आज हर व्यक्ति दुखी व उद्विग्न है। सभी को अभाव की शिकायत है। किसी को धन की कमी तो किसी को शारीरिक अक्षमता की। किसी को बौद्धिक क्षमता का अभाव खटकता है तो किसी को मानसिक शक्ति व संतुलन का। सुरदुर्लभ मानव जीवन के प्रति व्यक्ति की आस्थाएं आज गड़बडा गयी हैं। अचिन्त्य चिन्तन और अशक्ति से उपजा तनाव विस्फोटक होता जा रहा है। सच्ची प्रसन्नता व प्रफुल्लता अपवाद स्वरूप ही कहीं दिखायी देती है।
इन विषम परिस्थितियों का कारण है मनुष्य की ऊर्जाओं और शक्तियों का यत्र-तत्र बिखरा होना। आज का हर मानव अपने जीवन की समस्याओं से मुक्ति तो चाहता है। पर कैसे? निसंदेह शक्ति के अवलम्बन से। सनातन वैदिक दर्शन में नवरात्र के नौ दिवसीय साधनाकाल को शक्ति के अर्जन के लिए सर्वाधिक फलदायी समय माना गया है।
सर्वविदित है बिखराव से शक्ति का अपव्यय हो जाता है पर यदि उसे केन्द्रीकृत कर दिया जाये तो असाधारण ऊर्जा उत्पन्न हो जाती है। उदाहरण के तौर जिस तरह बारूद के ढेर को यदि यूं ही इधर उधर बिखेर कर उसमें आग लगा दी जाए तो वह भक से जल उठेगी लेकिन यदि वही बारूद यदि एक कारतूस में भरकर बन्दूक से निशाना लगाया जाये तो वह कठोर से कठोर लक्ष्य को आसानी से भेद देगी। ठीक उसी तरह नवरात्र के नौ दिनों में यदि संकल्पपूर्वक आन्तरिक दृढ़ता के साथ मां शक्ति की भावपूर्ण उपासना की जाए तो चमत्कारी नतीजे हासिल किये जा सकते हैं।
विभिन्न साधनापरक शोधों के आधार पर भारतीय ऋषि मनीषा नवरात्र के देवपर्व को अध्यात्म के क्षेत्र में मुहुर्त विशेष की मान्यता दी है क्योंकि सूक्ष्म जगत के दिव्य प्रवाह मानवीय चेतना को गहराई से प्रभावित करते हैं। ऋतुओं के संधिकाल की इस विशिष्ट बेला में देवशक्तियां स्वर्ग से धरती पर उतरती हैं और सुपात्रों को अप्रत्याशित अनुदान वरदान बांटती हैं। इसीलिए इस दिव्य साधनाकाल यथासंभव सदुपयोग लाभ हर सनातनधर्मी को उठाना ही चाहिए।
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज के ‘ब्रह्मवर्चस्व शोध संस्थान’ तथा ‘देवसंस्कृति विश्वविद्यालय’ में नवरात्रिक साधनाओं पर हुए व्यापक शोध के नतीजे खासे उत्साहित करने वाले हैं। इन शोध निष्कर्षों का सार यह है कि नवरात्र काल में की गयी छोटी सी अनुष्ठानपरक साधना से न केवल मन-मस्तिष्क के भावनात्मक असंतुलन का निदान होता होता है वरन हृदय की आन्तरिक शक्ति भी बढ़ती है। इस साधना से संचित शक्ति से मनुष्य के अंतस में न सिर्फ आध्यात्मिक ऊर्जा का जागरण होता है वरन व्यक्तित्व विकास की यह साधना साधक को आत्मसाक्षात्कार की राह भी दिखाती है। चूंकि यह समय सूर्य की स्थिति के कारण स्वास्थ्य के लिहाज से भी खास होता है अतः शरीर को शुद्ध और मन को शांत बनाये रखने के लिए नवरात्र काल में खानपान की मर्यादा भी निर्धारित की जाती है जिसके परिणाम भी सकारात्मक देखे गये हैं। हल्का, सुपाच्य भोजन या फलाहार न सिर्फ हमारे कायतंत्र की क्षमता को बढ़ता है वरन हमारा शरीर स्वस्थ व स्फूर्तिवान बना रहता है।
यूं भी हम सभी जानते हैं कि हमारा मस्तिष्क हमारे समूचे कायतंत्र का संचालक व विचारधाराओं का उद्गम केन्द्र है। वैज्ञानिक प्रयोगों से साबित हो चुका है कि चिन्तित, अशान्त और अर्द्धविक्षिप्त मन अनेकानेक विपदाएं खड़ी करता है। जबकि ध्यान व साधना से न सिर्फ मन व मस्तिष्क शांत और प्रसन्नचित्त रहता है वरन इससे हमारी शारीरिक क्षमताएं भी बढ़ती हैं। शांत और प्रसन्न मन हमारी प्रगति और अभ्युदय के द्वार भी खोलता है। वस्तुत: मानसिक उद्विग्नता व तनाव आदि व्याधियां और कुछ नहीं बस चिन्तनधारा का गड़बड़ा जाना भर है। मानसिक दृढ़ता से हम प्रत्येक स्थिति में तनाव मुक्त रह सकते हैं। इसके लिए जरूरी है मां शक्ति की उपासना से मन को साधना।
