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दीपोत्सव के पांच दिन…

व्यक्ति, परिवार और समाज ही नहीं, राष्ट्र और पर्यावरण की समृद्धि का संदेश देते हैं कार्तिक कृष्ण पक्ष त्रयोदशी से शुक्ल पक्ष द्वितीया तक के पांच दिन। इसलिए दीपावली प्रत्येक समाज के प्रत्येक वर्ग समूह की सहभागिता ही नहीं, प्रकृति के साथ एकाकार होने का त्योहार भी है

by रमेश शर्मा
Oct 29, 2024, 07:33 pm IST
in भारत, धर्म-संस्कृति, जीवनशैली
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दीपावली भारत का सबसे बड़ा त्योहार है। यह कार्तिक कृष्णपक्ष त्रयोदशी से आरंभ होकर शुक्ल पक्ष की द्वितीया तक कुल पांच दिन तक चलता है। इस प्रकाशोत्सव में पूजन के माध्यम से व्यक्तित्व निर्माण, कुटुंब समन्वय, समाजिक समरसता, पर्यावरण संरक्षण तथा राष्ट्र की समृद्धि के पांच प्रमुख संदेश दिए गए हैं।

रमेश शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार

दीपावली रामजी के अयोध्या लौटने का उत्सव मनाने का त्योहार है। विजयादशमी को लंका विजय हुई और दीपावली को वे अयोध्या लौटे। भारत में पुराण कथाओं का सृजन और तीज-त्योहारों का निर्धारण साधारण नहीं है। इसमें तिथियां तो निमित्त हैं। इनके आयोजन विधान के पीछे प्राणी और प्रकृति, दोनों के उत्थान और समन्वय का संदेश है। पुराण कथाओं के माध्यम से समाज जीवन में एक आदर्श शैली स्थापना का प्रयास है और तीज-त्योहार व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र व पर्यावरण के संरक्षण और समन्वय का व्यावहारिक संदेश हैं।

अब दीपावली उत्सव को देखें। यह कार्तिक अमावस के दो दिन पहले आरंभ होकर दो दिन बाद तक चलता है। यह समयावधि शरद और हेमंत ऋतु के संगम की है। प्रत्येक ऋतु परिवर्तन का प्रभाव प्रकृति और सभी प्राणियों के जीवन पर पड़ता है। इन ऋतुओं में गर्मी, सर्दी, बरसात और फल-फूल सब्जी की फसलें आती हैं। इसीलिए भारत में प्रत्येक ऋतु का अपना अलग उत्सव है और उसे मनाने का तरीका भी अलग है, जो मनुष्य को ऋतु प्रभाव झेलने की सहज शक्ति देता है।

दीपोत्सव की तैयारी विजयादशमी से आरंभ हो जाती है। सामान्यतया वर्षा ऋतु का समापन भाद्रपद माह में हो जाता है, लेकिन कुछ भटकते बादल आश्विन माह में भी बरसने आ जाते हैं। बरसात के दिनों में कई हानिकारक दृश्य-अदृश्य जीव घर के सामान, घर की दीवारों और कोने में अपना स्थान बना लेते हैं। इसलिए दशहरे के बाद सफाई अभियान चलता है। घर की एक-एक वस्तु को झाड़-पोंछकर साफ किया जाता। टूटी-फूटी वस्तुएं फेंककर नई मंगाई जाती हैं। पूरे घर की पुताई होती है। इस सफाई और पुताई अभियान से तीन लाभ होते हैं। पहला, दीपावली पर घर की साफ-सफाई करने से शरीर की कोशिकाएं सक्रिय होती हैं, जो स्वास्थ्य के लिए उत्तम होता है। वर्षा ऋतु में शरीर में जल तत्व प्रभावी और अग्नि तत्व शिथिल होता है।

