मंदिर की संपत्ति के प्रबंधन में सरकार की भागीदारी की सीमा देश के धार्मिक और सांस्कृतिक लोकाचार गहन बहस का विषय रही है। प्रसाद को लेकर हाल के विवाद के बाद देशभर में मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की मांग जोर पकड़ रही है। श्रद्धालुओं से मिलने वाले दान के कारण तिरुमला तिरुपति देवस्थानम, केरल के सबरीमला मंदिर और महाराष्ट्र के शिरडी साईं जैसे मंदिरों की गिनती दुनिया के सबसे धनी धार्मिक प्रतिष्ठानों में होती है। उदाहरण के लिए, तिरुमला तिरुपति देवस्थानम देश के सबसे धनी मंदिरों में से एक है।
इसका सालाना राजस्व 3,000-4,000 करोड़ रुपये है। इसे 1933 में राज्य के अधीन लाया गया था। इस हिसाब से इसका संचयी राजस्व लगभग 1.8 लाख से 2 लाख करोड़ रुपये होने का अनुमान है। वहीं, सालाना लगभग 200-250 करोड़ की आय वाला शबरीमला मंदिर 1950 से सरकारी नियंत्रण में है यानी बीते 74 वर्ष में सरकारी खजाने में 13,000 से 16,000 करोड़ रुपये जुड़ गए। उसी प्रकार, सालाना लगभग 300 करोड़ की आय वाला शिरडी साईं मंदिर 1922 से राज्य सरकार के नियंत्रण में है, जिसका संचयी राजस्व 102 वर्ष में 29,000 करोड़ रुपये है।
सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडीज के 2016 के एक अध्ययन के अनुसार, देश के प्रमुख हिंदू मंदिरों के पास लगभग 5 लाख करोड़ रुपये की संपत्ति है। वहीं, नेशनल इंस्टीट्यूट आफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी-2019 के एक अध्ययन की माने तो देश की जीडीपी में धार्मिक पर्यटन (हिंदू तीर्थयात्रा) की हिस्सेदारी लगभग 2.32 प्रतिशत है। दरअसल, मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण की शुरुआत ब्रिटिश काल से शुरू हुई। लेकिन आजादी के बाद अंग्रेजों की बनाई हुई व्यवस्था को खत्म करने की बजाए सरकारें अपना दखल बढ़ाती गईं।
इसी क्रम में तमिलनाडु हिंदू धार्मिक एवं धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम-1959 जैसे कानूनों ने मंदिरों पर राज्य सरकारों के नियंत्रण को औपचारिक बना दिया। इस कानून से सरकारों को ट्रस्टी नियुक्त करने, मंदिर की संपत्तियों का प्रबंधन करने और मंदिर के धन को खर्च करने का निर्देश देने का अधिकार मिल गया।
हिंदू धार्मिक-सामाजिक संगठनों का कहना है कि मंदिरों पर राज्य सरकारों का नियंत्रण भेदभावपूर्ण है। सिर्फ हिंदुओं के मंदिरों को ही सरकारी नियंत्रण में रखा गया है, जबकि मस्जिद और चर्च को पूरी तरह मुक्त रखा गया है।
इस असमानता के कारण हिंदू मंदिरों की स्वायत्तता की मांग की जोर पकड़ रही है। यह तर्क भी दिया जा रहा है कि मंदिरों को राजस्व की प्राप्ति मुख्यत: दान से होती है, इसलिए सरकार की बजाए इनका प्रबंधन हिंदू समाज द्वारा ही किया जाए। मंदिर के कामकाज में सरकार का दखल संविधान के अनुच्छेद-25 का उल्लंघन है, जो धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है। इसलिए यह मुद्दा कानूनी या संवैधानिक ही नहीं, बल्कि राजनीतिक रूप से भी संवेदनशील है। हिंदू संगठनों का मानना है कि मंदिर के राजस्व पर राज्य का नियंत्रण बहुसंख्यक समाज के धर्म के विरुद्ध पूर्वाग्रह को दर्शाता है। क्यों सिर्फ हिंदू मंदिर ही सरकार के अधीन हैं? चर्च और मस्जिद क्यों नहीं?
अमेरिका में चर्च, मस्जिद, मंदिर और अन्य उपासना स्थल कर मुक्त होने के साथ-साथ स्वतंत्र रूप से अपना वित्त प्रबंधन करते हैं। ब्रिटेन में भी यही व्यवस्था है। वहां पांथिक संस्थाएं बिना किसी सरकारी दखल के अपने राजस्व को नियंत्रित करती हैं। विख्यात अधिवक्ता फली एस नरीमन ने एक बार कहा था कि सरकार पंथनिरपेक्ष गतिविधियों को विनियमित कर सकती है, लेकिन जिस क्षण वह किसी संस्था के धार्मिक सत्व में हस्तक्षेप करती है, वह खतरनाक जमीन पर कदम रख देती है, जहां संवैधानिक अधिकारों को कुचला जा सकता है। उनकी चेतावनी आज भी प्रासंगिक है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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