श्री विजयादशमी युगाब्द 5126 के पुण्य पर्व पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने कार्य के 100वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। पिछले वर्ष इसी पर्व पर हमने महारानी दुर्गावती के तेजस्वी जीवनयज्ञ का उनकी जन्मजयंती के 500वें वर्ष के निमित्त स्मरण किया था। इस वर्ष पुण्यश्लोक अहिल्या देवी होल्कर जी का 300वीं जन्मशती का वर्ष मनाया जा रहा है। देवी अहिल्याबाई एक कुशल राज्य प्रशासक, प्रजाहितदक्ष कर्तव्यपरायण शासक, धर्म संस्कृति व देश की अभिमानी, शीलसंपन्नता का उत्तम आदर्श तथा रणनीति की उत्कृष्ट समझ रखने वाली राज्यकर्ता थीं। उन्होंने अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में भी अद्भुुत क्षमता का परिचय देते हुए घर, राज्य को; स्वयं की अखिल भारतीय दृष्टि के कारण अपनी राज्य सीमा के बाहर भी, तीर्थक्षेत्रों के जीर्णोद्धार व देवस्थानों के निर्माण द्वारा समाज की समरसता को तथा समाज में संस्कृति को जिस तरह संभाला, वह आज के समय में भी मातृशक्ति सहित हम सबके लिए अनुकरणीय उदाहरण है। साथ ही, यह भारत की मातृशक्ति के कर्तृत्व व नेतृत्व की दैदीप्यमान परंपरा का उज्ज्वल प्रतीक भी है।
आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती जी की 200वीं जन्म जयन्ती का भी यही वर्ष है। पराधीनता से मुक्त होकर काल के प्रवाह में आचार धर्म व सामाजिक रीति-रिवाजों में आयी विकृतियों को दूर कर, समाज को अपने मूल के शाश्वत मूल्यों पर खड़ा करने का उन्होंने अथक प्रयास किया था। भारतवर्ष के नवोत्थान की प्रेरक शक्तियों में उनका नाम प्रमुखता के साथ आता है।
रामराज्य सदृश वातावरण निर्माण हो, इसके लिए प्रजा की गुणवत्ता व चारित्र्य तथा स्वधर्म पर जैसी दृढ़ता अनिवार्य है वैसा संस्कार व दायित्वबोध सबमें उत्पन्न करने वाला ‘सत्संग’ अभियान परमपूज्य श्री श्री अनुकूलचन्द्र ठाकुर द्वारा प्रवर्तित किया गया था। आज के बांग्लादेश तथा उस समय के उत्तर बंगाल के पाबना में जन्मे श्री श्री अनुकूलचन्द्र्र ठाकुर जी होमियोपैथी चिकित्सक थे तथा स्वयं की माता जी के द्वारा ही अध्यात्म साधना में दीक्षित थे। व्यक्तिगत समस्याओं को लेकर उनके सम्पर्क में आने वाले लोगों में सहज रूप से चरित्र विकास तथा सेवा भावना के विकास की प्रक्रिया ही ‘सत्संग’ बनी, जिसे ईस्वी सन् 1925 मे धर्मार्थ संस्था के रूप में पंजीकृत किया गया। 2024 से 2025 ‘सत्संग’ के मुख्यालय देवघर (झारखंड) में उस कर्मधारा की भी शताब्दी मनाई जाने वाली है। सेवा, संस्कार तथा विकास के अनेक उपक्रमों को लेकर यह अभियान आगे बढ़ रहा है।
आगामी 15 नवम्बर से भगवान बिरसा मुंडा की जन्म जयंती का 150वां वर्ष प्रारंभ होगा। यह सार्धशती हमें, जनजातीय बंधुओं की गुलामी तथा शोषण से, स्वदेश पर विदेशी वर्चस्व से मुक्ति, अस्तित्व व अस्मिता की रक्षा एवं स्वधर्म रक्षा के लिए भगवान बिरसा मुंडा के द्वारा प्रवर्तित ‘उलगुलान’ की प्रेरणा का स्मरण करा देगी। भगवान बिरसा मुंडा के तेजस्वी जीवनयज्ञ के कारण ही अपने जनजातीय बंधुओं के स्वाभिमान, विकास तथा राष्ट्रीय जीवन में योगदान के लिए एक सुदृढ़ आधार मिल गया है।
प्रामाणिकता से, नि:स्वार्थ भावना से देश, धर्म, संस्कृति व समाज के हित में जीवन लगा देने वाली ऐसी विभूतियों को हम इसलिए स्मरण करते हैं कि उन्होंने हम सबके हित में कार्य तो किया ही है, अपितु अपने स्वयं के जीवन से हमारे लिए अनुकरणीय जीवन व्यवहार का उत्तम उदाहरण भी उपस्थित किया है। अलग-अलग कालखंडों में, अलग-अलग कार्यक्षेत्रों में कार्य करने वाली इन सब विभूतियों के जीवन—व्यवहार की कुछ समान बातें थीं। निस्पृहता, निर्वैरता व निर्भयता उनका स्वभाव था। संघर्ष का कर्तव्य जब-जब उपस्थित हुआ, तब-तब पूर्ण शक्ति के साथ, आवश्यक कठोरता बरतते हुए उन्होंने उसे निभाया। परंतु वे कभी भी द्वेष या शत्रुता पालने वाले नहीं बने। उज्ज्वल शील—संपन्नता उनके जीवन की पहचान थी। इसलिए उनकी उपस्थिति दुर्जनों को भयभीत करने वाली व सज्जनों को आश्वस्त करने वाली थी। हम सभी से आज इसी प्रकार के जीवन व्यवहार की अपेक्षा परिस्थिति कर रही है। परिस्थिति अनुकूल हो या प्रतिकूल, व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय चारित्र्य की ऐसी दृढ़ता ही मांगल्य व सज्जनता की विजय के लिए शक्ति का आधार बनती है ।
