संस्कृति

अशुभ को शुभ में बदल देती हैं अहोई माता, जानिये क्या है कहानी

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पूनम नेगी

भारत में पर्वों, त्योहार और व्रतों की संस्कृति है। ये पर्व समाज में समरसता और उल्लास के बीज बोते हैं। हिन्दू धर्म का ऐसा ही एक व्रत है अहोई अष्टमी। शिवरात्रि, सकटचौथ व गणेश चतुर्थी की भांति अहोई अष्टमी का व्रत भी समूचे देश खासकर पश्चिम व उत्तर भारत में काफी लोकप्रिय है।‘अहोई’ शब्द से तात्पर्य है अशुभ या अनहोनी को शुभ में बदलने वाली शक्ति। संतान की मंगलकामना और उज्जवल भविष्य के लिए सनातनी हिन्दू धर्मावलम्बी माताओं द्वारा कार्तिक कृष्ण अष्टमी की तिथि को ‘अहोई माता’ के रूप में जगजननी मां पार्वती के व्रत व पूजन की परम्परा परिवारों में पौराणिक काल से चली आ रही है।

कार्तिक महीने में सुहागिनों के महापर्व करवाचौथ के ठीक चार दिन बाद पड़ने वाली अष्टमी तिथि को हिन्दू परिवारों की माताएं दिनभर निर्जल उपवास रखने के बाद और सायंकाल में तारे दिखाई देने के बाद अहोई माता का विधिपूर्वक पूजन करती हैं। इस बार अहोई अष्टमी 24 अक्टूबर 2024 को है। मान्यता है कि इस व्रत को करने वाली माताओं को तो उत्तम संतान सुख का वरदान मिलता मिलता ही है; सच्ची भाव भक्ति से प्रसन्न होकर ‘अहोई माता’ निसंतान माताओं की झोली भी खुशियों से भर देती हैं। इस बार यह व्रत पर्व 24 अक्टूबर को है। यह व्रत दीपावली से ठीक एस सप्ताह पूर्व आता है। जानना दिलचस्प हो कि प्राचीन काल में सात दिवसीय प्रकाश पर्व का शुभारम्भ इसी तिथि से होता था जो कालांतर में पांच दिवसीय हो गया।

पर्व का रोचक पौराणिक कथानक

इस व्रत से एक अत्यन्त रोचक पौराणिक कथानक जुड़ा है। कथा के अनुसार एक गांव में एक साहूकार अपनी पत्नी व सात पुत्रों के साथ रहता था। एक बार कार्तिक माह में उसकी पत्नी मिट्टी खोदने जंगल में गयी। वहां उसकी कुदाल से भूलवश एक पशु शावक (स्याहू के बच्चे) की मौत हो गयी। उस घटना के बाद उस औरत के सातों पुत्र एक के बाद एक मृत्यु को प्राप्त हो गये। अपने सात पुत्रों की अकाल मौत से दुखी उस महिला ने जब अपना दर्द गांव के पंडित को बताया तो उन्होंने उस दुखियारी माँ को आदिशक्ति माँ पार्वती के व्रत-पूजा करने की सलाह दी। तब उस महिला ने पुरोहित के कहे अनुसार कार्तिक माह के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि के दिन पूर्ण विधि विधान से निर्जला उपवास कर पूर्ण भाव भक्ति से अहोई माता का व्रत-पूजन किया। कथा कहती है कि माता के आशीर्वाद से चमत्कारिक रूप से उसकी सभी मृत संतानें फिर जीवित हो गयीं। तभी से संतान की मंगलकामना के लिए माताओं द्वारा इस व्रत पूजन की परम्परा शुरू हो गयी और अनहोनी को होनी में परिवर्तित कर देने के कारण माँ पार्वती ‘अहोई माता’ के रूप में पूजी जाने लगीं।

व्रत-उपवास की पूजन विधि

कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी यानी अहोई अष्टमी के दिन माताएं सूर्योदय से पूर्व उठकर सर्वप्रथम फल खाती हैं; वैसे ही जैसे करवाचौथ पर ‘सरगी’ खाने की परम्परा है। तत्पश्चात सूर्योदय के पूर्व नित्य क्रियाओं से निवृत हो नहाने-धोने के उपरांत सूर्योदय के बाद अहोई माता का पूजन कर व्रत का संकल्प लिया जाता है। संध्या के समय सूर्यास्त होने के बाद जब तारे निकलने लगते हैं तो अहोई माता की पूजा प्रारंभ होती है। पूजन के लिए सबसे पहले जमीन को स्वच्छ कर पूजा के लिए अष्ट कोण का चौक पूरा जाता है। फिर उस चौक में अहोई माता के साथ ‘स्याऊ’ व उसके बच्चे की आकृति का अंकन किया जाता है। तदोपरान्त जल से भरा कलश व प्रज्वलित दीप स्थापित कर गेहूं इत्यादि खाद्यानों से भरी थाली माता के सामने अर्पित की जाती है। फिर विधिपूर्वक अहोई माता का पूजनकर व्रत कथा कह कर आरती की जाती है। फिर में चौक पर अक्षत व दूब घास से गोदुग्ध के छींटे देकर माता को हलवा, पूड़ी व चना, फल इत्यादि का भोग प्रसाद अर्पण कर चन्द्रमा को अर्घ्य देने के बाद संतानों समेत परिवार के सभी सदस्यों को प्रसाद वितरित कर व्रत का पारण किया जाता है। हांलाकि अहोई माता के व्रत पूजन की इस पुरातन विधि में समय व सुविधाओं को देखते हुए तमाम बदलाव दिखायी देने लगे हैं।

भगवान श्रीकृष्ण ने दिया था वरदान

श्रद्धालुओं की मान्यता है कि जो निःसंतान दम्पति अहोई अष्टमी के दिन मध्यरात्रि को एक दूसरे का हाथ पकड़कर मथुरा के राधा कुंड में एक साथ डुबकी लगाते हैं, माता रानी उनके जीव में खुशियां भर देती हैं। मथुरा के राधा कुंड के प्रति इस प्रगाढ़ जनआस्था के मूल में एक पौराणिक किंवदंती है। कहा जाता है कि द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने मथुरा में राधा कुंड और श्याम कुंड का निर्माण कर ब्रजवासियों की श्रद्धाभक्ति से प्रसन्न हो यह आशीर्वाद दिया था कि कार्तिक कृष्ण की अष्टमी तिथि की अर्द्धरात्रि को जो भी श्रद्धालु सच्चे मन से राधाकुंड में स्नान करेगा उसकी सभी अतृप्त कामनाएं पूर्ण हो जाएंगी। तभी से कार्तिक माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मथुरा के राधाकुंड पर विशेष स्नान पर्व मनाया जाता है और निःसंतान दंपति इस कुंड में डुबकी लगाकर वंश वृद्धि का वरदान प्राप्त करते हैं।

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