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महर्षि वाल्मीकि की रामायण: भारतीय संस्कृति पर अमिट छाप और विश्वव्यापी प्रभाव

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श्री दत्तोपंत ठेंगडी के अनुसार – “वाल्मीकि रामायण का प्रभाव भारतवासियों के जीवन पर, आचारों पर, विचारों पर, कर्मों पर, व्रतों पर, नियमों पर तथा कल्पनाओं तक पर बहुत गहरा अंकित हुआ दिखाई देता है। भारतीय हृदय में पितृ-पूजन के, वधु-भावना के, यति या सती धर्म के, तप-त्याग के, लोकसेवा के, समाज-संगठन के, लोकसंग्रह के, जाति या देश हित के, न्याय तथा सर्वोत्तम शासन के आदर्श श्रीराम ही माने जाते है। हमारे लिए धार्मिक दृष्टि से भी शुभ कर्मो के लिए परम पावत प्रतीक वाल्मीकि रामायण में वर्णित रामचन्द्र है।

वस्तुतः भारतीय संस्कृति एवं धर्म के रक्षक के रूप में अपनी कृति के माध्यम से महर्षि वाल्मीकि आज भी प्रभावशाली एवं आकर्षक व्यक्तित्व की प्रतिमा बन कर हमारे समक्ष उपस्थित है।

आदिकाव्य ‘रामायण’

रामायण संस्कृत भाषा के काव्यों में सबसे प्रथम रचना मानी जाती है अतः यह आदि काव्य भी है। वाल्मीकि रामायण में भी इस काव्य को आदिकाव्य कहा गया है।

रामायण आदि काव्य है इसकी पुष्टि वाल्मीकि के बाद के कवियों ने भी की है। महाकवि कालिदास ने रामायण को ‘पहली कविता’ के रूप में स्वीकार किया है।” करूण रस के कवि भवभूति ने रामायण को आदि काव्य स्वीकार करते हुये ‘मा निषाद प्रतिष्ठा पद’ को लक्ष्य करके उत्तर रामचरित में लिखा है कि वेद से अन्यत्र भी छन्द का नया आविर्भाव हो गया। भवभूति ने वाल्मीकि को आदि कवि की संज्ञा दी है। आनन्दवर्धन ने अपनी कृति में वाल्मीकि को आदि कवि कहा है।

सभी विद्वानों ने भी वाल्मीकि को आदिकवि और उनकी कृति रामायण को आदिकाव्य माना है। डा० रामस्वामी इस विषय में लिखते है कि वाल्मीकि निःसंदेह आदि कवि हैं, वे प्राचीनतम एवं श्रेष्ठतम कवि है। सवसम्मति से वाल्मीकि आदिकवि ओर उनकी कृति रामायण आदि काव्य के रूप में प्रतिष्ठित है।

रामायण में सात खण्ड हैं। वे इस प्रकार है– बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, युद्धकाण्ड, एवं उत्तरकाण्ड। इस कृति में २४००० श्लोक, ५०० सगर एवं १०० उपाख्यान है।

रामायण का नामकरण –

रामायण पद रामस्य अयनम से निर्मित है। रामायण का अर्थ राम का मार्ग या राम के जीवन मार्ग को प्रकाशित करने वाला काव्य रामायण है।

वाल्मीकिकृत रामायण के तीन पाठ

वाल्मीकिकृत रामायण का पाठ एकरूप नहीं है। आजकल इस रचना के तीन पाठ प्रचलित हैं-

  • दाक्षिणात्य पाठ: गुजराती प्रिंटिंग प्रेस (बम्बई), निर्णय सागर प्रेस (बम्बई) तथा दक्षिण के संस्करण। यह पाठ अपेक्षाकृत अधिक प्रचलित और व्यापक है।
  • गौडीय पाठ : गोरेसियो (पैरिस) तथा कलकत्ता संस्कृत सिरीज के संस्करण|
  • पश्चिमोत्तरीय पाठ: दयानन्द महाविद्यालय (लाहौर) का संस्करण, जो आजकल साधु आश्रम, होशिआरपुर (पंजाब) से प्राप्त है|

प्रत्येक पाठ में बहुत से श्लोक ऐसे मिलते हैं जो अन्य पाठों में नहीं पाये जाते। दाक्षिणात्य तथा गौडीय पाठों की तुलना करने पर देखा जाता है कि प्रत्येक पाठ में श्लोकों की एक-तिहाई संख्या केवल एक ही पाठ में मिलती है। इसके अतिरिक्त जो श्लोक तीनों पाठों में पाए जाते हैं उनका पाठ भी एक नहीं है और इनका क्रम भी बहुत स्थलों पर भिन्न है|

इन पाठान्तरों का कारण यह है कि वाल्मीकिकृत रामायण प्रारंभ में मौखिक रूप से प्रचलित थी और बहुत काल के बाद भिन्न-भिन्न परम्पराओं के आधार पर स्थायी लिखित रूप धारण कर सकी। फिर भी कथानक के दृष्टिकोणों से तीनों पाठों की तुलना करने पर सिद्ध होता है कि कथावस्तु में जो अंतर पाए जाते हैं वे गौण हैं।

महर्षि वाल्मीकि की ‘रामायण’ का विश्वव्यापी प्रभाव

द्वितीय सरसंघचालाक गोलवलकर जी के अनुसार- “भारतवर्ष के लोगो के सम्मुख प्रभु रामचन्द्र का जीवन एक आदर्श पुरुष, मानव-सामर्थ्य के लिए जो सर्वोत्तम उन्नति सम्भव हो सकती है, उसे मर्यादा पुरुषोतम के रूप में अंकित किया गया है। रामचरित्र के महान्‌ गायक वाल्मीकि ने प्रभु रामचन्द्र के अवतार पर विश्वास होते हुए भी बहुत प्रयत्नपूर्वक उनको अद्भुत, रहस्यमय एवं दैवी शक्तियों से युक्त अवतार के रूप में चित्रित नहीं किया है, अपितु मानवीय गुणो, मानवीय भावनाओं तथा मानवीय सामर्थ्य-सम्पन्न एक मनुष्य के रूप में प्रस्तुत किया है।

विश्व के अलग-अलग देशों में राम की अलग-अलग कथाएं प्रचलित हैं। कहीं पर राम की कथा मौरीसस की राम कथा का रूप ले लेती है तो कहीं पर किसी अन्य देश की राम कथा के रूप में वह अपना महत्त्व बनाए हुए है। ए. के. रामानुजन के अनुसार- “रामायणों की संख्या और पिछले पच्चीस सौ या उससे भी अधिक सालों से दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्व एशिया में उनके प्रभाव का दायरा हैरतनाक है। जितनी भाषाओँ में रामकथा पायी जाती है, उनकी फेहरिस्त बताने में ही आप थक जाएंगे : अन्नामी, बाली, बंगाली, कम्बोडियाई, चीनी, गुजराती, जावाई, कन्नड़, कश्मीरी, खोटानी, लाओसी, मलेशियाई, मराठी, ओडिया, संस्कृत, प्राकृत, संथाली, सिंहली, तमिल, तेलुगु, थाई, तिब्बती- पश्चिमी भाषाओँ को छोड़कर यह हाल है”। वस्तुतः रामकथा के अलग-अलग अनुवाद होते गए और कालांतर में अनेक देशों में वहाँ की संस्कृति और परिवेश के अनुकूल रामकथा अपना रूपाकार लेती गई और वहाँ के लोक जीवन में रच बस गई।

 

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