आज का युग मानव जाति की द्रुतगति से भौतिक प्रगति का युग है। विज्ञान व तकनीकी के सहारे जीवन को हमने सुविधाओं से परिपूर्ण बनाया है। परन्तु दूसरी ओर हमारे अपने स्वार्थों की कलह हमें विनाश की ओर धकेल रही है। मध्यपूर्व में इस्राएल के साथ हमास का संघर्ष आगे कहां तक फैलेगा, यह चिंता सबके सामने उपस्थित है। अपने देश में भी परिस्थितियों में आशा-आकांक्षाओं के साथ चुनौतियां व समस्याएं विद्यमान हैं। परम्परा से संघ के इस विजयादशमी संबोधन में इन विषयों पर विस्तृत चर्चा की जाती है। परन्तु आज मैं केवल कुछ चुनौतियों की चर्चा करूंगा। क्योंकि आशा-आकांक्षाओं की पूर्ति की ओर जो गति देश ने पकड़ी है, वह जारी रहेगी। यह सभी अनुभव करते है कि गत वर्षों में भारत एक राष्ट्र के तौर पर विश्व में सशक्त और प्रतिष्ठित हुआ है। विश्व में उसकी साख बढ़ी है। स्वाभाविक ही कई क्षेत्रों में हमारी परम्परा तथा भावना में अन्तर्निहित विचारों का सम्मान बढ़ा है। हमारी विश्व बंधुत्व की भावना, पर्यावरण के प्रति हमारी दृष्टि की स्वीकृति, योग इत्यादि को विश्व नि:संकोच स्वीकार कर रहा है। समाज में, विशेषकर युवा पीढ़ी में स्व का गौरवबोध बढ़ रहा है। कई क्षेत्रों में हम धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे हैं।
जम्मू-कश्मीर विधानसभा सहित अन्य सभी चुनाव भी शांतिपूर्ण ढंग से संपन्न हो गए हैं। देश की युवा शक्ति, मातृशक्ति, उद्यमी, किसान, श्रमिक, जवान, प्रशासन, शासन सभी प्रतिबद्धतापूर्वक अपने-अपने कार्य में डटे रहेंगे, यह विश्वास है। गत वर्षों में देशहित की प्रेरणा से इन सबके द्वारा किए गए पुरुषार्थ से ही विश्वपटल पर भारत की छवि, शक्ति, कीर्ति व स्थान निरन्तर उन्नत हो रहा है। परन्तु, मानो हम सबके इस कृतनिश्चय की परीक्षा लेने कुछ मायावी षड्यंत्र हमारे सामने उपस्थित हुए हैं, जिन्हें ठीक से समझना आवश्यक है। अपने देश के वर्तमान परिदृश्य पर एक नजर डालते हैं तो ऐसी चुनौतियां स्पष्ट रूप से हमारे सामने दिखाई देती हैं। देश के चारों तरफ के क्षेत्रों को अशांत व अस्थिर करने के प्रयास गति पकड़ते दिखाई देते हैं ।
विश्व में भारत के प्रमुखता पाने से जिनके निहित स्वार्थ आहत होते हैं, ऐसी शक्तियां भारत को एक मर्यादा के अंदर ही बढ़ने देना चाहेंगी, यह अपेक्षाकृत हो भी रहा है। अपने आप को उदार, जनतांत्रिक स्वभाव तथा विश्वशांति के लिए कटिबद्ध बताने वाले देशों की यह कटिबद्धता उनकी सुरक्षा व स्वार्थों का प्रश्न आते ही गायब हो जाती है। तब दूसरे देशों पर आक्रमण करने में अथवा जनतांत्रिक पद्धति से चुनी गई वहां की सरकारों को अवैध तथा/अथवा हिंसक तरीकों से उलट देने से वे चूकते नहीं हैं। भारत के अंदर व बाहर विश्व में जो घटनाक्रम चलता है उस पर गौर करने से ये बातें सभी समझ सकते हैं। भारत की छवि को मलिन करने का यह प्रयास, असत्य अथवा अर्धसत्य के आधार पर चलता हुआ स्पष्ट दिखाई देता है।
हाल ही में बांग्लादेश में जो हिंसक तख्तापलट हुआ, उसके तात्कालिक व स्थानीय कारण उस घटनाक्रम का एक पहलू हैं। परन्तु वहां रह रहे हिंदू समाज पर अकारण नृशंस अत्याचारों की परंपरा को फिर से दोहराया गया। उन अत्याचारों के विरोध में वहां का हिंदू समाज इस बार संगठित होकर स्वयं के बचाव में घर से बाहर आया, इसलिए थोड़ा बचाव हुआ। परन्तु यह अत्याचारी कट्टरपंथी स्वभाव जब तक वहां विद्यमान है तब तक वहां के हिंदुओं सहित सभी अल्पसंख्यक समुदायों के सिर पर खतरे की तलवार लटकी रहेगी। इसीलिए उस देश से भारत में होने वाली अवैध घुसपैठ व उसके कारण उत्पन्न जनसंख्या असंतुलन देश में सामान्यजन में भी गंभीर चिंता का विषय बना है।
देश में आपसी सद्भाव व देश की सुरक्षा पर भी इस अवैध घुसपैठ के कारण प्रश्नचिन्ह लगते हैं। उदारता, मानवता तथा सद्भावना के पक्षधर सभी जन की, विशेषकर भारत सरकार तथा विश्वभर के हिंदुओं की सहायता की बांग्लादेश में अल्पसंख्यक बने हिंदू समाज को आवश्यकता रहेगी। असंगठित रहना व दुर्बल रहना, यह दुष्टों के अत्याचारों को निमंत्रण देना है, यह सबक भी विश्वभर के हिंदू समाज को ग्रहण करना चाहिए। परन्तु बात यहां खत्म नहीं होती। अब वहां भारत से बचने के लिए पाकिस्तान से मिलने की बात हो रही है। ऐसे विमर्श खड़े कर व स्थापित कर कौन से देश भारत पर दबाव बनाना चाहते हैं, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। इसके उपाय करना शासन का विषय है। परंतु समाज के लिए सर्वाधिक चिन्ता की बात यह है कि समाज में विद्यमान भद्रता व संस्कार को नष्ट-भ्रष्ट करने के, विविधता को अलगाव में बदलने के, समस्याओं से पीड़ित समूहों में व्यवस्था के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न करने के तथा असन्तोष को अराजकता में रूपांतरित करने के प्रयास बढ़े हैं।
