छत्तीसगढ़

अबूझमाड़ में आखिरी लड़ाई!

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राजीव रंजन प्रसाद

गत 4 अक्तूबर को सुरक्षाबलों को बस्तर संभाग के अंतर्गत जारी अपने अभियान में तब सबसे बड़ी सफलता मिली, जबअबूझमाड़ में थुलथुली और नेंदुर गांव के बीच दोपहर के एक बजे सटीक सूचना के आधार पर बड़ी संख्या में माओवादियों को घेर लिया गया। सुरक्षाबलों के पास यह जानकारी थी कि नक्सलियों के प्लाटून नंबर 6, प्लाटून नंबर 16, ईस्ट बस्तर डिवीजन के साथ-साथ इंद्रावती एरिया कमेटी के दर्जनों नक्सली एक स्थान पर किसी बैठक के लिए उपस्थित हुए हैं। इस अभियान में पुलिस के डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड (यानी डीआरजी, जिसमें बड़ी संख्या में पूर्व माओवादी हैं) के साथ-साथ एसटीएफ के जवान भी शामिल थे। देर शाम तक स्पष्ट हुआ कि 32 माओवादी न केवल मारे गए, बल्कि घटनास्थल से एके-47 राइफल, एसएलआर, एलएमजी जैसे घातक हथियार भी मिले। घटनास्थल से बरामद शवों में शीर्ष कमांडर रही 25 लाख की इनामी महिला नक्सली नीति भी थी, जो पूर्वी बस्तर की इंचार्ज कही जाती थी। अनेक बडेÞ माओवादी, जिनमें कमलेश, सुरेश सलाम, मीना मड़काम आदि नाम सम्मिलित हैं, का उन्मूलन कर दिया गया है।

अबूझमाड़ क्षेत्र माओवादियों का अब तक एकमात्र सफल आधार इलाका रहा है। नक्सल गतिविधियों के संचालन के दृष्टिगत इस क्षेत्र में पहली सुविधा है सघन वन। बता दें कि इंद्रावती, नल्लामल्ला, कान्हा, नागझीरा, ताडोबा और उदन्ती राष्ट्रीय उद्यान इस परिक्षेत्र के सीधे संपर्क में आते हैं। इतना ही नहीं, यह परिक्षेत्र तेलंगाना, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ राज्यों को आपस में जोड़ता है। अर्थात् वाम-अतिवादियों को एक राज्य में वारदात कर दूसरे में भाग जाने की सुविधा प्रदान करता है।

कैसे बना आधार इलाका

प्रश्न उठता है कि माओवादियों ने अबूझमाड़ को ही अपना आधार इलाका कैसे और क्यों बना लिया? इसका उत्तर बड़ी प्रशासनिक गलतियों में छिपा है। वह साठ का दशक था, जब बस्तर एक वृहद् जिला हुआ करता था, (वर्तमान में बस्तर एक संभाग है जिसके अंतर्गत सात जिले आते हैं)। ब्रह्मदेव शर्मा उन दिनों वहां के जिलाधीश हुआ करते थे, जिन्हें वाम हलकों में जनजाति विशेषज्ञ होने का सम्मान प्राप्त है। 2012 में जब सुकमा जिले के जिलाधीश रहे एलेक्स पॉल मेनन को नक्सलियों ने जब अगवा कर लिया, तब सरकार ने मध्यस्थता के माध्यम से इस समस्या का समाधान निकालना चाहा।

आश्चर्य यह कि माओवादियों की ओर से तब बिचौलिया बने थे यही पूर्व नौकरशाह ब्रह्मदेव शर्मा। जब शर्मा जिलाधीश थे, तब अबूझमाड़ की ओर जाने वाली सड़कों की परियोजनाओं को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था। अबूझमाड़ को जिंदा मानव संग्रहालय में बदल दिया गया, अर्थात् यदि कोई बाहरी व्यक्ति (वह बस्तर संभाग का निवासी ही क्यों न हो) भीतरी जंगलों में जाना चाहता हो तो उसे जिलाधीश से एक पास बनवाना पड़ता था। यह पास एक घंटे के लिए प्राप्त होता था। ऐसे में नारायणपुर से निकल कर ओरछा पहुंचे नहीं कि समय समाप्त। इस निर्णय से यह हुआ कि मुख्यधारा का जंगल के भीतर से सदियों से स्थापित रहा नैसर्गिक संबंध टूट गया।

अबूझमाड़ को मानव संग्रहालय में बदल देने की इस परिघटना के क्या घातक परिणाम हुए, इसे जानने के लिए नक्सलवाद की एक शाखा पीपुल्स वार ग्रुप के बारे में जानना आवश्यक है। 1975 मेें हनामकोंडा (वारंगल) के एक विद्यालय में हिंदी अध्यापक रहे कोण्डापल्ली सीतारमैया ने चीन की सांस्कृतिक क्रांति से प्रभावित होकर पीपुल्स वार ग्रुप का गठन किया। सीतारमैया आंध्र प्रदेश में लंबे समय से मुलुगु के जंगल में पैर जमाने की कोशिश कर रहा था।

