भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात पिछले दिनों कही। उन्होंने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका “जनता के न्यायालय” की है और उसे वही रहने देना चाहिए। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय संसद में विपक्ष की भूमिका का पालन करने लगे।
गोवा में एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में उन्होंने इस बात पर बल दिया कि यह न्यायालय की भूमिका नहीं है कि वह संसद के विपक्ष की आवाज बने। उन्होंने कहा कि जब उन्होंने कार्यभार संभाला सर्वोच्च न्यायालय को जनता का न्यायालय बनाने का हमेशा प्रयास किया। उन्होंने यह भी बताया कि कैसे उनके प्रयासों से कई प्रक्रियाएं भी सरल हुई हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने तकनीक के प्रयोग से और विभिन्न प्रक्रियाओं को आसान बनाकर पुराने तरीकों को साफ करने की कोशिश की। इसमें रोजमर्रा के कार्य जैसे कोर्ट पास प्राप्त करना, ई-फाइलिंग और ऑनलाइन उपस्थिति शामिल है।
सीजेआई चंद्रचूड़ ने यह भी कहा कि जैसे-जैसे समाज तरक्की करता है और समृद्धि बढ़ती है, वैसे-वैसे एक आम धारणा यह है कि आपको केवल बड़े लोगों की तरफ ध्यान देना है। मगर सर्वोच्च न्यायालय ऐसा नहीं है। हमारा न्यायालय वह है जहां पर जनता आ सके और न्यायालय की यही भूमिका बनी रहनी चाहिए। मगर जो उसके बाद सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा, वह सबसे महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि अब, जनता की अदालत होने का मतलब यह नहीं है कि हम संसद में विपक्ष की भूमिका निभाते हैं। जब लोगों के पक्ष में निर्णय आता है तो लोगों को लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय बहुत शानदार संस्थान है और जैसे ही उनके विरोध में निर्णय आता है तो उन्हें वही संस्थान ऐसा लगने लगता है जिसकी निंदा की जानी चाहिए। यह खतरनाक है। क्योंकि आप सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका, उसके कार्य को परिणामों के परिप्रेक्ष्य में नहीं देख सकते हैं।
मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने यह भी कहा कि न्यायालयों की आलोचना भी होनी चाहिए, यदि कानूनी दृष्टि से कोई विसंगति पाई जाती है तो और न्यायाधीशों को भी कोई समस्या नहीं होती है। मगर समस्या तब होती है जब अपने पक्ष में आए निर्णय को लेकर लोग न्यायालय की प्रशंसा करते हैं और अपने खिलाफ आए निर्णय को लेकर उसी न्यायालय की आलोचना। सीजेआई चंद्रचूड़ ने राजभवन में गोवा के राज्यपाल पी एस श्रीधरन पिल्लई द्वारा संकलित और संपादित Traditional Trees of Bharat पुस्तक का विमोचन भी किया।
मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने जो बात कही है उस पर भारत के लेखक और पत्रकार वर्ग को गौर करना चाहिए। आम तौर पर यह कहा जाता है कि लेखक या पत्रकार का कार्य सत्ता का विपक्ष होना है। मगर सत्ता का विपक्ष होने का अर्थ विपक्ष की आवाज नहीं होता। एक लेखक या पत्रकार को सत्ता का विपक्ष होने के स्थान पर जनता का पक्ष होना चाहिए। उसे जनता की आवाज होनी चाहिए।
सत्ता का विपक्ष होने के नाम पर लेखक और कथित पत्रकार केवल भाजपा सरकारों का ही विरोध करते दिखाई देते हैं। यह भी महत्वपूर्ण है कि जब सत्ता केंद्र में अलग पार्टी की हो, राज्यों में अलग पार्टी की हो पंचायत स्तर पर अलग पार्टी की होती है। हर जगह सत्ता अलग है। सता एकमुखी नहीं होती है कि एक दल का विरोध ही सत्ता का विरोध मान लिया जाए।
यह भी सत्य है कि गैर-भाजपा सरकार के दौरान जनता का पक्ष कहने का दावा करने वाले लेखक और पत्रकार अब सत्ता का विपक्ष होने का दावा करने लगे हैं। मगर कौन सी सत्ता? क्या यह सत्ता किसी भी प्रकार की बेईमानी या छल से प्राप्त की गई है? क्या सत्ता का विपक्ष होने का दावा करने वाले लेखक और पत्रकार बंगाल, तमिलनाडु या केरल में सत्ता का विपक्ष हैं? सीजेआई चंद्रचूड़ की यह बात महत्वपूर्ण है कि जनता का न्यायालय होने का अर्थ संसद में विपक्ष होना नहीं है। मगर भारत के कथित लेखक और पत्रकार संसद के विपक्ष की आवाज बन गए हैं, मगर केवल केंद्र की सरकार के खिलाफ या जहां पर भाजपा सरकार है उस सरकार के खिलाफ। जहां पर गैर भाजपाई सरकार है, वहां पर सत्ता का विपक्ष वे नहीं बन पाए हैं। कर्नाटक में जब किसान आत्महत्या करते हैं, तो वहां पर राज्य सरकार की सत्ता का विपक्ष नहीं बनते हैं, और न ही तमिलनाडु में आई बाढ़ के कारण उत्पन्न समस्याओं को दिखाते हैं।
आखिर इन समस्याओं से क्या वहां की जनता परेशान नहीं हो रही है? या फिर कथित सत्ता का विपक्ष होने का दावा करने वालों को यह डर है कि ऐसा करने से विपक्षी भाजपा को लाभ होगा? लेखक और पत्रकार जो जनता का पक्ष होते थे, जो जनता की समस्याओं को बिना राजनीतिक और वैचारिक दुराग्रह के उठाने का दावा करते थे, वे जनता का पक्ष होने के स्थान पर संसद में विपक्षी दलों के पक्ष में हवा क्यों बनाने लग गए हैं? और वह भी इस सीमा तक कि संसद में विपक्षी दलों की राज्य सरकारों में जनता को हो रही परेशानियों को उठाना ही भूल गए हैं। ऐसे में माननीय सीजेआई चंद्रचूड़ का यह कथन उन लेखकों और पत्रकारों को भी ध्यान में रखना चाहिए कि जनता का न्यायालय होने का अर्थ संसद में विपक्ष की भूमिका नहीं है।
लेखक और पत्रकार भी जब जनता का पक्ष होने का दावा करें तो उन्हें यह ध्यान में रखना चाहिए कि उनकी भूमिका भाजपा सरकार के विरोध में संसद के विपक्ष की भूमिका निभाना नहीं है, बल्कि अपने माध्यमों से उस जनता की आवाज उठाना है, जो परेशान है और जो कष्ट में है और जो अपनी बात कहना चाहती है।
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