंग से काम किया। फिर उसके बाद अभियोजन पक्ष ने इन मामलों के साथ अन्याय किया। और फिर ट्रायल के लिए ये मामले न्यायपालिका में गए तो वहां न्यायपालिका ने भी इनके साथ अन्याय किया। इसमें तीनों अंगों की विफलता थी। मेरी अनुशंसा ये थी कि जिन मामलों में बरी कर दिया गया है, उनमें काफी गवाही थी और उन गवाहों को जजों ने न तो ढंग से देखा, न पढ़ा और इस सोच के साथ कि हमें तो बरी करना ही है, एक यांत्रिक ढंग से इन मुलजिमों को बरी कर दिया। गवाह गवाही दे रहा है, तो कहा कि हम विश्वास नहीं करते और जहां गवाह ने विश्वसनीय गवाही दी, वहां ये कहकर बरी कर दिया कि प्राथमिकी दर्ज करने में बहुत देरी हुई।
जब प्राथमिकी दर्ज करने के लिए रंगनाथ मिश्र आयोग बना तो इसने प्राथमिकी दर्ज करने का कोई आदेश नहीं दिया। न्यायमूर्ति मिश्र के पास हजारों शपथपत्र आए। मिश्र आयोग ने आगे समिति बनाने की संतुति कर दी। वो समिति बन गई। उस कमेटी ने हर शपथपत्र को देखकर प्राथमिकी दर्ज करने की संस्तुति की। वह भी न्यायिक समिति थी। न्यायमूर्ति मिश्र भी सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे। और बाकी समितियां बनीं, उनमें भी न्यायाधीश थे। उन न्यायमूर्तियों की संस्तुति पर शपथपत्र को प्राथमिकी का रूप दिया गया। जब ये चीजें ट्रायल में गईं, तो उसमें पीड़ित का क्या कसूर था?
कहा जाता है कि पुलिस ने मामले ही दर्ज नहीं किए?
अब पुलिस या अभियोजन मुकदमा दर्ज ही न करे तो आप गवाह को कैसे दोषी ठहराएंगे। लेकिन ज्यादातर न्यायालयों ने इस आधार पर भी मामले खारिज कर दिए कि प्राथमिकी दर्ज होने में बहुत देरी हुई। वास्तविकता यह थी कि प्राथमिकी दर्ज कराने थाने जाने पर इनको भगा दिया जाता था। ये बयान भी रिकॉर्ड पर थे। लेकिन उन न्यायमूर्तियों ने उन चीजों को न देखते हुए कोई निर्णय उद्धृत कर दिया कि अगर प्राथमिकी देर से हो तो वह मामला कमजोर होता है। लेकिन ऐसे निर्णय भी उपलब्ध हैं जिसमें यह कहा है कि प्राथमिकी दर्ज करने में देरी की जाए तो वह देरी नहीं मानी जाएगी। परंतु इन निर्णयों को उद्धृत नहीं किया गया। न्यायाधीशों का भी ऐसा ही रवैया था मानो वह ठान कर बैठे हों कि इन मामलों में कोई दोषसिद्धि नहीं करनी है और न ही कानून का पालन करना है। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि हमारे सीआरपीसी के अनुसार किसी व्यक्ति के खिलाफ अगर तीन मामले हैं और उसने तीन अपराध किये हैं तो तीनों अपराधों का एक साथ ट्रायल हो सकता है। और यहां तो ऐसा हुआ कि 50 अपराध हैं, वह भी अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग स्थान पर किए। ये 50 अपराध जोड़कर एक प्राथमिकी में डाल दिए गए। अब एक जांच अधिकारी 50 अपराधों की विवेचना कैसे करेगा? तो कानून को यह आदेश देना चाहिए था कि हर वारदात एक अलग मामला है और उसकी अलग विवेचना करके आप केस फाइल करिए और मामला वापस कर देना चाहिए था ताकि उपयुक्त जांच होकर दाखिल हो। किसी भी न्यायाधीश ने ऐसा कोई भी आदेश नहीं दिया कि वो कानून सम्मत उनका ट्रायल कर सके।