दूसरा, घर की पुताई और नए सामान खरीदने या बनवाने पर समाज के शिल्प वर्ग से संपर्क-समन्वय बनता है। उसे कुछ काम भी मिलता है। घर की साफ-सफाई, फटे-पुराने वस्त्र तथा अन्य पुरानी वस्तुओं को बाहर करके पूरा परिवार गुजिया, पापड़ी, मठरी आदि बनाता है। प्रत्येक घर में कुछ विशिष्ट पकवान बनाने की परंपरा है। तीसरा, घर की महिलाएं दीवारों, दरवाजों पर रंगोली बनाती हैं या चित्रकारी करती हैं। इससे बच्चे सीखते हैं और घर की परंपराओं से जुड़ते हैं। उनमें कर्तव्य बोध भी जागता है। साफ-सफाई, सजावट-जमावट आदि का काम धनतेरस तक पूरा हो जाता है। इसके बाद पांच दिवसीय दिवसीय दीपोत्सव आरंभ होता है। पहले दिन धनतेरस, दूसरे दिन रूप चतुर्दशी, तीसरे दिन दीपावली, चौथे दिन गोवर्धन पूजन और पांचवें दिन भाई दूज से इस उत्सव का समापन होता है। इन पांच दिनों से संबंधित अलग-अलग पौराणिक कथाएं हैं। इन कथाओं के अनुसार, यह अवधि समुद्र मंथन की भी है।

धनतेरस : आरोग्य एवं समृद्धि का संदेश

धनतेरस या धन्वन्तरि जयंती कार्तिक कृष्ण पक्ष त्रयोदशी को पड़ता है। इसी दिन समुद्र मंथन से आरोग्य के देवता धन्वन्तरि प्रकट हुए थे। अश्विनी कुमारों को वैद्य या चिकित्सक की मान्यता प्राप्त है। कालांतर में भगवान धनवंतरि नाम का अपभ्रंश होकर केवल ‘धन’ रह गया हो या स्वास्थ्य को सबसे बड़ा धन माना गया हो, कारण जो भी रहा हो, इस तिथि का नाम धनतेरस हो गया। इस दिन दोनों कार्य होते हैं यानी आरोग्य वृद्धि का भी और धन वृद्धि की कामना का भी। पुराणों में कहा गया है कि धन इतना अर्जित करो कि जीवन भर चले और धर्म इतना कमाओ जैसे इसी क्षण संसार से जाना है अर्थात् धर्मयुक्त मार्ग से धन कमाना। धनतेरस पर खरीदारी का यही संदेश है। स्वास्थ्य हो या संपत्ति उसकी सार्थकता सदुपयोग में ही होती है। यदि धन का अपव्यय न हो और केवल तिजोरी में बंद रहे तो उसकी कोई उपयोगिता नहीं। इसलिए स्थायी संपत्ति के रूप में यह धन का सकारात्मक परिचालन है। वह स्थायी परिसंपत्ति में तो रहे ही, परिचालन में भी रहे। हमारे मनीषियों ने धनतेरस के रूप में यही निर्धारण किया है। इसी प्रकार, अच्छा स्वास्थ्य ही जीवन को सुखद बनाता है। प्रात: व्यायाम और जड़ी-बूटी युक्त जल से स्नान, संतुलित आहार आवश्यक है ताकि शरीर निरोगी रहे।

रूप चतुर्दशी : सामर्थ्यवान व्यक्तित्व का निर्माण

अगले दिन रूप चतुर्दशी होती है, जिसे नर्क चतुर्दशी भी कहा जाता है। जो स्वस्थ होगा, वही रूपवान होगा। इसीलिए यह तिथि अपनी साधना के मूल्यांकन का दिन है। इस दिन प्रात: उठकर व्यायाम, स्नान, योग साधना का विधान है। यह एक प्रकार से अपने शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य की साधना और दिनचर्या संकल्प है। आरोग्य एवं संकल्प शक्ति से आंतरिक ऊर्जा का संचार होगा तभी चेहरे की कांति बढ़ेगी। इस कांति के कारण ही व्यक्ति को रूपवान कहा जाता है। यह तिथि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की समृद्धि की परीक्षा का दिन है। इसलिए इसका नाम रूप चतुर्दशी है। पुराण कथाओं के अनुसार, इस दिन नरकासुर का वध हुआ था और मानवता उसके अत्याचार से मुक्त हुई थी। नरकासुर के वध के बाद लोगों को तनाव से मुक्ति मिली थी, इसलिए नर्क चतुर्दशी और नरकासुर के अंत से खुशी के कारण मानवता के चेहरे खिल उठे थे, इसलिए इसे रूप चतुर्दशी कहा गया। इसे हम दोनों दृष्टि से मान सकते हैं। एक, नरकासुर के वध के निमित्त नर्क चतुर्दशी और दूसरा, स्वास्थ्य सामर्थ्य और धन के अभाव में व्यक्ति का जीवन नर्क के समान होता है। इसलिए भी इस तिथि को नर्क चतुर्दशी कहा गया है। यानी त्रयोदशी और चतुर्दशी तिथियां यह संदेश देती हैं कि पुरुषार्थ और परिश्रम से धन अर्जित करें और सुव्यवस्थित दिनचर्या से रोग रहित रहें।

