भारतवर्ष का इतिहास बताता है कि कांग्रेस के नेता गत लगभग सौ साल से विनायक दामोदर सावरकर नाम से ही चिढ़ते आए हैं, उनका उपहास उड़ाते आए हैं। आश्चर्य है कि जिस पार्टी का एक भी नेता को कभी काले पानी की सजा के लिए अंदमान नहीं भेजा गया, उस पार्टी के नेतागण काले पानी की दोहरी सजा पाए सावरकर के तथाकथित माफीनामे को उछालकर उन्हें अंग्रेजों के सामने घुटने टेकने वाला बताते हैं! और तो और, जिन हुतात्मा की जीतेजी उन्होंने सिर्फ प्रताड़ना की और दुनिया से जाने के बाद भी उनकी अवहेलना ही की, उन सरदार भगत सिंह की दुहाई देकर ‘भगत सिंह वीर और सावरकर माफीवीर’ कहकर अपप्रचार ही करते हैं।
‘सावरकर ने अंदमान के बाद सशस्त्र क्रांति को त्याग दिया था’, ऐसा दुष्प्रचार काग्रेस के लोग बार-बार करते आए हैं। कांग्रेसी नेता कभी गांधी हत्या, कभी द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत, कभी भारत विभाजन, कभी तथाकथित पेंशन, तो कभी गोमांस भक्षण जैसे मुद्दों से लेकर सावरकर जी के व्यक्तिगत जीवन तक पर अनेक झूठे, बेबुनियाद, मनगढ़ंत, घृणास्पद आरोप लगाते आए हैं। यही लोग विभाजनकारी जिन्ना को ‘सेक्यूलर’ कहते हैं। अस्तु, अनेक विद्वानों ने कांग्रेस द्वारा समय-समय पर सावरकर पर लगाए ऐसे सभी आरोपों का सप्रमाण खंडन किया है।
सावरकर द्वेष की कांग्रेसी पृष्ठभूमि
कांग्रेस के अब तक के काल को मोटे तौर पर तीन कालखंडों में बांटा जा सकता है। पहला, लोकमान्य तिलक से पहले; दूसरा, तिलक के दौरान; और तीसरा, गांधी जी के बाद। दूसरे कालखंड में कांग्रेस के कुछ नेता राष्ट्रहित की बात करने वाले थे। तब कांग्रेस के एक छोटे से मंच से सावरकर बंधु की मुक्ति का प्रस्ताव भी रखा गया था। लेकिन जैसे ही लोकमान्य तिलक का देहांत हुआ, कांग्रेस गांधी जी के प्रभाव में बहकर सावरकर तथा सशस्त्र क्रांतिकारी देशभक्तों के प्रति विषवमन करने वाली पार्टी बनती गई।
गांधी, नेहरू का सावरकर जी के प्रति दृष्टिकोण आरंभ से ही विपरीत और पक्षपाती रहा। वीर सावरकर युवावस्था से ही व्यक्ति से वृत्ति में बदलते गए थे। इसका ताप गांधी जी 1909 में अनुभव कर चुके थे। इस प्रवृत्ति का विरोध करने हेतु उन्होंने ‘हिंद स्वराज’ पुस्तक की रचना की। 1921 में उक्त पुस्तक में गांधी जी लिखते हैं, ‘1909 में लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए जहाज पर हिंदुस्थानी हिंसावादी पंथकों और उसी विचारधारा के दक्षिण अफ्रीका के एक वर्ग को दिए जवाब के तौर पर यह लिखी गई है। मैं लंदन में रहने वाले हर एक नामी अराजकतावादी हिंदुस्थानी के संपर्क में आया था।’ (हिंद स्वराज, परिशिष्ट 3, पृष्ठ 299) इस उद्धरण का पहला वाक्य पुस्तक का उद्देश्य स्पष्ट कर देता है। यह सीधे-सीधे वीर सावरकर की ओर इशारा करता है। इस उद्धरण का महत्व इसलिए है क्योंकि, 1909 के मोहनदास गांधी 1921 में ‘महात्मा’ बनकर कांग्रेस के सर्वेसर्वा बन चुके थे। उन्हीं की छत्रछाया में कांग्रेस आगे चली।