‘डीप स्टेट’, ‘वोकिजम’, ‘कल्चरल मार्क्सिस्ट’ जैसे शब्द आजकल चर्चा में हैं। वास्तव में ये सभी सांस्कृतिक परम्पराओं के घोषित शत्रु हैं। सांस्कृतिक मूल्यों, परम्पराओं तथा जहां-जहां जो भी भद्र, मंगल माना जाता है, उसका समूल उच्छेद इस समूह की कार्यप्रणाली का ही अंग है। समाज का मन बनाने वाले तंत्र व संस्थानों, जैसे शिक्षा तंत्र व शिक्षा संस्थान, संवाद माध्यम, बौद्धिक संवाद आदि को अपने प्रभाव में लाना, उनके द्वारा समाज के विचार, संस्कार तथा आस्था को नष्ट करना इस कार्यप्रणाली का प्रथम चरण होता है। मिलकर रहने वाले समाज में किसी घटक को उसकी कोई वास्तविक या कृत्रिम रीति से उत्पन्न की गई विशिष्टता, मांग, आवश्यकता अथवा समस्या के आधार पर अलगाव के लिए प्रेरित किया जाता है। उनमें अन्यायग्रस्तता की भावना उत्पन्न की जाती है। असंतोष को हवा देकर उस घटक को शेष समाज से अलग, व्यवस्था के विरुद्ध उग्र बनाया जाता है। समाज में संघर्ष पैदा कर सकने वाले बिंदुओं को ढूंढ़कर प्रत्यक्ष टकराव खड़े किए जाते हैं। व्यवस्था, कानून, शासन, प्रशासन आदि के प्रति अश्रद्धा व द्वेष को उग्र बनाकर अराजकता व भय का वातावरण खड़ा किया जाता है। इससे उस देश पर अपना वर्चस्व स्थापित करना सरल हो जाता है।
बहुदलीय प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली में सत्ता प्राप्त करने हेतु दलों की स्पर्धा चलती है। समाज में विद्यमान छोटे स्वार्थ, परस्पर सद्भावना को राष्ट्र की एकता व अखंडता से अधिक महत्वपूर्ण बताना अथवा दलों की स्पर्धा में समाज की सद््भावना व राष्ट्र का गौरव व एकात्मता गौण मानना, ऐसी दलीय राजनीति में एक पक्ष की सहायता में खड़े होकर ‘पर्यायी’ राजनीति के नाम पर अपने विभाजनकारी एजेंडे को आगे बढ़ाना ही इनकी कार्यपद्धति है। यह कपोल-कल्पित कहानी नहीं बल्कि दुनिया के अनेक देशों में दिखी वास्तविकता है।
पाश्चात्य जगत के विकसित देशों में इस दुष्प्रयास के परिणामस्वरूप जीवन की स्थिरता, शांति व मंगल संकट में पड़ा प्रत्यक्ष दिखाई देता है। तथाकथित ‘अरब स्प्रिंग’ से लेकर अभी पड़ोस के बांग्लादेश में जो घटित हुआ वहां तक इस एजेंडे को काम करते हुए हमने देखा है। भारत के चारों ओर के, विशेषत: सीमावर्ती तथा जनजातीय जनसंख्या वाले प्रदेशों में इसी प्रकार के कुप्रयासों को हम देख रहे हैं।
सांस्कृतिक एकात्मता एवं श्रेष्ठ सभ्यता की सुदृढ़ आधारशिला पर अपना राष्ट्र जीवन खड़ा है। अपना सामाजिक जीवन उदात्त जीवन मूल्यों से प्रेरित एवं पोषित है। अपने ऐसे राष्ट्र जीवन को क्षति पहुंचाने अथवा नष्ट करने के उपरोक्त कुप्रयासों को समय पूर्व ही रोकना आवश्यक है। इस हेतु जागरूक समाज को ही प्रयत्न करना पड़ेगा। इसके लिए अपने संस्कृतिजन्य जीवन दर्शन तथा संविधान प्रदत्त मार्ग से लोकतंत्रीय योजना बनानी चाहिए। एक सशक्त विमर्श खड़ा करते हुए, वैचारिक एवं सांस्कृतिक प्रदूषण फैलाने वाले इन षड्यंत्रों से समाज को सुरक्षित रखना समय की आवश्यकता है।
विभिन्न तंत्रों तथा संस्थानों द्वारा कराए गए विकृत प्रचार व कुसंस्कार भारत में, विशेषत: नई पीढ़ी के मन-वचन-कर्मों को बहुत बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। बड़ों के साथ बच्चों के हाथों में भी मोबाइल पहुंच गया है। वहां वे क्या दिखा रहे हैं और बच्चे क्या देख रहे हैं, इस पर नियंत्रण नहीं के बराबर है। उस सामग्री का उल्लेख करना भी भद्रता का उल्लंघन होगा, इतनी वीभत्स है वह। अपने अपने घर—परिवारों में तथा समाज में विज्ञापनों तथा विकृत दृश्य—श्रव्य सामग्री पर कानून के नियंत्रण की त्वरित आवश्यकता प्रतीत होती है। युवा पीढ़ी में जंगल में आग की तरह फैलने वाली नशीले पदार्थों की आदत भी समाज को अंदर से खोखला कर रही है। अच्छाई की ओर ले जाने वाले संस्कार पुनर्जीवित करने होंगे।
संस्कार के क्षरण होने का ही यह परिणाम है कि ‘मातृवत् परदारेषु’ के आचरण की मान्यता वाले इस देश में बलात्कार जैसी घटनाओं का मातृशक्ति को कई जगह सामना करना पड़ रहा है। कोलकाता के आर.जी. कर अस्पताल में घटी घटना सारे समाज को कलंकित करने वाली लज्जाजनक घटनाओं में एक है। उसके निषेध तथा त्वरित व संवेदनशील कार्र्रवाई की मांग को लेकर चिकित्सक बंधुओं के साथ सारा समाज तो खड़ा हुआ, परन्तु ऐसा जघन्य पाप घटने पर भी, कुछ लोगों के द्वारा जिस प्रकार अपराधियों को संरक्षण देने के घृणास्पद प्रयास हुए, ये दिखाते हैं कि अपराध, राजनीति तथा अपसंस्कृति का गठबंधन हमें किस तरह बिगाड़ रहा है।
