भारत में जनजातीय दर्शन और संस्कृति हिन्दू धर्म का अमरत्व है और हिंदुत्व की आत्मा है। जनजातीय दैवीय दर्शन में बड़ा देव अर्थात फड़ा पेन अर्थात महादेव का जो स्वरूप है वही सनातन में भगवान शिव के रूप में अनादि अखंड और अनंत माना गया है। बड़ा देव अर्थात फड़ा पेन के आलोक में जनजातीय अवधारणा – जय सेवा, जय बड़ा देव, जोहार, सेवा जोहार का मूल-कोयापुनेम (मानव धर्म और प्रकृति की शाश्वतता) में निहित है,जो” वसुधैव कुटुम्बकम् “के रूप में हिंदू धर्म में शिरोधार्य है।
विश्व में भारत से ही जनजाति समाज का आरंभ हुआ और उनके हमारे आदि देव एक ही हैं, अर्थात् अद्वैत है। हमारा मूल एक ही है, इसलिए बांटने की कोशिश सफल नहीं होगी। शम्भू महादेव दूसरे शब्दों में शम्भू शेक के आलोक में महादेव की 88 पीढ़ियों का उल्लेख मिलता है – प्रथम..शंभू-मूला, द्वितीय-शंभू-गौरा और अंतिम शंभू-पार्वती) ही हैं” शंभू मादाव (अपभ्रंश – महादेव) ही हैं। भारत में जनजातियों का सबसे बड़ा साम्राज्य गढ़ा कटंगा का गोंडवाना साम्राज्य रहा है। गोंडवाना साम्राज्य के महान शासकों ने हिंदू धर्म की मान्यताओं तथा रीति-रिवाजों को और समृद्ध किया है। जबलपुर को महान् गोंडवाना काल से ‘लघु काशी वृंदावन’ के नाम भी जाना जाता है, क्योंकि शैव और वैष्णव परंपरा यहां दिखती है। महान कलचुरियों द्वारा स्थापित शिवालयों को महान गोंडवाना साम्राज्य के महा प्रतापी राजाओं ने विशेष कर वीरांगना रानी दुर्गावती ने संवारा है।
भारत में हिंदू संस्कृति के मूल में जनजातीय नवरात्र परंपरा स्पष्ट दिखती है। विशेषकर गोंडवाना में हिंदुओं में समाहित जनजातियों की देवी उपासना पद्धति और स्थापित प्राचीन मंदिरों में जनजातीय परंपराएं दिखती हैं। भारत का हृदय स्थल महाकौशल है, जहां जनजाति संस्कृति की आत्मा बसती है। यही वह प्रांत है जहां आज भी जनजातीय समाज हिंदू संस्कृति के ऐक्य भाव को समाहित कर मां भगवती की उपासना करते हैं। पूजन पद्धति भले ही अलग हो लेकिन ऐसे कई मंदिर महाकौशल प्रान्त में मौजूद हैं,जहां सैकड़ों वर्षों से जनजाति अनवरत पूजन करने पहुंचते हैं। यहां सैकड़ों वर्षों से खेरमाई माता का पूजन हिंदू और जनजातीय मिलकर कर रहे हैं, जिसमें आज भी सनातन परंपरा का निर्वाह किया जाता है।
गोंड संस्कृति में खेरमाई माता का पूजन वर्षों से किया जा रहा है। इन्हीं मंदिरों में हिंदू नवरात्र पर्व पर विशेष आराधना करने पहुंचते हैं। खेरमाई माता मंदिर को पहले खेरो माता के नाम से जाना जाता था। जो ग्राम देवी के रूप में पूजी जाती हैं। बसाहट के अनुसार मंदिरों की स्थापना भी बढ़ती गई। जबलपुर में मां बड़ी खेरमाई मंदिर भानतलैया और मां बूढ़ी खेरमाई(खेरदाई) मंदिर चार खंबा में सैकड़ों वर्षो से जनजाति और हिंदू मिलकर पूजन कर रहे हैं। धीरे-धीरे उपनगरीय क्षेत्रों में भी खेरमाई माता की स्थापना की गई जिसे अब छोटी खेरमाई मंदिर के नाम से जाना जाता है। महाकौशल ही नहीं वरन पूरे भारत में आज भी जनजाति समाज हिंदू संस्कृति के मूल में होकर माँ दुर्गा की उपासना करते हैं। देखा जाए तो जनजातीय और हिंदू संस्कृति किसी भी दृष्टिकोण से पृथक नहीं हैं। भारतीय संस्कृति में देवी पूजा को मुख्य माना गया है और वही जनजातीय संस्कृति में प्रकृति पूजन के रुप शिरोधार्य है। यही कारण है कि जनजातीय प्रकृति की उपासना करते हुए वन प्रदेशों में रहे और शेष नगरीय क्षेत्रों में निवास करते हैं।
मंदिरों को कराया संरक्षित