कानूनन आप तीन केसों से ज्यादा ट्रायल नहीं कर सकते। सीआरपी इसकी इजाजत नहीं देती। लेकिन यहां तो एक प्राथमिकी में 500-500 सौ वारदातें हैं और उस एक प्राथमिकी का एक जांच अधिकारी। उसने 500 वारदातों का चालान दाखिल कर दिया। अब जज साहब उन 500 का एकसाथ ट्रायल कर रहे हैं। वो ट्रायल संभव ही नहीं थी। तो इसमें एक तरकीब अपनाई गई जिसमें ये मामले कभी आगे चले ही नहीं। हां, वहां मामले चले, जहां कम मुलजिम थे। ये 1984 में हुए और लगभग 1985 में चालान दाखिल होना शुरू हुए।
1985 से 1989 तक अलग-अलग जजों के पास अलग-अलग थानों के चालान गए। जहां एक-दो अपराध थे, वहां केस चले। हमारी न्यायिक प्रणाली की बहुत बड़ी कमजोरी है कि जज ये कह दे कि मैं तो इस पर विश्वास ही नहीं करता क्योंकि क्रॉस इक्जामिनेशन में इस बात का उत्तर नहीं दिया। चाहे वह बिल्कुल अप्रासंगिक बात हो। मान लीजिए, पूछा गया कि भीड़ में कितने लोग थे? अब जिसके घर में आग लगी है, वह भीड़ की गिनती तो करेगा नहीं। इस आधार पर बरी हुए हैं। इस तरह से न्यायाधीशों की ओर से गैर-जिम्मेदाराना ढंग से ट्रायल हुआ। पुलिस का दोष तो था ही कि उन्होंने जांच ही नहीं की। ऐसे मामले बहुत हैं जिसमें पुलिस ने जानबूझकर गुप्त सूचना के आधार पर पकड़ने का नाटक किया।
इससे तो यही लगता है कि पूरे सुनियोजित ढंग से इस मामले की जांच नहीं की गई?
मुझे 1989 तक का तो पता नहीं। लेकिन 1989 में सरकार ने एक कदम उठाया कि एक स्पेशल जज नियुक्ति कया कि अब 1984 के दंगे के सभी मामले उन्हीं के पास होंगे। वह स्पेशल जज मेरे बैच के ही थे। उन्होंने अतिरिक्त जिला जज बनने से पहले कभी भी आपराधिक मामला छुआ नहीं था। वे राजस्व देखते थे। मैं उस समय भी हैरान हुआ कि एक ऐसे जज को आपराधिक ट्रायल कैसे दे दिया जिसे इसका कोई अनुभव नहीं है। उस समय उच्च न्यायालय को सोचना चाहिए था कि न्याय मांग रहे पीड़ितों के लिए किसको स्पेशल जज बना रहे हैं। अब इसका खुद ही अर्थ निकाल सकते हैं कि ऐसा क्यों हुआ? किसके कहने पर हुआ? कैसे हुआ? इतना मैं जानता हूं कि जिस समय इन्हें नियुक्त किया गया, उस समय ये विधि मंत्री एच.आर. भारद्वाज के काफी करीबी लोगों में से थे।
1995 तक वे अकेले जज थे। 1995 में मेरी पोस्टिंग कड़कड़डूमा कोर्ट, दिल्ली में हुई तो पूर्वी दिल्ली के मामले मेरे पास आए। बाकी दिल्ली के लिए वही थे। मैंने देखा कि त्रिलोकपुरी में लगभग 200 हत्याएं हुईं और उनका एक ही मामला था। सारी हत्याएं अलग-अलग जगह हुई थीं। ऐसा किसी ने नहीं कहा कि इन सभी में ये 5-10 आदमी शामिल थे। तब 200 मामलों का ट्रायल कैसे हो सकता है। मैंने लोकअभियोजक से कहा कि 200 ट्रायल को अलग-अलग कराने के लिए आपने न्यायालय से प्रार्थना क्यों नहीं की? उन्होंने बताया कि उनका आवेदन पिछले इतने वर्ष से लंबित है। फिर मैंने उसी दिन आदेश पारित किया कि इसमें जितनी भी घटनाएं हुई हैं, उनके अलग-अलग चालान भर कर दिए जाएं। फिर सबकी अलग अलग ट्रायल हुई। जिनके गवाह नहीं थे, वे बरी हुए और जिनके गवाह थे, उनको सजा दी गई। उसी में वहां के विधायक का और एचकेएल भगत का भी मामला था। मुझे लगता है कि उन केसों का अलग न करने का कारण यह भी था कि भगत जैसे लोगों का भी नाम मामले में था।
पिछले आयोग में क्या गड़बड़ी हुई, आप क्या कहेंगे?