महिलाओं की ओर देखने की हमारी दृष्टि-‘मातृवत् परदारेषु’-हमारी सांस्कृतिक देन है, जो हमें हमारी संस्कार परम्परा से प्राप्त होती है। हमारे परिवार तथा समाज जिनसे मनोरंजन के साथ ही जाने-अनजाने प्रबोधन भी प्राप्त कर रहा है, उन माध्यमों में इसका भान न रहना, इन मूल्यों की उपेक्षा या तिरस्कार होना बहुत महंगा पड़ रहा है। हमें परिवार, समाज तथा संवाद माध्यमों द्वारा इन सांस्कृतिक मूल्यों के प्रबोधन की व्यवस्था को फिर से जाग्रत करना होगा।
आज भारत में सर्वत्र संस्कारों के क्षरण व विभेदकारी तत्वों के समाज को तोड़ने के षड्यंत्र दिखाई देते हैं। सामान्य समाज को जाति-भाषा-प्रान्त जैसी चीजों के आधार पर अलग कर टकराव उत्पन्न करने का प्रयास चला है। छोटे स्वार्थ व छोटी पहचानों में उलझकर सिर पर मंडराते सबको लील लेने वाले संकट को समाज बहुत देर तक समझ न सके, यह स्थिति बनाई जा रही है। इसके चलते आज देश की उत्तर-पश्चिम सीमा से सटे पंजाब, जम्मू-कश्मीर, लद्दाख; समुद्री सीमा पर स्थित केरल, तमिलनाडु; तथा बिहार से मणिपुर तक के सम्पूर्ण पूर्वांचल में स्थितियां चिंताजनक हैं। जैसे पहले बताईं, वैसी सारी परिस्थिति इन सब प्रदेशों में भी उपस्थित है।
देश में बिना कारण कट्टरता को उकसाने वाली घटनाओं में भी अचानक वृद्धि दिख रही है। परिस्थिति या नीतियों को लेकर मन में असंतुष्टि हो सकती है, परन्तु उसको व्यक्त करने अथवा उनका विरोध करने के प्रजातांत्रिक मार्ग होते हैं। उनका अवलंबन न करते हुए हिंसा पर उतर आना, समाज के एकाध विशिष्ट वर्ग पर आक्रमण करना, बिना कारण हिंसा पर उतारू होना, भय पैदा करने का प्रयास करना, यह तो अराजकता है। इसको उकसाने के प्रयास होते हैं अथवा योजनाबद्ध तरीके से किया जाता है, ऐसे आचरण को पूज्य डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर ने ‘अराजकता का व्याकरण’ कहा है। अभी बीते गणेशोत्सव के दौरान श्रीगणपति विसर्जन की शोभायात्राओं पर अकारण पथराव की तथा तदुपरान्त बनी तनावपूर्ण परिस्थिति की घटनाएं उसी व्याकरण का उदाहरण हैं।
ऐसी घटनाओं को होने नहीं देना, वे होती हैं तो तुरंत नियंत्रित करना, उपद्रवियों को त्वरित दण्डित करना प्रशासन का काम है। परन्तु उसके पहुंचने तक तो समाज को ही अपने तथा अपनों के प्राणों की व सम्पत्त की रक्षा करनी पड़ती है। इसलिए समाज को भी सदैव पूर्ण सतर्क व सन्नद्ध रहने की तथा इन कुप्रवृत्तियों को, उन्हें प्रश्रय देने वालों को पहचानने की आवश्यकता उत्पन्न हो गयी है। परिस्थिति का उपरोक्त वर्णन डरने, डराने या लड़ाने के लिए नहीं है। ऐसी परिस्थिति विद्यमान है, यह हम सब अनुभव कर रहे हैं।
साथ में, इस देश को एकात्म, सुख—शान्तिमय, समृद्ध व बलसंपन्न बनाना सबकी इच्छा है, सबका कर्तव्य भी है। इसमें हिन्दू समाज की जिम्मेदारी अधिक है। इसलिए समाज की एक विशिष्ट प्रकार की स्थिति, सजगता तथा एक विशिष्ट दिशा में मिलकर प्रयास करने की आवश्यकता है। समाज स्वयं जगता है, अपने भाग्य को अपने पुरुषार्थ से लिखता है तब महापुरुष, संगठन, संस्थाएं, प्रशासन, शासन आदि सब सहायक होते हैं। शरीर की स्वस्थ अवस्था में क्षरण पहले आता है, बाद में रोग उसको घेरते हैं। दुर्बलों की परवाह देव भी नहीं करते, ऐसा एक सुभाषित प्रसिद्ध है—
अश्वं नैव गजं नैव, व्याघ्रं नैव च नैव च,
अजापुत्रं बलिं दद्यात्, देवो दुर्बल घातक:।
इसीलिए शताब्दी वर्ष के पूरे होने के पश्चात समाज में कुछ विषय लेकर सभी सज्जनों को सक्रिय करने का विचार संघ के स्वयंसेवक कर रहे हैं।
समाज की स्वस्थ व सबल स्थिति की पहली शर्त है सामाजिक समरसता तथा समाज के विभिन्न वर्गों में परस्पर सद्भाव। कुछ संकेतात्मक कार्यक्रम मात्र करने से यह कार्य संपन्न नहीं होता है। समाज के सभी वर्गों व स्तरों में व्यक्ति व कुटुम्बों की मित्रता होनी चाहिए। यह पहल हम सभी को व्यक्तिगत तथा पारिवारिक स्तर से करनी होगी। पारस्परिक पर्व प्रसंगों में सभी की सहभागिता हो जिससे वे पूरे समाज के पर्व प्रसंग बनें।
सार्वजनिक उपयोग व श्रद्धा के स्थल यथा मंदिर, पानी, श्मशान आदि समाज के सभी वर्गों के लिए हों, ऐसा वातावरण चाहिए। परिस्थिति के कारण समाज के विभिन्न वर्गों की आवश्यकताएं सभी वर्गों को समझ में आनी चाहिए। जैसे कुटुंब में समर्थ घटक दुर्बल घटकों के लिए अधिक प्रावधान, कभी—कभी अपना नुकसान सहन करके भी करते हैं, वैसे अपनेपन की दृष्टि रखकर ऐसी आवश्यकताओं का विचार होना चाहिए।