लक्ष्मी पूजन : पास-पड़ोस से समन्वय

तीसरे दिन दीपावली आती है। भगवान राम इसी दिन 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे। उनके आगमन के आनंद में दीपोत्सव मनाया गया। तब से इस तिथि पर दीपावली मनाने की परंपरा है। दीपोत्सव के लिए इस तिथि का निर्धारण भी समाज को एक से अधिक संदेश देता है। पहला, दुष्टों के सक्रिय रहते किसी को सुख नहीं मिलता। आनंद में डूबना है तो पहले दुष्टों का अंत करना होगा। जैसा रामजी ने किया था। रामजी चाहते तो युद्ध के बिना ही हनुमान जी माता सीता को लेकर आ जाते। किंतु रामजी ने अयोध्या लौटने से पहले दुष्टों का अंत करने में ही मानवता का हित समझा। यह दीपावली का वास्तविक आनंद है। साथ ही, एक वैज्ञानिक दर्शन भी है।

वर्ष में कुल बारह अमावस आती हैं, लेकिन इनमें कार्तिक की अमावस अपेक्षाकृत अधिक अंधकारमय होती है। चंद्रमा का अपना प्रकाश नहीं होता है। वह सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करता है। चूंकि दोनों ग्रह गतिमान हैं, इसलिए हमें दिन और रात, दोनों में प्रति क्षण प्रकाश की प्रदीप्ता में अंतर दिखाई देता है। प्रत्येक पूर्णिमा और अमावस पर प्रकाश व अंधकार के अनुपात में अंतर होता है। कार्तिक अमावस पर दोनों ग्रहों की स्थिति कुछ ऐसी बनती है या दोनों कुछ ऐसे कोण पर स्थित होते हैं कि इस अमावस की रात अधिक अंधकार वाली होती है। अंधकार चाहे प्रकाश के अभाव में हो या ज्ञान के अभाव में अज्ञान रूपी अंधकार, दोनों की गहनता को परास्त करने के लिए पुरुषार्थ और पराक्रम युक्त संकल्प आवश्यक होता है। इसी संकल्प का प्रकटीकरण है दीप मालिका। इससे संसार अमावस की घनघोर रात्रि में भी प्रकाशमान हो उठता है। दीपोत्सव यह संदेश भी है कि परिस्थिति कितनी भी विषम हो, अंधकार कितना ही गहन हो, यदि उचित दिशा में उचित प्रयत्न किया जाए तो अनुकूल आनंद प्राप्त हो सकता है। अंधकार भी प्रकाश में परिवर्तित हो सकता है। पुरुषार्थ से अंधकार सदैव परास्त होता है। इसलिए दीपावली पुरुषार्थ की दिशा में सतत प्रयत्नशील रहने का संदेश भी देती है।

दीपावली की रात पहले लक्ष्मी जी का पूजन होता है, फिर घर के अंदर और बाहर दीप जलाए जाते हैं। पहले आरती के लिए एक दीया जलाया जाता है, फिर अन्य दीये और इसके बाद आस-पड़ोस में प्रसाद भेजा जाता है। यह संदेश गृहलक्ष्मी से जुड़ा है। देवी लक्ष्मी समुद्र मंथन में अष्टमी को प्रकट हुई थीं। हालांकि अष्टमी को महालक्ष्मी पूजन हो जाता है, लेकिन कार्तिक अमावस को पुन: लक्ष्मी पूजन की परंपरा है। वस्तुत: कार्तिक अमावस के इस पूजन में देवी लक्ष्मी तो एक प्रतीक रूप में हैं। वास्तव में यह दिन तो गृहलक्ष्मी के लिए समर्पित है। गृहलक्ष्मी अर्थात् गृह स्वामिनी। भारतीय चिंतन में घर-गृहस्थी का स्वामी पुरुष या पति नहीं, नारी होती है। नारी को ही गृहलक्ष्मी या गृह स्वामिनी कहा गया है। लेकिन पुरुष को गृहविष्णु या गृहदेवता नहीं कहा जाता। नारी के नाम के आगे ‘देवी’ उपाधि स्वाभाविक रूप से लगती है। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि नारी विवाहित, अविवाहित, परित्यक्ता, विधवा, बालिका या वृद्धा है। वह किसी भी स्थिति या आयु में हो सकती है। नारी की संतुष्टि या आवश्यकता पूर्ति की बात ही दीपावली की तैयारी में है। दीपावली पर सदैव घर गृहस्थी की वस्तुएं ही खरीदी जाती हैं। वस्त्र, आभूषण, शृंगार सामग्री सब का संबंध नारी से होता है। नारी की पसंद या आवश्यकता से ही धनतेरस या दीपावली के आसपास वस्तुएं खरीदी जाती हैं।