मैं गड़बड़ी की बात नहीं कर रहा। वह आयोग आंसू पोंछने या झाडू-पोंछा की कार्रवाई थी। लोग हंगामा कर रहे हैं तो हम दिखाएं कि हम कुछ कर रहे हैं। इसके लिए यदि आप सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश चुनते हैं, तो लोग चुप हो जाएंगे। आयोग का उद्देश्य ही उस भड़कते आक्रोश पर पानी डालना था। हमारा इतिहास रहा है कि जिसे मुख्य न्यायाधीश बनना होता था, वह सरकार से रार मोल नहीं लेता था क्योंकि उस समय कोलोजियम सिस्टम नहीं था। यह सिस्टम 1993 में आया। और ये आयोग बना था 1985 में। आप ऐसे व्यक्ति से उम्मीद नहीं कर सकते कि वह सरकार के खिलाफ कोई रिपोर्ट देगा। उस आयोग में जो भी शामिल थे, उन्होंने आयोग का यह कहकर बहिष्कार कर दिया कि आयोग न तो हमें क्रॉस इक्जामिनेशन करने दे रहा है और न ही आमजन के लिए खुला है। आयोग ने अपनी कार्रवाई गोपनीय रखने का निर्णय स्वयं किया। इसलिए उस पर लोगों ने सवाल उठाए थे।
जहां तक मेरा मानना है कि भल्ला साहब की नियुक्ति इसीलिए की गई थी कि वे सरकार के अनुसार ही काम करेंगे। नियुक्ति के समय उनकी उम्र लगभग 44 वर्ष थी जबकि इस प्रकार के जजों की नियुक्ति 40 वर्ष से कम आयु वालों में से होती है। इसको मैं पूर्ण रूप से राजनीतिक से प्रेरित मानता हूं। इसके अलावा, उच्च न्यायालय ने सज्जन कुमार के मामले को लंबित किया। उनको पुलिस ने कभी भी गिरफ्तार नहीं किया। काफी लोगों ने कहा कि अलग-अलग जगहों पर सज्जन कुमार ने दंगे कराए। बहुत शोर मचने पर मामला सीबीआई को सौंप दिया गया। सीबीआई ने जांच की, गवाह निकाले और इन्हें गिरफ्तार करने का आदेश दिया गया। जब सुबह गिरफ्तार करने के लिए उनके घर पहुंचे तो वहां उनके ढेर सारे समर्थक एकत्र थे। उन्होंने अपने वकील को जमानत की अपील करने को कहा। पता नहीं, किसका फोन आया कि 10 बजे अदालत खुलते ही उनकी अपील लग गयी। वहां सीबीआई खड़ी थी और स्थानीय पुलिस भी मदद नहीं कर रही थी। पुलिस ने कह दिया कि हम इतनी भीड़ नियंत्रित नहीं कर सकते। हालात ऐसे हो गए कि उच्च न्यायालय ने अपनी शक्ति दिखाने के बजाय सोचा कि पुलिस सीबीआई की मदद नहीं कर रही। इससे उनको अग्रिम जमानत मिल गई। उस आदेश में सज्जन कुमार को एक बहुत बड़ा जननेता कहा गया। अब इसमें कौन सी ताकत काम कर रही थी, आप समझ सकते हैं।
1984 के दंगे में अब मात्र 2-4 मामले लंबित हैं। जो मामले पहले ही बंद हो चुके हैं, उसे आप कहां से दुबारा खोलोगे। कहां से नए गवाह लाओगे? जिनमें अपील दाखिल होनी है, वह पड़ी है। इसमें लोगों को जितना न्याय मिलना था, मिल चुका है। हां! ये कह सकता हूं कि अब न्यायाधीशों में डर का माहौल नहीं होगा। अब सज्जन कुमार की प्रशंसा करने वाली न्यायपालिका नहीं मिलेगी। अब वो न्याय नहीं मिलेगा जो अपराधी का ही बचाव कर रहा हो।
(नोट – यह साक्षात्कार नवंबर 2022 में पाञ्चजन्य में प्रकाशित हुआ था। पाञ्चजन्य आर्काइव से साभार )
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