अफगानिस्तान में हिंदू धर्म का आगमन कब और कैसे हुआ, इस बारे में इतिहासकारों के बीच स्पष्ट जानकारी नहीं है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि हिंदू कुश क्षेत्र का संबंध सिंधु घाटी सभ्यता से है, जो भारतीय उपमहाद्वीप की प्राचीन संस्कृति का हिस्सा है। 1970 के दशक में, अफगानिस्तान में हिंदू और सिख समुदाय का एक महत्वपूर्ण आकार था। उस समय लगभग 2 लाख हिंदू और सिख देश में निवास कर रहे थे।
यह संख्या इस बात का संकेत देती है कि अफगानिस्तान में हिंदू संस्कृति और धर्म की एक समृद्ध विरासत थी। 1980 के दशक में, हिंदू व्यापारिक समुदाय भी सक्रिय था, जो व्यापार और व्यवसाय के जरिए समाज में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा था।
हालांकि, 1990 के दशक में तालिबान के शासन के बाद हिंदू और सिख समुदाय की स्थिति में अचानक गिरावट आई। तालिबान के शासन ने धार्मिक असहिष्णुता को बढ़ावा दिया, जिसके कारण कई हिंदू और सिख अपने देश को छोड़ने के लिए मजबूर हुए। परिणामस्वरूप, 2020 तक, अफगानिस्तान में हिंदू समुदाय की संख्या घटकर केवल लगभग 50 रह गई, जबकि सिखों की संख्या लगभग 650 थी।
पिछले 30 वर्षों में, लगभग 99 प्रतिशत अफगान हिंदू और सिख अपने देश को छोड़ चुके हैं। इनमें से कई लोगों ने भारत, जर्मनी और अमेरिका जैसे देशों में शरण ली। यह स्थिति न केवल अफगानिस्तान के लिए एक बड़ा नुकसान है, बल्कि यह उस विविधता और सांस्कृतिक धरोहर को भी दर्शाती है, जो कि अफगानिस्तान में हिंदू और सिख समुदाय ने कई सदियों तक बनाए रखी थी।
अफगानिस्तान में हिंदू समुदाय की स्थिति, उनके समर्पण और संघर्ष को समझने के लिए यह महत्वपूर्ण है कि हम इस ऐतिहासिक यात्रा को जानें और उसके प्रभाव को समझें। इस समुदाय की कहानी हमें यह भी सिखाती है कि कैसे धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता को संरक्षित करना और उसका सम्मान करना आवश्यक है, ताकि सभी समुदायों को समान अधिकार और सम्मान मिले।
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