समाज में अनेक जाति-वर्गों का संचालन करने वाली उनकी अपनी-अपनी रचनाएं, संस्थाएं भी हैं। अपने-अपने जाति-वर्ग की उन्नति, सुधार तथा उनके हित प्रबोधन का विचार इन रचनाओं के नेतृत्व के द्वारा किया जाता है। जाति-बिरादरी के नेतृत्व करने वाले लोग मिल-बैठकर दो विषयों का विचार नित्य करेंगे तो समाज में सर्वत्र सद्भावनापूर्ण व्यवहार का वातावरण बनेगा। समाज को बांटने का कोई कुचक्र सफल नहीं हो सकेगा। पहला विषय है यह विचार कि हम सब अलग-अलग जाति-वर्ग मिलकर देश हित की, अपने कार्यक्षेत्र के सम्पूर्ण समाज के हित की कौन-कौन सी बातें करा सकते हैं, योजना बनाकर उनको परिणाम तक ले जा सकते हैं। ऐसे ही दूसरा विषय है यह सोचना कि हम सब मिलकर, हममें जो दुर्बल जाति अथवा वर्ग है, उनके हित साधन के लिए क्या कर सकते हैं। नियमित क्रम से ऐसा विचार एवं कृति होती रही, तो समाज स्वस्थ बनेगा व सद्भाव का वातावरण भी बनेगा।
रा.स्व.संघ के विजयादशमी उत्सव में विशिष्ट अतिथि पद्म भूषण डॉ. के. राधाकृष्णन द्वारा दिए गए संबोधन के संपादित अंश इस प्रकार हैं-
विजयदशमी के पावन अवसर पर यहां आना मेरे लिए सौभाग्य की बात है। पंच-परिवर्तन प्रक्रिया के कगार पर इन स्वनामधन्य श्रोताओं के सामने संबोधन देना भी मेरे लिए गौरव से कम नहीं है। आत्म-अनुशासन और निस्वार्थ सेवा के इस पुण्य वातावरण में स्मृति मंदिर में एक दिन बिताना और संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार को श्रद्धांजलि अर्पित करके आनंद हुआ। मुझे उनके घर और उनके जन्मस्थान पर भी जाने का अवसर मिला। डॉ. हेडगेवार सादगी और महानता के मिश्रण थे। यहां वीरता और दृढ़ संकल्प के सामंजस्य को देखना एक अनूठा अनुभव है।
1960 के दशक की शुरुआत में, भारत ने अंतरिक्ष कार्यक्रमों का आरम्भ किया, लेकिन एक अलग अंदाज़ में। भारत ने डॉ. विक्रम साराभाई, डॉ. सतीश धवन और डॉ. ब्रह्मप्रकाश जैसी महान प्रेरक विभूतियों के नेतृत्व में समाज-केंद्रित होने का मार्ग चुना। देशभर से प्रतिभाशाली लोग रॉकेट साइंस से जुड़ने के लिए इसरो में साथ आए। पहली पीढ़ी के दिग्गजों ने भारत में अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी और अनुप्रयोगों की नींव रखी। उडुपी रामचंद्र राव, ए.पी.जे. अबुल कलाम और प्रो. यशपाल ने हमारी पहली बड़ी परियोजना का नेतृत्व किया। भारत ने मानव के सतत कल्याण हेतु अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी का उपयोग करने के लिए प्रमुख और सघन भागीदारी हासिल की है। जब हम ब्रह्मांड पर विचार करते हैं, तो हमें एहसास होता है कि हम अकेले नहीं हैं। इसरो अब देश की रणनीतिक अनिवार्यताओं पर कार्य कर रहा है।
पुरानी पीढ़ी युवा पीढ़ी का 2040 तक भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन बनाने की दिशा में मार्गदर्शन दे रही है। अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी ने किसानों और मछुआरों सहित हर भारतीय के जीवन को छुआ है, जिसका सामाजिक-आर्थिक प्रभाव महत्वपूर्ण है। प्राचीन काल से ही हम आत्मनिर्भरता के प्रति प्रयासरत रहे हैं। प्रौद्योगिकी और विज्ञान के क्षेत्र में नवाचार आर्थिक परिवर्तन के संवाहक हैं, भारत ने इसमें उल्लेखनीय प्रगति भी प्राप्त की है। हमें तकनीकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए आत्मनिर्भरता और नए युग की तकनीक के लिए काम करने की आवश्यकता है। प्रौद्योगिकी और अनुप्रयुक्त विज्ञान आर्थिक विकास के इंजन हैं। देश की सबसे विकट समस्याओं को हल करने के लिए विशद विज्ञान और गहन प्रौद्योगिकियों का संगम तेजी से प्रासंगिक होता जा रहा है।
भारत ने अंतरिक्ष और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है। हालांकि, प्रौद्योगिकी-केंद्रित दुनिया में, हमें प्रौद्योगिकी पर निर्भरता से प्रौद्योगिकी पर्याप्तता की ओर तेजी से बढ़ने की आवश्यकता है। अगले दशक में छठी या संभवत: सातवीं औद्योगिक क्रांति होगी, इसलिए जरूरी है कि हम प्रासंगिक बने रहने के लिए कम समय में खुद को फिर से तैयार करें। शिक्षा के क्षेत्र में, प्रौद्योगिकी ने बड़ा बदलाव किया है। हमारी शिक्षा प्रणाली परिवर्तन की स्थिति में है और सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ रही है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 इस तैयारी में एक परिवर्तनकारी भूमिका निभाएगी। बदलावों के इस दौर में अनुसंधान नेशनल रिसर्च फाउंडेशन शोध, नवाचार और उद्यमिता की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