देवी भागवत के “दुर्गा सप्तशती” अंश में भगवती दुर्गा की अभ्यर्थना पुरुषार्थ साधिका देवी के रूप में की गयी है। इसके पीछे शक्ति की महत्ता का दिव्य तत्वदर्शन निहित है। भारतीय मनीषा करती है कि पशु प्रवृत्तियां तभी प्रबल होती हैं जब मानव समाज में सात्विकता व नैतिकता का हृास हो जाता है। समाज में व्याप्त पाशविक शक्तियों के विनाश के लिए प्रस्तुत नवरात्र काल श्रद्धालुओं को आत्मसुधार की साधना का अत्यन्त फलदायी सुअवसर प्रदान करता है।
इन दिनों समस्त देव शक्तियों की एकीकृत महाशक्ति के रूप में माँ दुर्गा का आवाहन किया जाता है। मां दुर्गा का वाहन सिंह बल, शक्ति व निर्भयता का प्रतीक है। उनकी दस भुजाएं दस दिशाओं में शक्ति संगठन के सूचक हैं। देवी दुर्गा दुर्गति नाशिनी हैं, समस्त दुखों का नाश करने वाली हैं। दुर्गा शब्द का यही निहितार्थ है। समझना चाहिए कि प्रत्येक असुर हमारी दुष्प्रवृत्ति का प्रतीक है, जिनका विनाश दुर्गा जैसी दुगर्तिनाशिनी शक्ति के द्वारा ही हो सकता है। इसी तरह सद्बुद्धि की अधिष्ठात्री मां गायत्री की नवरात्र साधना भी साधक को अनूठे अनुदान देती हैं।
मां गायत्री के सिद्ध साधक महामनीषी पं. श्रीरामशर्मा आचार्य नवरात्र साधना की युगानुकूल व्याख्या करते हुए कहते है, “मां भगवती की प्रतिमा के समक्ष बैठकर मंत्रपाठ कर लेने मात्र से पूजन का फल नहीं मिलता। इसके लिए संकल्प एवं पुरुषार्थ दोनों आवश्यक होते हैं। मां की कृपा पाने के लिए व्रत लेना पड़ता है, पवित्र भावनाओं से मन की और उपवास के द्वारा चित्त की शुद्धि करनी पड़ती है। जो देवी साधक इन संकल्पों के साथ नवरात्र के शुभकाल में भगवती की भावपूर्ण आराधना करते हैं वे कर्म अभिमान से मुक्त हो जाते हैं और उनका जीवन शांत-निर्विघ्न व श्री-शक्ति से सम्पन्न हो जाता है।
वर्तमान के आपाधापी और तेजी से दौड़ते समय में जब आम आदमी के पास न कड़ी तपश्चर्या का समय है और न ही उतना सुदृढ़ मनोबल; इसलिए यदि नौ दिनों के इस विशिष्ट साधनाकाल में जब वातावरण में परोक्ष रूप से देवी शक्तियों के अप्रत्याशित अनुदान बरसते हों, यदि छोटी सी संकल्पित साधना की जा सके तो ईशकृपा सहज ही प्राप्त की जा सकती है।
नवदुर्गा में परिलक्षित होते हैं के स्त्री जीवन के विविध पड़ाव
नवरात्र काल में देशभर के देवी भक्त आदिशक्ति मां दुर्गा के नौ रूपों की पूजा-अर्चना करते हैं। शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंधमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री। पर क्या आप इस दिलचस्प व गूढ आध्यात्मिक तथ्य से अवगत हैं कि देवी दुर्गा के ये नौ स्वरूप स्त्री जीवन के विविध पड़ावों को परिलक्षित करते हैं। मां दुर्गा का “शैलपुत्री” स्वरूप स्त्री के कन्या रूप का, दूसरा “ब्रह्मचारिणी” स्वरूप स्त्री की कौमार्य अवस्था का,तीसरा “चंद्रघंटा” स्वरूप विवाह से पूर्व तक चंद्रमा के समान निर्मल होने का, चौथा “कूष्मांडा” स्वरूप नए जीव को जन्म देने के लिए गर्भ धारण की अवस्था का, पांचवा “स्कन्दमाता” स्वरूप संतान को जन्म देने वाली माता का, छठा “कात्यायनी” स्वरूप संयम व साधना को धारण करने वाली स्त्री का, सातवां “कालरात्रि” स्वरूप अपने संकल्प से पति की अकाल मृत्यु को भी जीत लेने वाली स्त्री का, आठवां “महागौरी” स्वरूप संसार का उपकार करने वाली शक्ति का तथा नवां “सिद्धिदात्री” स्वरूप स्वर्ग प्रयाण करने से पहले संसार में अपनी संतान को सिद्धि (समस्त सुख-संपदा) का आशीर्वाद देने वाली महाशक्ति का होता है।
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