दीपावली पर्व युगों-युगों से हमारी कालजयी सभ्यता के विभिन्न घाटों को प्रदीप्त करता आ रहा है। वैदिक काल से वर्तमान तक दीपावली की पांच दिवसीय पर्व श्रृंखला संस्कृति के आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और भौतिक धाराओं को प्रकाशित करता आया है। शास्त्रीय मान्यता है कि होली महोत्सव है और दशहरा महानुष्ठान, जबकि दीपावली सम्पूर्ण अर्थों में महापर्व है। सर्वाधिक ऐतिहासिक संदर्भ, मान्यताएं व परम्पराएं हमारे इस महापर्व से जुड़ी हैं।
यदि धर्म ग्रंथों के संदर्भों की बात करें तो यह पर्व सर्वाधिक लोकप्रिय त्रेतायुगीन संदर्भ मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के जीवन से जुड़ा है। रावण को हराकर 14 वर्ष का वनवास पूर्ण कर जिस दिन श्रीराम अयोध्या लौटे, उस रात्रि कार्तिक मास की अमावस्या थी। ऐसे में अयोध्यावासियों ने श्रीराम के स्वागत में घी के दीप जलाकर पूरी अयोध्या को प्रकाश से जगमग किया। श्रीराम के स्वागत में अयोध्यावासियों द्वारा मनाया गया वह दीपोत्सव भारतवर्ष का प्रथम प्रकाश पर्व माना जाता है। तब से लेकर अब तक दीपोत्सव की यह परम्परा चली आ रही है। सनातन मान्यता है कि आज भी दीपावली के दिन प्रभु श्रीराम, भाई लक्ष्मण और सीता जी के साथ अपनी वनवास स्थली चित्रकूट में विचरण कर श्रद्धालुओं की मनोकामनाओं की पूर्ति करते हैं। इसी कारण दीपावली के दिन लाखों श्रद्धालु चित्रकूट में मंदाकिनी नदी में डुबकी लगाकर कामदगिरि की परिक्रमा कर दीपदान भी करते हैं।
पद्म व भविष्य पुराण में भी दीप पर्व का सम्यक विवेचन मिलता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार इस पंच दिवसीय प्रकाश पर्व के प्रथम दिवस ( कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी) आयुर्वेद के प्रणेता आचार्य धन्वंतरि के साथ माता लक्ष्मी व धनाध्यक्ष कुबेर समुद्रमंथन के दौरान प्रकट हुए थे। ऋषि धन्वंतरि को श्री हरि विष्णु का अंशावतार माना जाता है। सुश्रुत व चरक संहिता के साथ रामायण, महाभारत व श्रीमद्भागवत महापुराण में आचार्य धन्वंतरि की आयुर्वेदिक उपलब्धियों का विस्तृत उल्लेख मिलता है। आचार्य धन्वंतरि के जीवन का सबसे बड़ा वैज्ञानिक प्रयोग ‘आरोग्य के अमृत कलश’ से जुड़ा है। आचार्य धन्वंतरि के स्वास्थ्य दर्शन के मुताबिक मानव देह की प्रत्येक कोशिका अपने आपमें एक संसार है। उनके मुताबिक भौतिक देह एक ऐसा संगठन है जो सृजन और विनाश की प्राकृतिक शक्तियों के मध्य एक सुनिश्चित क्रम और सन्तुलन में ढला रहता है। जब यह सन्तुलन बिगड़ता है, तब हमारे काय तंत्र में विकार उत्पन्न हो जाते हैं। उन्होंने स्वास्थ्य को व्यक्ति के स्व और उसके परिवेश से संतुलित तालमेल के रूप में परिभाषित किया और जीवन के इस ज्ञान-विज्ञान को आयुर्वेद की संज्ञा दी। धन्वंतरि के तत्वदर्शन के अनुसार जिन पंचभूतों (आकाश, वायु, अग्नि, पानी, धरती) से यह समूचा विश्व ब्रह्माण्ड बना है, उन्हीं से हमारे शरीर की भी संरचना हुई है। इसीलिए प्रकृति के साथ तदाकार हुए बिना हम कभी स्वस्थ नहीं रह सकते।
यदि परम्पराओं की बात करें तो इस दिन पुराने बर्तनों को बदलना व नये बर्तन व आभूषण (विशेष रूप से सोना व चांदी के) खरीदना शुभ माना जाता है। इस दिन धन-सम्पत्ति की प्रदाता देवी लक्ष्मी के साथ देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर का पूजन भी शुभ माना जाता है। शास्त्रों में कहा गया है कि जिन परिवारों में धनतेरस के दिन प्रात:काल स्नान कर पर्व की प्रतिनिधि देव शक्तियों के समक्ष दीप प्रज्वलित कर आरोग्य नियमों के पालन व धन के सुनियोजन के सत्संकल्प लिये जाते हैं वहां श्री सम्पदा व आरोग्य सुख सदा बना रहता है। इस दिन प्रदोष काल में नदी, घाट, गोशाला, कुआं, बावली, मंदिर आदि स्थानों पर दीपदान करना भी शुभ फलदायी होता है।