‘परफोर्मिंग आर्टस’ और आध्यात्मिक विरासत को आत्मसात करके मुझे जीवन में मूल्य-केंद्र्रित व्यकितगत निर्णय लेने में मदद मिलती रही है। अंतरिक्ष, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में सही नेतृत्व देने में संगीत की सतत साधना ने मेरी बहुत मदद की है। जब मैं कक्षा 6 में था, तब गीता उपदेश नाटिका में मैंने अर्जुन की भूमिका निभाई थी। मेरे अंदर तभी से भगवद्गीता के प्रति एक अनुराग पैदा हो गया था, इससे मुझे जीवन में कठिन समय में धैर्य बनाए रखने और खुद को फिर से खड़ा करने में सहायता मिली है। जैसा कि भगवद्गीता के 16वें अध्याय में बताया गया है-निर्भयता, त्याग, ईमानदारी, स्वाध्याय आदि हमें अपने अंदर दिव्य मूल्यों को विकसित करने में मदद करते हैं। यही तो एक संतुलित व्यक्ति में महान गुण हैं। भगवद्गीता संजय की एक टिप्पणी के साथ समाप्त होती है:
यत्र योगश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।
अर्थात,‘धनुर्धर अर्जुन और योगेश्वर कृष्ण, दोनों ही विजय के लिए महत्वपूर्ण हैं। यानी जिस प्रकार विजय के लिए हथियारों की आवश्यकता है, उसी प्रकार नैतिक मूल्यों की भी आवश्यकता है।’
चारों ओर के वातावरण में एक ऐसी विश्वव्यापी समस्या है, जिसका अनुभव हाल के वर्षों में अपने देश में भी हो रहा है, वह है पर्यावरण की दुखद स्थिति। ऋतुचक्र अनियमित व उग्र बन गया है। उपभोगवादी तथा जड़वादी अधूरे वैचारिक आधार पर चली मानव की तथाकथित विकास यात्रा मानव सहित सम्पूर्ण सृष्टि की लगभग विनाश यात्रा बन गई है। हमें अपने भारतवर्ष की परम्परा से प्राप्त सम्पूर्ण, समग्र व एकात्म दृष्टि के आधार पर अपना विकास पथ बनाना चाहिए था, परन्तु हमने ऐसा नहीं किया। अभी इस प्रकार का विचार कुछ—कुछ सुनाई दे रहा है परन्तु ऊपरी तौर पर कुछ बातें स्वीकार हुईं हैं, कुछ बातों में परिवर्तन हुआ है। इससे अधिक काम नहीं हुआ है। विकास के बहाने विनाश की ओर ले जाने वाले अधूरे विकास पथ के अंधानुकरण के परिणाम हम भी भुगत रहे हैं।
गर्मी की ऋतु झुलसा देती है, वर्षा बहा कर ले जाती है और शीत ऋतु जीवन को जड़वत् जमा देती है। ऋतुओं की यह विक्षिप्त तीव्रता हम अनुभव कर रहे हैं। जंगल काटने से हरियाली नष्ट हो गई, नदियां सूख गईं, रसायनों ने हमारे अन्न—जल—वायु व धरती तक को विषाक्त कर दिया, पर्वत ढहने लगे, भूमि फटने लगी, ये सारे अनुभव पिछले कुछ वर्षों में देशभर में हम अनुभव कर रहे हैं। अपने वैचारिक आधार पर, इस सारे नुकसान को पूरा कर हम अपना पथ धारणाक्षम, समग्र व एकात्म विकास देने वाला बनाएं, इसका कोई पर्याय नहीं है। सम्पूर्ण देश में इसकी समान वैचारिक भूमिका बने व देश की विविधता को ध्यान में रखते हुए क्रियान्वयन का विकेन्द्रित विचार हो तब यह संभव है। परन्तु हम सामान्य लोग अपने घर से तीन छोटी सरल बातों का आचरण करते हुए इसें प्रारम्भ कर सकते हैं।
पहली बात है, जल का न्यूनतम आवश्यक उपयोग तथा वर्षा जल का संग्रहण। दूसरी बात है, प्लास्टिक वस्तुओं का निषेध। जिसे अंग्रेजी में ‘सिंगल यूज प्लास्टिक’ कहते हैं, उसका उपयोग पूर्णत: बंद करना। तीसरी बात, अपने घर के साथ ही बाहर भी हरियाली बढ़े, वृक्ष लगें, अपने जंगलों के और परम्परा से लगाए जाने वाले वृक्ष सर्वत्र खड़े हों, इसकी चिंता करना। पर्यावरण के सम्बन्ध में नीतिगत प्रश्नों का समाधान होने में समय लगेगा, परन्तु यह सहज कृति अपने घर से हम तुरंत प्रारम्भ कर सकते हैं।
जहां तक संस्कारों के क्षरण का प्रश्न है, तीन स्थानों पर, जहां से संस्कार मिलते हैं वहां संस्कार प्रदान करने की व्यवस्था को पुनर्स्थापित व समर्थ, सक्षम करना पड़ेगा। शिक्षा पद्धति पेट भरने की शिक्षा देने के साथ—साथ छात्रों के व्यक्तित्व विकास का भी काम करती है। अपने देश के सांस्कृतिक मूल्यों का सारांश बताने वाला एक सुभाषित है—
मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत्,
आत्मवत् सर्व भूतेषु य: पश्यति स: पंडित:।
महिलाओं को माता समान देखने की दृष्टि, पराया धन मिट्टी समान मानते हुए स्वयं के परिश्रम व सन्मार्ग से ही धनार्जन करना, और दूसरों को कष्ट हो, ऐसे आचरण, कार्य नहीं करना, ऐसा जिसका व्यवहार है उसको अपने यहां शिक्षित मानते हैं। नई शिक्षा नीति में इस प्रकार की मूल्यपरक शिक्षा की व्यवस्था व तद्नुरूप पाठ्यक्रम बनाने का प्रयास चला है, परन्तु प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक शिक्षकों के उदाहरण छात्रों के सामने रखे बिना यह शिक्षा प्रभावी नहीं होगी। इसलिए शिक्षकों के प्रशिक्षण की नई व्यवस्था निर्माण करनी पड़ेगी। दूसरा स्थान है समाज का वातावरण। समाज के जो प्रमुख लोग हैं, जिनकी लोकप्रियता के कारण अनेक लोग उनका अनुकरण करते हैं, उनके आचरण में ये सारी बातें दिखनी चाहिए। इन बातों का प्रसार भी उन प्रमुख लोगों को करना चाहिए और उनके प्रभाव से समाज में चलने वाले विभिन्न प्रबोधन कार्यों से इस प्रकार का मूल्य प्रबोधन किया जाना चाहिए।
