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जीवन का आनंद रफ्तार में नहीं

ईवाई की कर्मचारी एना सेबेस्टियन मामले की सूक्ष्मता से विश्लेषण करने पर तीन पहलू सामने आते हैं- कर्मचारी, नियोक्ता और कानून। कानून भले ही सख्त हो, उसका ठीक से पालन नहीं किया जाता है

by Rajpal Singh Rawat
Oct 8, 2024, 07:02 pm IST
in भारत, मत अभिमत
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हाल ही में बजाज फाइनेंस के एक प्रबंधक तरुण सक्सेना ने अत्यधिक काम के दबाव और अपने वरिष्ठों द्वारा अपमानित किए जाने के कारण आत्महत्या कर ली। पेशेवर व व्यक्तिगत जीवन के बीच संतुलन जरूरी है, ताकि व्यक्ति नौकरी से संतुष्ट रहने के साथ व्यक्तिगत मोर्चे पर भी खुश रह सके।

डॉ. राजीव मेहता
वरिष्ठ सलाहकार मनोचिकित्सक,
सर गंगाराम अस्पताल

यदि कोई कार्य स्थल पर पर्याप्त योगदान दे रहा है, तो उसे अपने परिवार और सगे-संबंधियों के साथ गुणवत्ता पूर्ण समय व्यतीत करने के लिए भी समय चाहिए। लेकिन ऐसा होता नहीं है, क्योंकि कामकाजी जीवन संतुलन की परिभाषा कर्मचारियों के प्रति विषम, पक्षपातपूर्ण और पूर्वाग्रह से ग्रस्त प्रतीत होती है। कामकाजी जीवन संतुलन की बात होती है, तो इसे हासिल करने की जिम्मेदारी कर्मचारी पर ही डाल दी जाती है, जबकि यह सब की समान जिम्मेदारी है।

ईवाई की कर्मचारी एना सेबेस्टियन मामले की सूक्ष्मता से विश्लेषण करने पर तीन पहलू सामने आते हैं- कर्मचारी, नियोक्ता और कानून। कर्मचारी अपने निजी जीवन से समझौता कर कड़ी मेहनत करता है। कोई लंबे समय तक काम कर रहा है तो इसका अर्थ हुआ कि या तो वह बहुत महत्वाकांक्षी है या अपनी नौकरी बचाए रखने की उसकी मजबूरी। महत्वाकांक्षी होना गलत बात नहीं है, लेकिन बहुत जल्दी सब कुछ हासिल करने की प्रवृत्ति व्यक्तिगत और कामकाजी जीवन के संतुलन को खतरे में डाल सकती है। इसलिए आरामदायक गति से काम करना चाहिए।

याद रखें, 100 किमी. प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ने वाली कार से यात्रा का आनंद नहीं लिया जा सकता, लेकिन यदि रफ्तार धीमी हो तो यात्रा का भरपूर आनंद लिया जा सकता है। इसी तरह, अत्यधिक काम के दबाव के बीच व्यक्ति अपने व्यक्तिगत जीवन के लिए भी समय निकाले और नियमित अंतराल पर परिवार और दोस्तों के साथ समय बिताए। नियमित व्यायाम और योग तनाव से निपटने का एक अच्छा तरीका है। खासतौर से नशीली दवाओं के सेवन और डिजिटल माध्यमों से बचना चाहिए। कर्मचारी को कार्यस्थल पर काम का अनुचित दबाव पैदा करने वाले मुद्दों पर मुखरता से अपना पक्ष रखना चाहिए। पेशेवर काम को कार्यालय तक ही सीमित रखना चाहिए। न तो इसे घर ले जाना चाहिए और न ही व्यक्तिगत समय में इसके बारे में बात करनी चाहिए।

हालांकि, इनमें से कई बातें नियोक्ता पर निर्भर करती हैं। कार्यस्थल पर काम का माहौल सौहार्दपूर्ण बनाना नियोक्ता का कर्तव्य और जिम्मेदारी है। नियोक्ताओं को अपने कर्मचारियों को इनसान के तौर पर लेना चाहिए, न कि मुनाफा कमाने की मशीन के रूप में। नियोक्ता को अपना लक्ष्य तय करने का अधिकार है, लेकिन अपने कर्मचारियों के स्वास्थ्य की कीमत पर नहीं। कर्मचारी की शिकायतों को सहानुभूति और प्राथमिकता के साथ सुना जाना चाहिए।
यदि कोई व्यक्ति आत्महत्या करता है या उसकी मृत्यु हो जाती है, तो इसका मतलब यह नहीं कि उसमें तनाव सहन करने की क्षमता नहीं थी। इसे उसकी विफलता की बजाए इस तरह से देखा जाना चाहिए कि वह बार-बार पड़ने वाले दबाव से बोझिल हो जाता है, जिसके कारण उस पर नकारात्मकता हावी हो जाती है। एना और तरुण के साथ यही तो हुआ।

अब बात कानूनी पहलू की। कानून भले ही कितना भी सख्त क्यों न हो, उसका ठीक से पालन नहीं किया जाता है। काम के घंटों और पर्यावरण को परिभाषित करने वाले कानून हैं, लेकिन वे केवल कागजों तक सीमित हैं। व्यावहारिक रूप से कॉरपोरेट में कर्मचारी बहुत लंबे समय तक और अत्यधिक दबाव में काम करते हैं। इसलिए कानून का सख्तीसे पालन किया जाना चाहिए।

यदि हम अपने युवाओं को खुश और प्रगति करते हुए देखना चाहते हैं तो समग्र रूप से समाज का यह कर्तव्य है कि उन्हें कामकाजी जीवन संतुलन हासिल करने में सहायता करें।

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