इसी पृष्ठभूमि में यह भी स्पष्ट करना उचित रहेगा कि, सावरकर ने 1906 से 1910 तक लंदन में चले राष्ट्रीय व क्रांतिकारी आंदोलन में भारत के भिन्न-भिन्न प्रांतों से हिंदू, मुस्लिम, पारसी, ईसाई आदि पंथों के युवाओं, छात्रों को जोड़ा था। इस आंदोलन से जवाहरलाल नेहरू ने पर्याप्त दूरी बनाए रखी थी। मदनलाल ढींगरा के बलिदान का कैसा भी उल्लेख उनकी आत्मकथा में नहीं दिखता। सावरकर ‘हिंदुत्ववादी’ नहीं थे। वे तो हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे। फिर भी नेहरू ने उनसे दूरी बनाए रखी थी। वहीं नेहरू, गांधी जी की ‘अनुशंसा’ पर कांग्रेस के शीर्ष नेता बने और स्वाधीनता के पश्चात कांग्रेस के सर्वेसर्वा बन गए।
ब्रिटिश निष्ठा बनाम स्वतंत्रता के योद्धा
कांग्रेस आरंभ से ही ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति वफादार रही। गांधी जी स्वयं को ब्रिटिश साम्राज्य का ‘हितैषी’ मानते थे। उनका ब्रिटिशों पर और ब्रिटिशों का उन पर पूरा भरोसा रहा था। तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत ने गांधी जी के नाम के साथ ‘महात्मा’ बोलने का एक आदेश जारी किया था। तो ऐसे ब्रिटिश साम्राज्य से भारत को पूर्ण स्वतंत्र कराने का विचार करने वाले सावरकर आखिर कांग्रेस को कैसे रास आते! बचपन में ही सावरकर जी ने ब्रिटिश रानी को भारत की रानी मानने से इनकार किया था। सावरकर जी की दृष्टि में ‘ब्रिटिश शासन अच्छा है या बुरा, सवाल यह नहीं था’, बल्कि ‘भारत पर ब्रिटिशों का शासन होना ही लज्जास्पद था’। ऐसी विचारधारा वाले सावरकर जी से कांग्रेस अंग्रेजों से भी अधिक चिढ़ती थी।
व्यक्तिवाद बनाम राष्ट्रवाद
गांधी जी के उदय के पश्चात बहुनेतृत्व वाली कांग्रेस व्यक्ति केंद्रित हो गई। वह गांधी जी के इर्द-गिर्द घूमने लगी। गांधी जी के विरोध के कारण जिन्ना, सुभाष चंद्र बोस, एम.एन. राय, ना.भा. खरे आदि को कांग्रेस छोड़नी पड़ी या उन्हें कांग्रेस से निकाल दिया गया। कांग्रेस नेहरू, इंदिरा गांधी से लेकर आज राहुल गांधी तक, एक ही नेता के इर्द-गिर्द घूमती रही है। इसके विपरीत वीर सावरकर सदैव राष्ट्रनिष्ठ रहे। वे व्यक्ति को नहीं, विचार को महत्व देते थे। इसीलिए 1946 में ही वे हिंदू महासभा की सक्रिय राजनीति से दूर हो गए थे। स्वाधीनता के पश्चात भी वे चुनावी राजनीति से दूर रहे। हम जानते हैं, किसी भी व्यक्तिवादी सत्ता को विचारवादी संगठन से चिढ़ होती है इसलिए कांग्रेसी हिंदुत्व में रचे-पगे सावरकर से चिढ़ते हैं।
साधन बनाम ध्येय
गांधी जी कहते थे, ‘आजादी केवल और केवल अहिंसा के रास्ते चाहिए।’ इसका अर्थ है, ध्येय से अधिक साधन का महत्वपूर्ण होना, जिसे गांधी जी ‘साधन शुचिता’ कहते थे। इसलिए सशस्त्र क्रांतिकारी, यथा गोपीनाथ साहा से लेकर भगत सिंह तक, सभी शस्त्रधारी देशभक्त उन्हें अत्याचारी लगते थे। गांधी जी और नेहरू के लिए भी महाराणा प्रताप व छत्रपति शिवाजी जैसे वीरों का कोई मोल नहीं था। आज भी कांग्रेस की सोच उसी दायरे में कैद है। इसके ठीक विपरीत सावरकर जी साधन को नहीं, साध्य को महत्व देते थे। किसी भी साधन से, सत्याग्रह से लेकर शस्त्राचार तक से, उन्हें स्वराज्य स्वीकार्य था। वे शिवाजी, महाराणा प्रताप व गुरु गोविंद सिंह को अपना आदर्श मानते थे। उन्हीं के पदचिह्नों पर चलने की प्रतिज्ञा उन्होंने ली थी। इतना ही नहीं, उस पथ पर चलने के लिए हजारों देशभक्तों को उन्होंने सिद्ध किया था। यह सत्य जानते हुए सावरकर जी को स्वीकारना कांग्रेसियों के लिए संभव हो भी नहीं सकता था।
मुस्लिम तुष्टीकरण बनाम समानता
खिलाफत से लेकर वंदेमातरम गायनतक, तीन तलाक, समान नागरिक संहिता और अनुच्छेद 370 हटाने तक, कांग्रेसी नेता मुस्लिम तष्टीकरण की विषबेल को सींचते ही आए हैं। भारत विभाजन के पश्चात भी उनकी आंखें नहीं खुलीं। गांधी जी से लेकर आज राहुल गांधी तक, कांग्रेस का लगभग प्रत्येक नेता देश के संसाधनों पर मुस्लिमों का पहला अधिकार मानता आया है। ‘अहिंसा के पुजारी’ गांधी जी स्वामी श्रद्धानंद के मुस्लिम हत्यारे को ‘भाई’ कहकर संबोधित करते हैं। ‘मोपला में हिंदुओं पर अत्याचार नहीं हुआ’, ऐसा झूठ गांधी जी की कांग्रेस ने फैलाया था।
गांधी जी ने तो अत्याचारी मोपलाओं को ‘शूर’, ‘पंथनिरपेक्ष’ जैसे शब्दों से संबोधित किया था। वही परंपरा आज के कांग्रेसी बखूबी निभा रहे हैं। वे आतंकवादियों का खुलेआम पक्ष लेते हैं। उनके नाम के आगे ‘जी’ लगाते हैं। सावरकर ने मुसलमानों से कभी का द्वेष नहीं किया। वे उन्हें उनकी संख्या के अनुपात में अधिकार देने के हामी थे, लेकिन उससे ज्यादा देने के विरुद्ध थे। साथ ही वे मुस्लिमों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों, हिंसक व्यवहार को उजागर भी करते थे। यह बात मुसलमानों से अधिक कांग्रेस को खलती रही। इसलिए सावरकर जी से उन्हें अरुचि बनी रही है।
हिंदू विरोध बनाम हिंदू अस्मिता
केवल मुस्लिम तुष्टीकरण ही नहीं, अपितु हिंदुओं का सदा विरोध करना कांग्रेस के एजेंडे में सबसे आगे रहा है। नेहरू तो स्वयं को ‘दुर्घटनावश हिंदू’ कहते थे। तो आज की कांग्रेस को राम काल्पनिक तथा रामसेतु अस्तित्वहीन लगता है। पूर्वकालीन कांग्रेसियों को खुद को गर्व से हिंदू कहना अहंकार लगता था, तो आज के कांग्रेसियों को हिंदू ‘आतंकवाद’ लगता है। जहां भी हिंदू हित का सवाल आता है, कांग्रेसी उसके खिलाफ ही जाते हैं। इसके ठीक विपरीत सावरकर हिंदू अस्मिता व हिंदू हित के लिए डटकर खड़े रहे। उनकी पुस्तक ‘हिंदुत्व’, हिंदुत्व की मूलभावना का परिचय देती है। ‘हिंदू पदपादशाही’ राख से सिंहासन निर्माण करने वाली हिंदुओं की अमिट ऊर्जा का बोध कराती है। ‘हिंदू इतिहास के छह स्वर्णिम पृष्ठ’ महाग्रंथ हिंदुओं के गौरवशाली व विश्वविजयी इतिहास का बखान करता है। इतना ही नहीं, उनका अपना जीवन भी हिंदुत्व की गरिमामय गाथा रहा। वे कहते हैं, ‘अगर इंद्र का सिंहासन भी मेरी ओर दौड़कर आएगा तो भी पहले अहिंदू के तौर पर जीने से बेहतर मैं अंतिम हिंदू के रूप में मरना पसंद करूंगा।’ ऐसी प्रखर हिंदुत्वनिष्ठ विभूति से हिंदू विरोधी कांग्रेसियों को नफरत होगी ही।