एक और बात महत्वपूर्ण है। दीपावली से पहले गुरु पूर्णिमा, रक्षाबंधन, पितृपक्ष आदि तिथियां निकल चुकी होती हैं। इन तिथियों पर गुरु, बहन, वरिष्ठ जनों, यहां तक कि पितृपक्ष में पुरोहित के लिए भी वस्त्र या अन्य भेंट-भोजन का दायित्व पूरा हो जाता है, इसलिए कार्तिक मास की अमावस की तिथि गृह स्वामिनी या गृह लक्ष्मी के लिए निर्धारित है। इसमें जहां परिवारजनों में गृह स्वामिनी के माध्यम से परिवार समाज की समृद्धि के उपाय का संदेश है, वहीं गृह स्वामिनी के लिए भी यह संदेश है कि वह पहले परिवार-समाज के हित की चिंता करे, फिर अपनी इच्छा पूर्ति का प्रयास करे। ऋग्वेद से लेकर अनेक पुराण कथाएं समाज को यह स्पष्ट संदेश देते हैं कि वही घर प्रकाशमान होगा, जहां नारी संतुष्ट और प्रसन्न है। उसी घर में देवता रमण करते हैं, जहां नारी का सम्मान होता है। घर की देवी यदि अपनी पसंद और आवश्यकता पूर्ति से संतुष्ट है, तभी घर प्रकाशमान होता है।

यह सामर्थ्य नारी में ही है कि वह सबसे अंधेरी अमावस की रात्रि को भी प्रकाशमान बना सकती है। दीपावली के दिन वही दीपों से पूरे घर को प्रकाशमान करती है, इसलिए यह त्योहार देवी लक्ष्मी के पूजन प्रतीक रूप में गृहलक्ष्मी को समर्पित है। यदि गृहलक्ष्मी प्रसन्न है, संतुष्ट है तो पूरा परिवार एक सूत्र में बंधा रहता है। एक बात और, दीपावली के दिन पूरा परिवार मिलकर लक्ष्मी पूजन करता है। जैसा अयोध्या में रामजी और सभी भाइयों व उनके पूरे परिवार ने दीपावली पूजन किया था। इसलिए दीपावली पूजन पूरे परिवार की एकजुटता और पड़ोस के समन्वय का प्रतीक है। पड़ोस में दीये भेजना यानी पूरे मोहल्ले को एकजुट रखना है। बाहरी असामाजिक तत्वों के उत्पात पर तभी नियंत्रण होगा, जब पूरे मोहल्ले में समन्वय होगा। इसीलिए लक्ष्मी पूजन के बाद पड़ोस में दीये भेजे जाते हैं।

गोवर्धन पूजा : पर्यावरण संरक्षण

दीपावली के बाद वाला दिन गोवर्धन पूजन होता है। इस दिन गोबर से पर्वत का प्रतीक बनाकर पूजा की जाती है। गायों का शृंगार करने की भी परंपरा है। यह तिथि भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बृजवासियों की प्रकृति के प्रकोप से रक्षा से जुड़ी है। श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाकर बृजवासियों की भीषण वर्षा से रक्षा की थी। इसलिए यह पर्व पर्यावरण के संरक्षण से भी जुड़ा है। प्रकृति और पर्यावरण के केंद्र में पर्वत होते हैं। पर्वत ही बादलों को वर्षा के लिए प्रेरित करते हैं। पर्वतों पर पाई जाने वाली जड़ी-बूटियां प्राणीमात्र को आरोग्यता प्रदान करती हैं।

