राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत ने कहा कि बहुदलीय प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली में सत्ता प्राप्त करने के लिए दलों के बीच स्पर्धा चलती है। उन्होंने कहा कि अगर समाज में विद्यमान छोटे स्वार्थ, परस्पर सद्भावना अथवा राष्ट्र की एकता व अखंडता से अधिक महत्वपूर्ण हो गये; अथवा दलों की स्पर्धा में समाज की सद्भावना व राष्ट्र का गौरव व एकात्मता गौण माने गए, तो ऐसी दलीय राजनीति में एक पक्ष की सहायता में खड़े होकर पर्यायी राजनीति के नाम पर अपनी उच्छेदक कार्यसूची को आगे बढ़ाना इनकी कार्यपद्धति है। यह कपोल-कल्पित कहानी नहीं बल्कि दुनिया के अनेक देशों पर बीती हुई वास्तविकता है। पाश्चात्य जगत के प्रगत देशों में इस मंत्रविप्लव के परिणाम स्वरूप जीवन की स्थिरता, शांति व मांगल्य संकट में पड़ा हुआ प्रत्यक्ष दिखाई देता है। तथाकथित “अरब स्प्रिंग” से लेकर अभी-अभी पड़ोस के बांग्लादेश में जो घटित हुआ वहां तक इस पद्धति को काम करते हुए हमने देखा है। भारत के चारों ओर के-विशेषतः सीमावर्ती तथा जनजातीय जनसंख्या वाले प्रदेशों में इसी प्रकार के कुप्रयासों को हम देख रहे हैं।
वह विजयदशमी के मौके पर नागपुर के रेशमबाग स्थित मैदान में दशहरा उत्सव को संबोधित कर रहे थे। सांस्कृतिक एकात्मता एवं श्रेष्ठ सभ्यता की सुदृढ़ आधारशिला पर अपना राष्ट्र जीवन खड़ा है। अपना सामाजिक जीवन उदात्त जीवन मूल्यों से प्रेरित एवं पोषित है। अपने ऐसे राष्ट्र जीवन को क्षति पहुँचाने के अथवा नष्ट करने के उपरोक्त कुप्रयासों को समय पूर्व ही रोकना आवश्यक है। इस हेतु जागरूक समाज को ही प्रयत्न करना पड़ेगा। इसके लिए अपने संस्कृतिजन्य जीवन दर्शन तथा संविधान प्रदत्त मार्ग से लोकतंत्रीय योजना बनानी चाहिए। एक सशक्त विमर्श खड़ा करते हुए, वैचारिक एवं सांस्कृतिक प्रदूषण फैलाने वाले इन षड्यंत्रों से समाज को सुरक्षित रखना समय की आवश्यकता है।
विभिन्न तंत्रों तथा संस्थानों के द्वारा कराए गए विकृत प्रचार व कुसंस्कार भारत में, विशेषतः नयी पीढ़ी के मन वचन कर्मों को बहुत बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। बड़ों के साथ बच्चों के हाथों में भी चल दूरभाष पहुंच गया है, वहां क्या दिखा रहे हैं और बच्चे क्या देख रहे हैं इस पर नियंत्रण नहीं के बराबर है। उस सामग्री का उल्लेख करना भी भद्रता का उल्लंघन होगा इतनी वह बीभत्स है। अपने-अपने घर-परिवारों में हमारे तथा समाज में विज्ञापनों तथा विकृत दृक् श्राव्य सामग्री पर कानून के नियंत्रण की त्वरित आवश्यकता प्रतीत होती है। युवा पीढ़ी में जंगल में आग की तरह फैलने वाली नशीले पदार्थों की आदत भी समाज को अंदर से खोखला कर रही है। अच्छाई की ओर ले जाने वाले संस्कार पुनर्जीवित करने होंगे।
संस्कार क्षय का ही यह परिणाम है कि “मातृवत परदारेषु” के आचरण की मान्यता वाले इस हमारे देश में बलात्कार जैसी घटनाओं का मातृशक्ति को कई जगह सामना करना पड़ रहा है। कोलकाता के आर.जी. कर अस्पताल में घटी घटना सारे समाज को कलंकित करने वाली लज्जाजनक घटनाओं में एक है। उसके निषेध तथा त्वरित व संवेदनशील कार्यवाही की मांग को लेकर चिकित्सक बंधुओं के साथ सारा समाज तो खड़ा हुआ। परन्तु ऐसा जघन्य पाप घटने पर भी, कुछ लोगों के द्वारा जिस प्रकार अपराधियों को संरक्षण देने के घृणास्पद प्रयास हुए, यह सब अपराध, राजनीति तथा अपसंस्कृति का गठबंधन हमें किस तरह बिगाड़ रहा है यह दिखाता है।