जनजातीय प्रकृति पूजन को प्रधानता देते हैं लेकिन प्रकृति के तत्वों से ही मिलकर मूर्ति की स्थापना कर पूजन शुरू हुआ। महाकौशल के बड़े प्राचीन मंदिरों की बात करें तो यह कहीं न कहीं गोंड संस्कृति से जुड़ा रहा। यही कारण है कि जहां गोंड शासकों ने गोंडवाना साम्राज्य में कुआं, तालाब और बावड़ियों का निर्माण कर प्रकृति की उपासना की, वहीं मंदिरों का भी जीर्णोद्धार कराकर संरक्षित किया।
नवरात्र पर्व में जनजातीय समाज की उपासना पद्धति हिन्दू संस्कृति में प्रकृति के विविध रंग भरती है। हमारा मूल एक ही है, इसलिए अपकारी शक्तियों द्वारा बांटने का कुत्सित प्रयास कभी सफल नहीं होगी। पाश्चात्य विद्वानों और तथाकथित सेक्युलरों द्वारा जनजातीय समाज में मूर्ति पूजा का निषेध बताना मूर्खता है क्योंकि मूर्तियां निर्गुण की उपासना का प्रतीक हैं। गोंड समाज में खेरो माता, भील समाज में नवणी पूजा, कोरकू समाज में देव दशहरा, झारखंड में दसांय नृत्य से उपासना, मध्य प्रदेश के कट्ठीवाड़ा क्षेत्र में डूंगरी माता, गुजरात के जौनसार-बावर में अष्टमी पूजन, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में जइया पूजा, गुमला जिले में श्रीबड़ा दुर्गा मंदिर का पूजन प्रमाण हैं। आदिशक्ति का सर्वव्यापीकरण विशेष कर महाकौशल , बुंदेलखंड और विंध्य में खेरमाई के रूप में हुआ है जो गोंडवाना में खेरदाई के रूप में शिरोधार्य है और जबलपुर के मंदिरों और अन्यत्र अधिष्ठानों में स्थापित खेरदाई की प्रतिमाएं नवरात्र पर्व में मां भगवती के विविध स्वरूपों में पूजनीय हैं।
क्या कहता है संविधान
यह स्पष्ट है कि भारत की प्रत्येक जनजाति हिंदू है और किसी भी प्रकार से हिंदू धर्म से पृथक नहीं है। गौरतलब है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 में अनुसूचित जनजातियों को पृथक से परिभाषित नहीं किया गया है। अनुच्छेद 341 में यह उपबंध है कि राष्ट्रपति राज्य के राज्यपाल से परामर्श करके लोक अधिसूचना द्वारा उन जातियों, मूल वंशों या जनजातियों अथवा उनके भागों या उनमें के यूथों का उल्लेख करेगा, जिनको उस राज्य के संबंध में अनुसूचित जातियां समझ जाएगा। इसी प्रकार अनुच्छेद 342 के अधीन राष्ट्रपति राज्यपाल से परामर्श करके लोक अधिसूचना द्वारा उन जन जातियों या जनजाति समुदायों या उनके भागों या उनमें के यूथों का उल्लेख करेगा जिन्हें उस राज्य के संबंध में जन जातियाँ समझा जाएगा। विवेचना करने पर यह स्पष्ट है कि जनजातियों को अल्पसंख्यक अथवा अल्पसंख्यक धर्म अथवा अन्य किसी प्रकार से परिभाषित नहीं किया गया है और ना ही मान्यता दी है,क्योंकि जनजाति समाज को हिंदू माना गया है।
ईसाई मिशनरियां कर रहीं अधिकारों का दुरुपयोग
हिंदू धर्म से जनजातियों को पृथक करने के लिए ईसाई मिशनरी और विदेशी अल्पसंख्यकों ने भारतीय संविधान में मिले अधिकारों का दुरुपयोग किया है और कर रहे हैं । अनुच्छेद 342 के अनुसार जो सरंक्षण औऱ आरक्षण हिंदू जनजाति वर्ग को ध्यान में रख कर सुनिश्चित किया गया है उसका लाभ ईसाई और मुस्लिम विदेशी अल्पसंख्यक क्यों उठा रहे हैं ? एक अनुमान के अनुसार देश में जनजाति आरक्षण का लगभग 70 प्रतिशत लाभ मतांतरित हो चुके ईसाई या मुस्लिम लोग उठा रहे हैं। यह दोहरा लाभ उठा रहे हैं। इस दोहरे लाभ के आड़ में भोले -भाले जनजातीय समाज का मतान्तरण करा रहे हैं, जिस से हिंदू धर्म में आपसी संघर्ष औऱ अलगाव पैदा हो। इसलिए ईसाई मिशनरियों और विदेशी अल्पसंख्यकों के मकड़जाल को ध्वस्त करने के लिए डी-लिस्टिंग ब्रम्हास्त्र है, परंतु उसके पहले भारतीय संविधान से इन अल्पसंख्यकों का विशेष दर्जा समाप्त करना ही होगा।
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