त्रयोदशी के अगले दिन नरक चतुर्दशी (रूप चौदस) को छोटी दीपावली मनायी जाती है। पौराणिक कथानक है कि द्वापर युग में श्रीकृष्ण ने इसी दिन नरकासुर का वध किया था। इसीलिए इस दिन सायंकाल देवताओं का पूजन करके घर के प्रवेश द्वार पर दीपक जलाकर रखने की भी परम्परा है। शास्त्रों में कहा गया है कि इस दिन सूर्योदय से पूर्व स्नान के पश्चात दक्षिण मुख करके यमराज से प्रार्थना करने पर व्यक्ति के वर्ष भर के पाप नष्ट हो जाते हैं तथा इस दिन पितरों को अर्घ्य देने से उनको परम गति मिल जाती है। यहां ध्यान देने योग्य तथ्य है ये विधान महज परम्पराएं कोरी पौराणिक मान्यताएं नहीं हैं, वरन इनके पीछे शारीरिक स्वास्थ्य का सुनियोजित विज्ञान निहित है। लोग इन परम्पराओं का पालन कर स्वस्थ रहें, इसलिए हमारे तत्वदर्शी ऋषियों ने इस दिन सूर्योदय से पूर्व शरीर पर तिल या सरसों का तेल लगाकर स्नान करने का विधान बनाया। चूंकि इस समय मौसम बदलने का होता है, इसीलिए उन्होंने युक्ति संगत तरीके यह कहकर इस नियम को प्रचारित कर दिया कि जो मनुष्य इस दिन सूर्योदय के पश्चात स्नान करेगा उसके वर्षभर के शुभ कार्य नष्ट हो जाएंगे। जरा विचार कीजिए इन परम्पराओं के पीछे कितनी दूरदृष्टि रही होगी हमारे मनीषियों की।
महापर्व के मध्यकाल (तीसरे दिन) में यानी अमानिशा को दीपोत्सव मनाया जाता है। तिल-तिल कर जलते नन्हें नन्हें मिट्टी के दीपकों की साक्षी में मनाया जाने वाला दीपोत्सव महालक्ष्मी के आह्वान के साथ अज्ञान और अंधकार के पराजय एवं पराभव का द्योतक है। इस दिन हम दीप प्रज्वलन की पुरातन परम्परा को गतिमान बनाते हैं। आदिकाल में दीपावली को यक्षरात्रि के रूप में मनाये जाने के भी पौराणिक उल्लेख मिलते हैं। कहा जाता है कि दीपावली की रात्रि को यक्षराज कुबेर अपने गणों के साथ हास-विलास व आमोद-प्रमोद करते थे। दीपावली पर रंगबिरंगी आतिशबाजी, छत्तीस प्रकार के व्यंजन तथा मनोरंजन के विविध कार्यक्रम यक्षों की देन माने जाते हैं। यदि तार्किक आधार पर देखें तो कुबेर जी मात्र धन के अधिपति हैं जबकि गणेश जी संपूर्ण ऋद्धि-सिद्धि के दाता माने जाते हैं। इसी प्रकार लक्ष्मी जी मात्र धन की स्वामिनी नहीं वरन ऐश्वर्य एवं सुख-समृद्धि की भी स्वामिनी मानी जाती हैं।
माना जाता है कि इसी दिन मृत्यु के देवता यमराज ने जिज्ञासु बालक नचिकेता को ज्ञान की अंतिम वल्लरी का उपदेश दिया था। यम-नचिकेता का यह संवाद कठोपनिषद में विस्तार से वर्णित है। महान पतिव्रता सावित्री ने भी इसी दिन अपने अपराजेय संकल्प द्वारा यमराज के मृत्युपाश को तोड़कर मनवांछित वरदान पाया था। चक्रवर्ती सम्राट युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ भी इसी दिन सम्पन्न हुआ था। कहा जाता है कि राक्षसों का वध करने के लिए मां देवी ने महाकाली का रूप धारण किया। राक्षसों का वध करने के बाद भी जब महाकाली का क्रोध कम नहीं हुआ तब भगवान शिव स्वयं उनके चरणों में लेट गए। भगवान शिव के शरीर स्पर्श से ही देवी महाकाली का क्रोध समाप्त हो सका। वह तिथि भी कार्तिक अमावस्या की ही थी। इसीलिए इस दिन बांग्ला समाज में काली पूजा का विधान है। कहा जाता है कि महान संत स्वामी रामकृष्ण परमहंस को दीपावली ही के दिन मां काली ने प्रथम दर्शन हुए थे।