महिलाओं की ओर देखने की हमारी दृष्टि – “मातृवत् परदारेषु” – हमारी सांस्कृतिक देन है जो हमें हमारी संस्कार परम्परा से प्राप्त होती है। परिवारों में, तथा समाज जिन से मनोरंजन के साथ ही जाने-अनजाने प्रबोधन भी प्राप्त कर रहा है, उन माध्यमों में इस का भान न रहना, इन मूल्यों की उपेक्षा या तिरस्कार होना बहुत महंगा पड़ रहा है। हमें परिवार, समाज तथा संवाद माध्यमों के द्वारा इन सांस्कृतिक मूल्यों के प्रबोधन की व्यवस्था को फिर से जागृत करना होगा।
आज भारत में सर्वत्र संस्कारों के क्षरण व विभेदकारी तत्वों के समाज को तोड़ने के खेलों की परिस्थिति दिखाई देती है। सामान्य समाज को जाति भाषा प्रान्त आदि छोटी विशेषताओं के आधार पर अलग कर टकराव उत्पन्न करने का प्रयास चला है। छोटे स्वार्थ व छोटी पहचानों में उलझकर सर पर मंडराते सबको खाने वाले संकट को बहुत देर होते तक समाज समझ न सके यह व्यवस्था की जा रही है। इसके चलते आज देश की वायव्य सीमा से लगे पंजाब, जम्मू-कश्मीर, लद्दाख; समुद्री सीमा पर स्थित केरल, तमिलनाडु; तथा बिहार से मणिपुर तक का सम्पूर्ण पूर्वांचल अस्वस्थ है। इस भाषण में पूर्व में उल्लेखित सारी परिस्थिति इन सब प्रदेशों में भी उपस्थित है।
देश में बिना कारण कट्टरपन को उकसाने वाली घटनाओं में भी अचानक वृद्धि हुई दिख रही है। परिस्थिति या नीतियों को लेकर मन में असंतुष्टि हो सकती है परन्तु उसको व्यक्त करने के और उनका विरोध करने के प्रजातांत्रिक मार्ग होते हैं। उनका अवलंबन न करते हुए हिंसा पर उतर आना, समाज के एकाध विशिष्ट वर्ग पर आक्रमण करना, विना कारण हिंसा पर उतारू होना, भय पैदा करने का प्रयास करना, यह तो गुंडागर्दी है। इसको उकसाने के प्रयास होते हैं अथवा योजनाबद्ध तरीके से किया जाता है ऐसे आचरण को पूज्य डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर जी ने अराजकता का व्याकरण (Grammar of Anarchy) कहा है। अभी बीत गए गणेशोत्सवों के समय श्रीगणपति विसर्जन की शोभायात्राओं पर अकारण पथराव की तथा तदुपरान्त बनी तनावपूर्ण परिस्थिति की घटनाएं उसी व्याकरण का उदाहरण है। ऐसी घटनाओं को होने नहीं देना, वो होती हैं तो तुरंत नियंत्रित करना, उपद्रवियों को त्वरित दण्डित करना यह प्रशासन का काम है। परन्तु उनके पहुँचने तक तो समाज को ही अपने तथा अपनों के प्राणों की व सम्पत्ती की रक्षा करनी पड़ती है। इसलिए समाज ने भी सदैव पूर्ण सतर्क व सन्नद्ध रहने की तथा इन कुप्रवृत्तियों को, उन्हें प्रश्रय देने वालों को पहचानने की आवश्यकता उत्पन्न हो गयी है ।
परिस्थिति का उपरोक्त वर्णन यह डरने, डराने या लड़ाने के लिए नहीं है। ऐसी परिस्थिति विद्यमान है यह हम सब अनुभव कर रहे हैं। साथ में इस देश को एकात्म, सुख शान्तिमय समृद्ध व बलसंपन्न बनाना यह सबकी इच्छा है, सबका कर्तव्य भी है। इसमें हिन्दू समाज की जिम्मेवारी अधिक है। इसलिए समाज की एक विशिष्ठ प्रकार की स्थिति, सजगता तथा एक विशिष्ट दिशा में मिलकर प्रयासों की आवश्यकता है। समाज स्वयं जगता है, अपने भाग्य को अपने पुरुषार्थ से लिखता है तब महापुरुष, संगठन, संस्थायें, प्रशासन, शासन आदि सब सहायक होते हैं। शरीर की स्वस्थ अवस्था में क्षरण पहले आता है, बाद में रोग उसको घेरते हैं। दुर्बलों की परवाह देव भी नहीं करते ऐसा एक सुभाषित प्रसिद्ध है।
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