सोशल मीडिया का उपयोग करने वाले सभी सज्जनों के लिए इन माध्यमों का उपयोग समाज को जोड़ने के लिए है, तोड़ने के लिए नहीं, सुसंस्कृत करने के लिए है, अपसंस्कृति फैलाने के लिए नहीं, इस बात की सावधानी बरतनी होगी। परन्तु शिक्षा का मूलारम्भ व उसके कारण बनने वाली प्रवृत्ति, 3 से 12 साल तक की आयु के बालक-बालिकाओं में घर में ही बनती है। घर के बड़ों का व्यवहार, घर का वातावरण और घर में होने वाला आत्मीयतायुक्त संवाद, इनसे यह शिक्षा संपन्न होती है। हममें से प्रत्येक को अपने घर की चिंता करते हुए, अगर रोजाना यह संवाद सहज नहीं है तो साप्ताहिक आयोजन से इसका प्रारम्भ करना पड़ेगा। स्वगौरव, देश प्रेम, नीतिमत्ता, श्रेयबोध, कर्तव्यबोध आदि कई गुणों का निर्माण इसी कालावधि में होता है। यह समझकर हमको इस कार्य को स्वयं के घर से प्रारम्भ करना पड़ेगा।
संस्कारों की अभिव्यक्ति का दूसरा पहलू है हमारा सामाजिक व्यवहार। समाज में हम एक साथ रहते हैं। सब साथ में सुखपूर्वक रह सकें, इसलिए कुछ नियम बने होते हैं। देश, काल, परिस्थितिनुसार उनमें परिवर्तन भी होते रहते हैं। परन्तु हम सुखपूर्वक एकत्र रह सकें इसलिए उन नियमों के श्रद्धापूर्वक पालन की अनिवार्यता रहती है। एकत्र रहते हैं तो हमारे परस्पर व्यवहार के भी कुछ कर्तव्य और उसके अनुशासन बन जाते हैं। कानून व संविधान भी ऐसा ही एक सामाजिक अनुशासन है।
समाज में सब लोग सुखपूर्वक, एकत्र रहें, उन्नति करते रहें, बिखरें नहीं, इसलिए यह अधिष्ठान व नियम बना है। हम भारत के लोगों ने अपने आपको संविधान से यह प्रतिबद्धता दी है। संविधान की प्रस्तावना के इस वाक्य के इस भाव को ध्यान में रखकर संविधान प्रदत्त कर्तव्यों और कानून का योग्य निर्वहन सभी को करना होता है। हर तरह की स्थिति में इस नियम व्यवस्था का पालन हमें करना चाहिए। यातायात के नियम होते हैं, विभिन्न प्रकार के कर समय पर भरने पड़ते हैं, व्यक्तिगत तथा सामाजिक अर्थायाम की शुद्धता व पारदर्शिता का अनुशासन भी होता है।
ऐसे अनेक प्रकार के नियमों का कर्त्तव्यबुद्धि से पूर्ण निर्वहन होना चाहिए। नियम व व्यवस्था का पालन शब्दश: व भाव ध्यान में रखते हुए, दोनों प्रकार से करना चाहिए। यह ठीक प्रकार से हो सके, इसलिए विशेषकर अपने संविधान के चार प्रकरणों-संविधान की प्रस्तावना, मार्गदर्शक तत्व, नागरिक कर्तव्य व नागरिक अधिकार-का प्रबोधन सर्वत्र होते रहना चाहिए। परिवार से प्राप्त परस्पर व्यवहार का अनुशासन, परस्पर व्यवहार में मांगल्य, सद्भावना और भद्रता तथा सामाजिक व्यवहार में देशभक्ति व समाज के प्रति आत्मीयता के साथ कानून—संविधान का निर्दोष पालन, इन सबको मिलाकर व्यक्ति का व्यक्तिगत व राष्ट्रीय चारित्र्य बनता है। देश की सुरक्षा, एकात्मता, अखण्डता व विकास साधने के लिए चारित्र्य के इन दो पहलुओं का त्रुटिविहीन व सम्पूर्ण होना अत्यंत महत्वपूर्ण है। हम सभी को व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय चारित्र्य की इस साधना में सजगता व सातत्य के साथ लगे रहना पड़ेगा।
इन सारी बातों का आचरण सतत होता रहे, इसलिए जो प्रेरणा आवश्यक है वह ‘स्व गौरव’ की प्रेरणा है। हम कौन हैं? हमारी परम्परा और गंतव्य क्या है? भारतवासियों के नाते हमारी सब विविधताओं के बावजूद हमें जो एक बड़ी, सर्व समावेशक, प्राचीन काल से चलती आई मानवीय पहचान मिली है, उसका स्पष्ट स्वरूप क्या है? सबको इन सब बातों का ज्ञान होना आवश्यक है। उस पहचान के उज्ज्वल गुणों को धारण करके, उसका गौरव मन और बुद्धि में स्थापित होता है, तो उसके आधार पर स्वाभिमान प्राप्त होता है। स्वगौरव की प्रेरणा का बल ही जगत में हमारी उन्नति व स्वावलंबन का कारण बनने वाला व्यवहार उत्पन्न करता है।
राष्ट्रीय नीति में उसकी अभिव्यक्ति बहुत बड़ी मात्रा में, समाज में दैनंदिन जीवन में व्यक्तियों द्वारा होने वाले स्वदेशी व्यवहार पर निर्भर करती है। इसी को स्वदेशी का आचरण कहते हैं। देश का रोजगार बढ़े, सिर्फ इतना अपने देश में बाहर से लाना। जो देश में बनता है वह बाहर से नहीं लाना। जो देश में नहीं बनता, उसके बिना काम चलाना। कोई जीवनावश्यक वस्तु है, जिसके बिना काम नहीं चलता, केवल वही विदेश से लेना। घर के अन्दर भाषा, भूषा, भजन, भवन, भ्रमण और भोजन, ये सब अपना हो, अपनी परम्परा का हो, यह ध्यान रखना। सारांश में यही स्वदेशी व्यवहार है। सब क्षेत्रों में देश के स्वावलंबी बनने से स्वदेशी व्यवहार करना सरल होता है। इसलिए स्वतंत्र देश की नीति में देश के स्वावलंबी बनने का परिणाम साध सकने वाली नीति जुड़नी चाहिए। साथ ही समाज को प्रयत्नपूर्वक स्वदेशी व्यवहार को जीवन तथा स्वभाव का अंग बनाना चाहिए।