जैन पंथ में तो दीपावली का विशिष्ट महत्व है। जैन तीर्थंकर भगवान महावीर ने दीपावली के दिन ही बिहार के पावापुरी में निर्वाण प्राप्त किया था और देवलोक के देवताओं ने दीप जलाकर उनकी स्तुति की थी। जैन धर्म के प्रमुख ग्रन्थ ‘कल्पसूत्र’ में कहा गया है कि महावीर-निर्वाण के साथ जो अन्त:ज्योति सदा के लिए महाकाश में विलीन हो गयी है, आओ उसकी क्षतिपूर्ति के लिए हम बाह्य आकाश को दीप ज्योति से आलोकित करें। दीपोत्सव का वर्णन त्रिपिटक व अन्य प्राचीन जैन ग्रंथों में भी मिलता है। महावीर-निर्वाण संवत दीपोत्सव के दूसरे दिन से शुरू होता है।
इसी तरह बौद्ध पंथ के प्रवर्तक गौतम बुद्ध संबोधि प्राप्त करने के उपरान्त 17 वर्ष बाद जब अनुयायियों के साथ अपने गृह नगर कपिलवस्तु लौटे तो उनके स्वागत में नगरवासियों ने लाखों दीप जलाकर दीपावली मनायी थी। साथ ही उस अवसर पर महात्मा बुद्ध ने अपने प्रथम प्रवचन के दौरान ‘अप्प दीपो भव’ का उपदेश देकर दीपावली को नया आयाम प्रदान किया था। मौर्य साम्राज्य की दीपावली के तो रंग ही अनूठे थे। मगध सम्राट अजातशत्रु के शासनकाल में इस शुभ पर्व पर कौमुदी महोत्सव का आयोजन किया जाता था। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में रचित कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार आमजन कार्तिक अमावस्या के अवसर पर मंदिरों और घाटों पर बड़े पैमाने पर दीप जलाकर दीपदान महोत्सव मनाते थे। लोग बाग मशालें लेकर नाचते थे। मौर्य राजवंश के चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने अपना दिग्विजय का अभियान इसी दिन प्रारम्भ किया था तथा इसी खुशी में दीपदान किया गया था। आर्यावर्त के यशस्वी सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने ईसा से 269 वर्ष पूर्व दीपावली के ही दिन तीन लाख शकों व हूणों को युद्ध में खदेड़ कर परास्त किया था। इस खुशी में उनके राज्य के लोगों ने असंख्य दीप जला कर जश्न मनाया था। विक्रम संवत के प्रवर्तक चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य का राज्याभिषेक भी दीपावली के दिन ही हुआ था।
सिखों के लिए भी दीपावली का पर्व बहुत माने रखता है। कारण कि इसी दिन ही अमृतसर में 1577 में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था और इसके अलावा 1618 में दीवाली के दिन सिखों के छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह जी को मुगल बादशाह जहांगीर की कैद से जेल से रिहा किया गया था। भारतीय संस्कृति के महान जननायक तथा आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने बनकर दीपावली के दिन अजमेर के निकट देहावसान हुआ था। इसी तरह पंजाब में जन्मे स्वामी रामतीर्थ का जन्म व महाप्रयाण दोनों दीपावली के दिन ही हुआ। इन्होंने दीपावली के दिन गंगातट पर स्नान करते समय ओम कहते हुए समाधि ले ली।
गौरतलब हो कि 500 ईसा पूर्व की मोहनजोदड़ो व हड़प्पा की खुदाई में बड़ी संख्या में पकी हुई मिट्टी के दीपक प्राप्त हुए हैं। साथ ही खुदाई में प्राप्त भवनों में दीपकों को रखने हेतु बनाये गये आलों व ताखों के अवशेष भी मिले हैं। सिंधु घाटी की सभ्यता के अवशेषों में मिले मिट्टी के दिये, चाक तथा एक पुरुष मूर्ति इस बात की ओर इशारा करती है कि उस समय भी दीपावली मनायी जाती रही होगी।
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