अवसरवाद बनाम त्याग
कांग्रेस के नेताओं का पूरा जीवन अवसरवाद से भरा रहा है। बात चाहे स्वतंत्रता पूर्व की हो या बाद की। 1947 तक ‘भारत का विभाजन किसी भी सूरत मेें नहीं होने देंग’ कहने वाली कांग्रेस सत्ता हाथ आते देख विभाजन को तैयार हो गई। 1975 में सत्ता हाथ से निकलती देख आपातकाल लगाकर सत्ता बचाना उनका अवसरवाद ही दिखाता है। हिंदू वोट की एकजुटता देख ‘मैं भी जनेऊधारी हिंदू’ की गुहार लगाकर मंदिर-मंदिर जाकर फोटो खिंचवाना ‘युवराज’ की अवसरवादी प्रवृत्ति की ही निशानी है।
इसके विपरीत, त्याग से परिपूर्ण जीवन जीने वाले सावरकर बंधु सत्तापक्ष व सत्ता, दोनों से दूर रहे। वे न किसी शासकीय सम्मान के मोहताज रहे, न किसी शासकीय पद का मोह रखा। उनका वही तेज करोड़ों राष्टभक्तों आज भी असीम प्रेरणा देता है। इसलिए भी कांग्रेसी त्यागमूर्ति सावरकर जी के नाम से ही मुंह बनाते आए हैं। यह कांग्रेसियों की नफरत ही थी कि उन्होंने सावरकर जी को गांधी हत्या में आरोपी बनाया। न्यायालय ने उन्हें निर्दोष करार दिया, तो सावरकर जी की मृत्यु के पश्चात कपूर आयोग बिठाकर झूठा आरोप उनके सिर मढ़ने की कोशिश की।
भारत के एक अंग को काटकर बनाए पाकिस्तान के एक बड़े नेता के भारत आने पर ‘सावरकर बाहर रहेंगे तो दंगे भड़केंगे’ जैसा झूठा कारण देकर स्वतंत्र भारत की नेहरू सरकार ने 70 वर्षीय, राजनीति से निवृत्त सावरकर जी को बंदी बनाया था। उनकी मृत्यु के पश्चात तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली संसद ने उनके प्रति शोक प्रस्ताव पारित करने से इनकार किया था। इसलिए ध्यान रहे, राहुल गांधी, दिग्विजय सिंह, मणिशंकर अय्यर जैसे कांग्रेसी नेता कुछ अलग व्यवहार नहीं कर रहे हैं। यह तो उनके पुरखों की परंपरा ही है।
निशाने पर सावरकर क्यों
कांग्रेस के नेताओं और वामपंथियों को सावरकर से ऐसा भय है कि वे उन्हें हर जगह दिखाई देते हैं। वे जब स्वतंत्रता आंदोलन की बात करते हैं, तब गांधी-नेहरू से कई साल पहले स्वातंत्र्यलक्ष्मी की निर्भीक व निडर जयकार करते सावरकर ही नजर आते हैं। स्वाधीनता हेतु कारावास की बात करते हैं, तब भी किसी भी कांग्रेसी से कई गुना ज्यादा सजा काटने वाले सावरकर ही सामने दिखते हैं। वे जब अस्पृश्यता निवारण, समानता की बात करते हैं तब भी पहले सावरकर को ही पाते हैं।
वे विभाजन के आरोपों से बचने की कोशिश करते हैं, तब सावरकर ही अखंड हिंदुस्थान की मशाल लिए खड़े दिखते हैं। वे गलत इतिहास थोपने लगते हैं, तब इतिहासकार सावरकर उनके झूठे इतिहास की धज्जियां उड़ाते दिखते हैं। इतना ही नहीं, काव्य, उपन्यास, नाट्य, भाषा आदि सभी विधाओं से सज्ज साहित्यकार सावरकर की प्रतिभा उनके अराष्ट्रीय, हिंदूविरोधी मंसूबों को तार-तार कर देती है। बस यही कारण है कि कांग्रेसियों के निशाने पर सावरकर ही रहे हैं।
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