समस्त वन्य प्राणी पर्वतों पर घूमने अवश्य जाते हैं। यही उनके आरोग्य का रहस्य है। विकसित समाज में भी गाय आदि पालतू पशुओं को प्रतिदिन वन और पर्वत पर भेजने की परंपरा रही है। यह उनके आरोग्य के लिए थी। यदि समाज द्वारा पर्वत संरक्षित और सुरक्षित है तो प्रकृति ही नहीं, मानवता भी सुरक्षित है। पर्वतों की सुरक्षा से नदी, तालाब तथा अन्य जल स्रोत सुरक्षित रहते हैं। पर्वतीय सुरक्षा ही वनों को सुरक्षा देती है। इसलिए यह तिथि गोवर्धन पर्वत की प्रतीक पूजन के माध्यम से पर्यावरण को सुरक्षित रखने का संकल्प है। पर्वतों के संरक्षण में ही वनस्पति और मौसम का संतुलन निहित है। विशेषकर गाय का दूध, गो मूत्र, गोबर आदि में औषधीय गुण होते हैं। पशु आधारित कृषि के लिए ये जितने उपयोगी थे, उससे अधिक इनकी उपयोगिता आज भी अनुभव की जा रही है। समाज इनसे दूर न हो, पर्वत और पशुओं का महत्व समझे, इसी के प्रतीक रूप से गोवर्धन पूजन की परंपरा है।

भैया दूज : कुटुंब सशक्तिकरण

दीपावली के त्योहार का समापन भैया दूज या भाई दूज से होता है। इस दिन भाई अपनी बहन के घर जाकर भोजन करता है और भेंट देता है। रक्षाबंधन पर भाई अपने घर बहन को आमंत्रित करता है। पुराणों में इस तिथि के दो निमित्त बताए गए हैं। पहला, मृत्यु के देवता यम का अपनी बहन यमुना के घर जाना और दूसरा, नरकासुर वध के बाद भगवान श्रीकृष्ण का अपनी बहन सुभद्रा के घर जाना। यमुना और यम भाई-बहन हैं। इनके पिता सूर्यदेव हैं। भाई-बहन बचपन में बिछड़ गए थे।

अंत में यम ने अपनी बहन यमुना को खोज लिया, उसके घर जाकर भोजन किया और घोषणा की कि इस दिन जो भाई अपनी बहन के घर जाकर भोजन करेगा, उसे यमपुरी में कोई कष्ट नहीं होगा। यह तिथि भाइयों को संदेश है कि भले बहन का विवाह हो गया हो और वह दूसरे घर चली गई, पर उसकी चिंता करनी है। उसके घर जाकर उसके कुशल-क्षेम का पता लगाना और बहन के परिवार से भी समन्वय बनाना भाई दूज का संदेश है। यही कुटुंब का रूप है। अपनी किसी सफलता पर उत्सव मनाना, समृद्धि का आनंद मनाना तभी सार्थक है, जब पूरा परिवार, पूरा कुटुंब सहभागी हो।

यही इस पांच दिवसीय दीपोत्सव की सार्थकता है और यही इसका संदेश। पांच दिवसीय दीपोत्सव में समाज का ऐसा कौन-सा वर्ग है, जिससे किसी परिवार का संपर्क नहीं बनता। इसमें प्रत्येक समाज और व्यक्ति की भूमिका महत्वपूर्ण है। दीपोत्सव के दौरान फूल माला से लेकर मिट्टी के दीये, जूते-चप्पल, वस्त्र, आभूषण, बर्तन तक की खरीदारी होती है। दीपावली लिपाई, पुताई, सफाई आदि में समाज के प्रत्येक वर्ग समूह की सहभागिता ही नहीं, प्रकृति के साथ एकाकार होने का त्योहार भी है।

बाजरा खिचड़ी

सामग्री
 200 ग्राम बाजरा
50 ग्राम दाल (सर्दी में मोठदाल, गर्मी में चना दाल )
देसी घी आवश्यकतानुसार
 नमक स्वाद अनुसार

बनाने की विधि

सबसे पहले बाजरे को साफ कर उसे पानी के कुछ छींटें देकर ओखल में मूसल से भूसी उतारें और भूसी अलग कर लें।
 भूसी अलग करने के बाद 15-20 मिनट तक बाजरे को भिगोकर रखें। उसके बाद मूसल से अच्छे से कूटें।
दाल को भी बारीक कूट लें।
एक ओर चूल्हे या गैस पर बाजरे से चार गुना पानी उबालें। जब पानी उबल जाए तो कूटा हुआ बाजरा, दाल और नमक पानी में धीरे-धीरे डालते रहें और करछी से मिलाते रहें। ध्यान रहे गुठली न बनने पाए। इसे धीमी आंच पर पकाएं।
 खिचड़ी जितनी धीमी आंच पर पकेगी और करछी से घोंटी जाएगी खिचड़ी उतनी ही स्वादिष्ट होगी। जब खिचड़ी बन जाए तो इसे घी मिलाकर खाएं।