राष्ट्रीय चारित्र्य के व्यवहार का एक और महत्वपूर्ण पहलू है, किसी भी प्रकार की अतिवादिता तथा अवैध पद्धति से अपने आपको दूर रखना। अपना देश विविधताओं से भरा हुआ है। उनको हम भेद नहीं मानते, न ही मानना चाहिए। हमारी विविधताएं सृष्टि की स्वाभाविक विशिष्टताएं हैं। इतने प्राचीन इतिहास वाले, विस्तीर्ण क्षेत्रफल तथा विशाल जनसंख्या वाले देश में ये सभी विशिष्टताएं स्वाभाविक हैं। अपनी-अपनी विशिष्टता का गौरव तथा उनके प्रति अपनी-अपनी संवेदनशीलताएं भी स्वाभाविक हैं। इस विविधता के चलते समाज जीवन व देश के संचालन में होने वाली सब बातें सदा-सर्वदा सबके अनुकूल अथवा सबको प्रसन्न करने वाली होंगी ही, ऐसा नहीं होता। ये सारी बातें किसी एक समाज के द्वारा होती हैं, ऐसा नहीं है। इनकी प्रतिक्रिया में कानून और व्यवस्था को धता बताकर अवैध या हिंसात्मक मार्ग से उपद्रव खड़े करना, समाज के किसी एक सम्पूर्ण वर्ग को उनका जिम्मेदार मानना, मन—वचन—कर्म से मर्यादा का उल्लंघन करते हुए चलना, यह देश के लिए, देश में किसी के भी लिए न विहित है न हितकारी। सहिष्णुता व सद्भावना भारत की परंपरा है।
असहिष्णुता व दुर्भावना भारत विरोधी व मानव विरोधी दुर्गुण है। इसलिए क्षोभ कितना भी हो, ऐसे असंयम से बचना चाहिए तथा अपने लोगों को बचाना चाहिए। अपने मन, वाणी अथवा कृति से किसी की श्रद्धा, श्रद्धास्पद स्थान, महापुरुष, ग्रंथ, अवतार, संत आदि का अपमान न हो, इसका ध्यान स्वयं के व्यवहार में रखना चाहिए। दुर्भाग्यवश अन्य किसी से ऐसा कुछ होने पर भी, स्वयं पर नियंत्रण रखकर ही चलना चाहिए। सब बातों के परे, सब बातों के ऊपर महत्व समाज की एकात्मता, सद््भाव व सद् व्यवहार का है। यह किसी भी काल में, किसी भी राष्ट्र के लिए परम सत्य है तथा लोगों के सुखी अस्तित्व तथा सहजीवन का एकमात्र उपाय है।
लेकिन जैसे आधुनिक जगत की रीति है, सत्य को सत्य के अपने मूल्य पर जगत स्वीकार नहीं करता। जगत शक्ति को स्वीकार करता है। भारतवर्ष बड़ा है, इसलिए वह विश्व में अंतरराष्ट्रीय व्यवहार में सद्भावना व संतुलन उत्पन्न करके उसे शान्ति और बंधुता की ओर बढ़ाएगा, यह विश्व के सब राष्ट्र जानते हैं। फिर भी अपने संकुचित स्वार्थ और अहंकार या द्वेष को लेकर भारतवर्ष को एक मर्यादा में बांधकर रखने की शक्तिशाली देशों की चेष्टा को हम सब अनुभव करते हैं। भारतवर्ष की शक्ति जितनी बढ़ेगी, उतनी ही भारतवर्ष की स्वीकार्यता बढ़ेगी।
‘बलहीनों को नहीं पूछता, बलवानों को विश्व पूजता’। इसलिए उपरोक्त सद््भाव व संयमपूर्ण वातावरण की स्थापना के लिए सज्जनों को शक्तिसंपन्न होना ही पड़ेगा। शक्ति जब शीलसंपन्न होकर आती है तब वह शान्ति का आधार बनाती है। दुर्जन स्वार्थ के लिए एकत्र और सजग रहते हैं। सज्जन सबके प्रति सद्भाव रखते हैं, परन्तु एकत्र होना नहीं जानते। इसीलिए वे दुर्बल दिखाई देते हैं। उनको यह संगठित सामर्थ्य के निर्माण की कला सीखनी पड़ेगी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिन्दू समाज की इसी शीलसंपन्न शक्ति साधना का नाम है।
जैसा पहले बताया, इसके पूर्व वर्णित सद् व्यवहार के पांच बिंदु लेकर समाज में सज्जनों को जोड़ने का विचार संघ के स्वयंसेवक कर रहे हैं। जो भारत को बढ़ने नहीं देना चाहते, अपने स्वार्थ के लिए ऐसे भारत विरोधियों के साथ होने वाले तथा स्वभाव से जो वैर और द्वेष में ही आनंद मानती हैं, ऐसी शक्तियों से सुरक्षित रहकर देश को आगे बढ़ना है। इसलिए शीलसंपन्न व्यवहार के साथ शक्ति साधना भी महत्वपूर्ण है। इसलिए संघ की प्रार्थना में, कोई परास्त न कर सके, ऐसी शक्ति और विश्व विनम्र हो ऐसा शील प्रभु से मांगा गया है।
विश्व के, मानवता के कल्याण का कोई काम अनुकूल परिस्थिति में भी इन दो गुणों के बिना संपन्न नहीं होता। नौ अहोरात्रि जागरण करते हुए सभी देवताओं ने अपनी-अपनी शक्तियों को एक में संगठित किया तब उस शीलसंपन्न संगठित शक्ति से चिन्मयी जगदम्बा जागीं, दुष्टों का निर्दलन हुआ, सज्जनों का परित्राण हुआ, विश्व का कल्याण हुआ। इसी विश्व मंगल साधना में मौन पुजारी के नाते संघ लगा है। हम सबको यही साधना अपनी पवित्र मातृभूमि को परमवैभव संपन्न बनाने की शक्ति व सफलता प्रदान करेगी। इसी साधना से विश्व के सभी राष्ट्र अपना-अपना उत्कर्ष साधकर एक नया, सुख-शान्ति व सद््भावना युक्त विश्व बनाने में अपना योगदान प्रदान करेंगे। उस साधना में आप सभी सादर निमंत्रित हैं।
हिन्दू भूमि का कण कण हो अब, शक्ति का अवतार उठे,
जल-थल से अम्बर से फिर, हिन्दू की जय जयकार उठे,
जग जननी की जयकार उठे।
भारत माता की जय।
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