आज शायद ही ऐसा कोई भारतीय मिले, जो महर्षि वाल्मीकि के महाकाव्य ‘रामायण’ से परिचित न हो। ‘रामायण’ मानवीय आदर्शो का मार्गदर्शक महाकाव्य है, इसीलिए उसे मानवीयता का पथ-प्रदर्शक आदर्श काव्य माना जाता है। सारे संसार में समादरणीय बने इस महाकाव्य के लिए हर भारतीय अभिमान का अनुभव करे तो कोई आश्चर्य नहीं। संसार भर में सबसे प्राचीन महाकाव्य ‘रामायण’ को आदिकाव्य होने का गौरव प्राप्त होना स्वाभाविक है।
इसी कारण भगवान् श्री रामचंद्र के साधना चरित्र से जनता-जनार्दन परिचित हो सकी। रामभक्ति के प्रचार-प्रसार के मूल में यही महाकाव्य समस्त विश्व में प्रतिष्ठित हुआ है। वाल्मीकि के रस महाकाव्य ने अनेक व्यक्तियों को रामभक्ति की प्रेरणा दी, जीवन को सार्थक बनाने का अवसर दिया। इसी आदिकाव्य से अभिभूत होकर अनेक कवियों ने भारत भर में प्रचलित अपनी-अपनी भाषाओं में रामकथापरक काव्य, महाकाव्य और नाटक लिखे। संत तुलसीदास का ‘रामचरितमानस’, संत एकनाथ का मराठी में लिखा ‘ भावार्थ रामायण’ या समर्थ रामदास का ‘युद्धकांड’- सबका आधार रामायण है। इस प्रकार के अन्यान्य काव्यों की भी एक लंबी परंपरा है।
आदिकवि महर्षि वाल्मीकि
वाल्मीकि रामायण में वाल्मीकि को राम के समकालीन बताया गया है। आदिकवि वाल्मीकि एक श्रेष्ठ ऋषि, बुद्धिमान पंडित, लोक कल्याण के इच्छुक, तपस्वी, नीतिज्ञ, दयालु, कर्तव्यनिष्ठ, धर्मज्ञ, भारतीय संस्कृति के रक्षक एवं आदर्श राज्य की स्थापना के लिए प्रेरणा के स्रोत के रूप में जाने जाते हैं। महर्षि वाल्मीकि के व्यक्तित्व के विषय में विद्वानों के मत इस प्रकार हैं-
महाकवि कालिदास ने ‘कृतवाग्द्वारे वंशऽस्मिन्-पूर्वसूरिभिः’ लिखकर वाल्मीकि को वाणी का द्वार खोलने वालों में अग्रगण्य अर्थात् आदि कवि एवं कवियों के मार्ग-दर्शक के रूप में माना है।
प्रसिद्ध काव्य शास्त्री आनन्दवर्धनाचार्य ने महषि वाल्मीकि को शोक एवं श्लोक का समीकरण करने वाला श्रेष्ठ समालोचक माना है।
वाचस्पति गेरोला ने वाल्मीकि के विषय में लिखा है कि वे आदि कवि, महाकवि, धर्माचार्य और सामाजिक जीवन की बारीकियों के ज्ञाता सभी कुछ एक साथ थे, वे गम्भीर आलोचक भी थे।
डा० नानूराम व्यास ने लिखा है कि वाल्मीकि ऋषि समाज के अग्रगण्य तपस्वी, साधक, वेद वेदांगों के परिनिष्ठित विद्वान्, रस सिद्ध कवीश्वर, तत्कालीन भारत के मानचित्र के सम्यक ज्ञाता, सामाजिक प्रथाओं एवं मर्यादाओं के संस्थापक और व्याख्याकार सत्य और न्याय के समर्थक, धर्म के स्तम्भ एवं लोकानुरञ्जन के प्रबल हिमायती थे।
द्वितीय सरसंघचालाक गोलवलकर जी के अनुसार – “वाल्मीकि ने मानवीय विकास की चरम सीमा तक मानवी गुणों के अनुपम आदर के रूप में प्रभु रामचन्द्र को, मानवीय गुणों से युक्त एक मानव के रूप में ही प्रस्तुत किया। उनकी माता-पिता के प्रति भक्ति, भाइयों के प्रति स्नेह, पत्नी के प्रति प्रेम-उसकी करुणा और विशुद्धता में–सबके प्रेम का विषय बन गया है। ये और प्रतिदिन के मानव-जीवन के अन्यान्य पक्षों को इतने उत्कृप्ट रूप में रखा गया है कि जिनसे स्फूर्ति ग्रहण कर सर्वसाधारण मनुष्य अपने दैनिक जीवन को उस उज्जवल आदर्श के अनुसार ढाल सके तथा उन्नत कर सकें। जिन कठिनाइयों से वे पार निकले, माता-पिता तथा बाद मे अर्धांगिनी के विंयोग का दुख सहन किया और अंत में पाप एवं अधर्म की शक्तियों पर उन्होंने जो विजय प्राप्त की, उससे हमारे हृदय में आशा की लहर पंदा होती है, विश्वास का अंकुर उगत्ता है। अदम्य साहस की स्फूर्ति प्राप्त होती है और समस्त आपत्तियों से लोहा लेकर, उन पर विजय प्राप्त कर इस पृथ्वी पर अपने को ईश्वरीय प्रतिमा के अनुरूप हम बना सकते है।“
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