बाजरा पोहा

सामग्री
 एक कप बाजरा पोहा
 50 ग्राम टमाटर ल्ल 25 ग्राम मटर
एक—दो हरी मिर्च ल्ल 4-5 करी पत्ते
एक बड़ी चम्मच तेल ल्ल एक छोटी चम्मच राई
एक चुटकी हींग ल्ल एक चौथाई हल्दी पाउडर
 50 ग्राम प्याज ल्ल नमक स्वाद अनुसार

बनाने की विधि

 एक भगोने मेंं बाजरा पोहा धोकर 10 मिनट के लिए रखें। सब्जियां बारीक काट कर रख लें।
 एक कड़ाही में तेल गर्म करें और राई का तड़का लगाकर बारीक कटी सब्जियां भून लें।
सब्जियां पकने के बाद पोहा डालकर मिला लें। स्वादानुसार नमक डालें। कड़ाही को 2-4 मिनट तक ढक कर रखें। इसके बाद गरमा—गरम बाजरा पोहा परोसें।

बाजरा मुरमुरा भेल

सामग्री
एक कप बाजरा मुरमुरा ल्ल आधा कप अंकुरित मूंग
एक चौथाई कप अनारदाने ल्ल 50 ग्राम प्याज
50 ग्राम टमाटर ल्ल 10 ग्राम हरी धनिया
 एक चम्मच इमली चटनी

बनाने की विधि

प्याज और टमाटर को बारीक काट लें।
एक बड़े कटोरे में सभी चीज एक साथ मिला लें। भेल खाने के लिए तैयार है।

रागी रोटी

सामग्री
एक कप रागी आटा
 एक कप गर्म पानी
 आधा चम्मच नमक
आधा चम्मच तेल

बनाने की विधि

  1. कड़ाही में पानी गर्म कर नमक और तेल मिलाएं। फिर रागी का आटा लें और इसे गर्म पानी में डालें। इसे चम्मच की मदद से अच्छी तरह से मिला लें।
  2. आटा तैयार होने पर 4-5 बूंद तेल डालें और इसे अच्छी तरह से गूंथ लें। आटे की गोलियां बना कर उसे गोल बेलें।
  3. मद्धम आंच पर रोटी को सेंकें। जब एक तरफ से रोटी फूलने लगे तो उसे पलट कर फुलाएं।
    रागी के आटे की रोटी तैयार है। इसे किसी भी सब्जी के साथ खा सकते हैं।

कोदो खीर

सामग्री

एक कप कोदो ल्ल एक कप शक्कर
ढाई कप दूध ल्ल चार से छह धागे केसर
आधा कप सूखे मेवे ल्ल दो चम्मच देसी घी
एक चौथाई चम्मच इलायची पाउडर

बनाने की विधि

कोदो को अच्छी तरह धोकर धीमी आंच पर दूध और केसर डालकर पकाएं। जब कोदो पक कर गाढ़ा हो जाए तो उसमें शक्कर डालकर चम्मच से मिलाएं।
धीमी आंच पर पकने दें। एक कड़ाही में घी गरम करें और सूखे मेवे डालकर सुनहरा होने तक भूनें।
कोदो खीर के ऊपर मेवे डालकर सजाएं और इलायची डालकर उसका स्वाद बढ़ाएं और परोसें।

कढ़ी-बाजरा

बनाने की विधि

चार मुट्ठी बाजरा मिक्सी में डालकर उसका छिलका उतार लें। फिर बिना छिलके वाले बाजरे का मिक्सी में मोटा दलिया बना लें।
पतीले में बाजरे से तीन गुना पानी धीमी आंच पर चढ़ा दें। चार छोटी चम्मच देसी घी और छह चम्मच गुड़ वाली शक्कर मिला कर इसे पकने दें। बीच-बीच में इसे चलाते रहें पतीले में नीचे न लगे।
फिर घी, मेथी दाना, हींग, जीरे का छौंक लगाएं। ऊपर से लाल मिर्च का छौंक लगा कर मीठे-बाजरे के साथ इसे गरम-गरम खाने के लिए परोसें।

Topics: पाञ्चजन्य विशेषव्यक्तित्व निर्माणकुटुंब समन्वयसमाजिक समरसतापर्यावरण संरक्षण तथा राष्ट्र की समृद्धिरूप चतुर्दशीलक्ष्मी पूजनभैया दूजधनतेरसगोवर्धन पूजा
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