वह इसी क्षेत्र को आधार इलाका बनाना चाहता था लेकिन सफल नहीं हो पाया। उसे नदी के दूसरी ओर बस्तर के जंगलों में अपने लड़ाकों के लिए सुरक्षित जगह बनाने का ख्याल कौंधा। अस्सी के दौरान उसने अपनी योजना के अनुसार पांच से सात सदस्यों के सात अलग-अलग दल भेजे थे। चार दल तो दक्षिणी तेलंगाना के आदिलाबाद, खम्माम, करीमनगर और वारंगल जिलों की ओर गए, एक दल महाराष्ट्र के गढ़चिरोली को तथा दो अन्य दल को बस्तर की ओर भेजा गया। पीपुल्स वार ग्रुप का बस्तर प्रवेश किसी भी तौर पर इस अंचल की समस्याओं अथवा असंतोष के मद्देनजर नहीं था। यह कदम विशुद्ध रूप से आश्रय तलाश करने और सेना तैयार करने के दृष्टिगत आधार इलाका बनाना था।

साठ के दशक में अबूझमाड़ को मानव संग्रहालय बना देने के निर्णय ने इस क्षेत्र से स्कूल, अस्पताल, डाक घर और अन्यान्य सरकारी भवनों को विलुप्त कर दिया था। माओवादी जब अबूझमाड़ में घुसे तो उनके लिए कोई संघर्ष मौजूद था ही नहीं, जैसे किसी ने थाली में परोस कर आधार इलाका थमा दिया था। यह 2004 से 2006 के बीच की बात है जब देश भर के अलग-अलग स्थानों में सक्रिय एमसीसी, पीडब्लूजी जैसे कई माओवादी धड़े भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के नाम से संगठित हुए। इसी दौरान आंध्र प्रदेश में भीषण दमनात्मक कार्रवाई के फलस्वरूप 1,800 से भी अधिक माओवादी मारे गए। अत: यही समय बस्तर में प्रवेश करने तथा स्वयं को संरक्षित करने की दृष्टि से माओवादियों के लिए सबसे अच्छा था।

इसी समय अबूझमाड़ माओवादी गतिविधियों का केंद्रीय स्थल बना। तब से अब तक इंद्रावती नदी में बहुत पानी बह चुका है। 5,000 वर्ग किलोमीटर के इस परिक्षेत्र को केंद्र में रखकर माओवादियों ने न केवल छत्तीसगढ़, बल्कि आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, महाराष्ट्र और बिहार, झारखण्ड तक अपनी सक्रियता बढ़ा ली थी। चीन से भारत के दक्षिणी छोर तक लाल गलियारे बनाए जाने की बातें होने लगी थीं। नेपाल में जिस तरह से माओवादी काबिज हुए, यह आशंका बलवती होने लगी थी कि पूर्वी-दक्षिणी भाग लाल गलियारा के रूप में भारत की सबसे बड़ी समस्या बनकर उभरने वाला है। 2014 के पश्चात् से अबूझमाड़ की परिस्थितियां तब बदलने लगीं, जब सरकार ने माओवाद उन्मूलन को गंभीरता से लिया।

आखिरी शरणस्थली

अबूझमाड़ माओवाद की आखिरी शरणस्थली है। यदि इस परिक्षेत्र से माओवाद की जड़ें उखाड़ कर फेंक दी जाती हैं तो भारत भर में कोई दूसरी ऐसी जगह नहीं है जहां इस प्रकार की भौगोलिक-सामाजिक परिस्थितियां विद्यमान हों। अब अबूझमाड़ में ही लड़ाई होनी है और भीषण संघर्ष होगा। बता दें कि जैसे-जैसे सुरक्षा बल इस क्षेत्र में भीतर प्रवेश करते जाएंगे, शहरी माओवादी सक्रिय होंगे और अपना पूरा अफवाह तंत्र लगा कर अभियान को बदनाम करने में एड़ी-चोटी कर देंगे।

बंदूक वाले नक्सली ही कलम वाले नक्सलियों के प्राण हैं इसलिए यह लड़ाई बड़ी और बहुकोणीय होने वाली है। बस्तर संभाग में इसी वर्ष सरकार के बदलने के बाद से नक्सल उन्मूलन अभियान में तेजी देखी गई है। गत 16 अप्रैल को कांकेर जिला मुख्यालय से करीब 160 किलोमीटर दूर आपाटोला-कलपर जंगल के क्षेत्र में सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में 29 माओवादी मारे गए थे। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने मार्च, 2026 की तिथि माओवाद से मुक्ति के लिए तय कर दी है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सतत कदम उठाए जा रहे हैं। गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार 2010 में देश में जहां 107 जिले माओवाद से प्रभावित थे, वर्तमान में उनकी संख्या आधे से भी कम होकर केवल 42 रह गई है। कहने का अर्थ यह है कि योजनाबद्धता और इच्छाशक्ति के साथ प्रयास किया जाए तो निश्चय ही मिट जाएगा माओवाद।
(लेखक ‘आमचो बस्तर’ पुस्तक के रचयिता हैं)

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