जब भी अंतरधार्मिक शादी की बात आती है तो कांग्रेस के नेताओं का यह राजनीतिक स्टैंड रहता है कि प्यार में धर्म आदि आड़े नहीं आना चाहिए। हालांकि व्यक्तिगत स्टैंड क्या होता है वह कभी भी सामने नहीं आता है। पिछले दिनों ऐसे ही एक किस्सा मीडिया में फिर से आया, मगर वह जैसे आया वैसे ही चला गया। यह एक अधूरी प्रेम कहानी थी। यह प्रेम कहानी थी जवाहर लाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित और सैय्यद हुसैन की। इसमें जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी का भी नाम आता है।
इस प्रेम कहानी में एक युवती का प्रेम पनपता है और परणति निकाह तक भी पहुंचती है, लेकिन यह कहानी अधूरी ही रह जाती है। जो मंदिरों तक में नमाज आदि के पक्षधर थे, उन्होंने विजयलक्ष्मी पंडित और सैयद हुसैन के निकाह को मुकम्मल नहीं होने दिया था। यह विषय हाल ही में Circles of Freedom नामक पुस्तक के विमोचन पर लेखक टीसीए राघवन के साथ एक वार्ता में उभरकर आया था। लेखक ने बताया था कि मोतीलाल नेहरू के लिए सैयद हुसैन और विजयलक्ष्मी पंडित का प्रेम-प्रसंग सिरदर्द बन गया था।
भारत की स्वतंत्रता के उपरांत सैयद हुसैन को काइरो में राजदूत बनाकर भेज दिया गया था और एक प्रकार से इस कथा का अंत कर दिया गया था कि सैयद हुसैन को एकदम गायब ही कर दिया जाए। इस प्रेम कहानी को आज भी किताबों में कहा जा रहा है और लेख लिखे जा रहे हैं।
इसका आरंभ आनंद भवन में तब हुआ जब वर्ष 1919 में सैयद हुसैन को इलाहाबाद आधारित इंडिपेंडेंट में मोतीलाल नेहरू ने संपादक नियुक्त किया। 30 वर्षीय हुसैन की मुलाकात आनंद भवन में ही स्वरूप अर्थात विजय लक्ष्मी पंडित से हुई। यह मुलाकात जल्दी ही प्रेम में बदल गई और फिर एक दिन उन लोगों ने छिपकर निकाह कर लिया।
डेक्कन क्रोनिकल में शुभा चौधरी ने A Forgotten Ambassador in Cairo नामक पुस्तक के विषय में लिखा था कि इस निकाह के बाद हुसैन के साथ बहुत कुछ अनापेक्षित हुआ। उन्होंने लिखा, ‘क्रोधित तिकड़ी – मोहनदास गांधी, मोतीलाल नेहरू और जवाहरलाल नेहरू – ने दोनों को तलाक के लिए राजी किया। इसलिए नहीं कि स्वरूप 12 साल छोटी थी बल्कि इसलिए कि हुसैन मुस्लिम थे। स्वरूप को बाद में साबरमती आश्रम भेजा गया, शायद “अपने पाप धोने के लिए”। बाद में 1921 में गुजरात के सारस्वत ब्राह्मण रंजीत सीताराम पंडित से उनकी शादी हुई और दुनिया उन्हें विजयलक्ष्मी पंडित के नाम से जानती थी। हुसैन ने कभी शादी नहीं की।’
विजयलक्ष्मी पंडित अपनी पुस्तक ‘The Scope of Happiness — A Personal Memoirs, mentions’ में लिखती हैं कि वे अपनी किशोरावस्था में यह सोचा करती थीं कि हिन्दू-मुस्लिम एकता के समय में और एक ऐसे परिवार में जिसके बहुत नजदीकी मुस्लिम दोस्त हैं, यह बहुत स्वाभाविक था कि वे अपने धर्म से बाहर शादी करें। उन्होनें सैयद हुसैन का भी उल्लेख किया है, उनसे प्यार का भी उल्लेख किया है। My days with Nehru में नेहरू जी के निजी सचिव एम ओ मथाई लिखते हैं कि “स्वरूप नेहरू (बाद में विजयलक्ष्मी पंडित) के साथ जब सैयद हुसैन भाग गए थे और वापस लौटे तो उन्हें उनके दोस्तों ने सलाह दी थी कि वे देश छोड़ जाएं!”
द डेली स्टार में वर्ष 2021 में A Forgotten Ambassador in Cairo पुस्तक के हवाले से एनम अहमद चौधरी ने लिखा था कि सैयद हुसैन के कटरा के बंगले में ये दोनों प्रेमी इकट्ठा हुए थे। मौलाना रशीद फाखरी, जो खुद कांग्रेस के नेता थे, उन्होंने निकाह कराया। विजयलक्ष्मी ने ईमानदारी से कलमा पढ़ा और ‘वफादार’ बन गईं। सैयद ने निकाह के लिए पूछा और विजया ने इसे स्वीकार कर लिया। गवाह नवाब सर मोहम्मद यूसुफ और सैयद असगर हुसैन थे। एचएम अब्बासी (जो बाद में एक प्रसिद्ध पत्रकार और संपादक बने) भी वहां मौजूद थे।
हुसैन ने स्वरूप (विजयलक्ष्मी) के साथ निकाह किया और जैसे ही यह बात मोतीलाल नेहरू को पता चली तो उन्होंने महात्मा गांधी को बुलाया और फिर इस निकाह को समाप्त करवाया। ऐसा कहा जाता है कि गांधी जी ने उनसे कहा कि यदि उनका प्यार सच्चा है तो उन्हें इम्तिहान देना होगा। उन्हें कुछ दिन अलग रहकर देखना होगा कि अगर फिर भी प्यार बचता है तो वे फिर से एक साथ आने के बारे में सोच सकते हैं। और इसके बाद वे स्वरूप (विजयलक्ष्मी पंडित) को अपने साथ आश्रम ले गए। इधर हुसैन की वह नौकरी छूट गई और My days with Nehru में नेहरू जी के निजी सचिव एम ओ मथाई लिखते हैं कि बाद में वर्ष 1945 में जब विजयलक्ष्मी पंडित अपने पति के देहांत के बाद अमेरिका गई थीं और वर्ष 1946 में वापस लौटीं तो सैयद हुसैन को एक बार फिर से उनके नजदीक जाने का अवसर मिला। बाद में सैयद हुसैन को काइरो का राजदूत बनाकर भेजा गया तो मथाई लिखते हैं कि विजयलक्ष्मी पंडित ने संयुक्त राष्ट्र आम सभा में न्यूयॉर्क जाते समय अपने सेक्रेटरी जनरल से कहा था कि वे काइरो होते हुए न्यूयॉर्क जाना चाहती हैं। उनके सेक्रेटरी जनरल गिरिजा शंकर बाजपेई ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से पूछा तो उन्होंने कहा कि विजयलक्ष्मी को सीधे न्यूयॉर्क जाना चाहिए। हालांकि वे कायरो होते हुए ही न्यूयॉर्क गई थीं। सैयद हुसैन अधिक दिनों तक जीवित नहीं रहे थे और वर्ष 1949 में काइरो में ही उनका देहांत हो गया था।
प्रश्न यही उठता है कि आम हिंदुओं से हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए हरसंभव कदम उठाने की अपील करने वाले लोगों ने अपने परिवार से ही इस एकता की मिसालें पेश क्यों नहीं कीं? क्यों विजयलक्ष्मी पंडित का निकाह तुड़वाया गया और बाद में उनका विवाह कांग्रेस के एक ब्राह्मण नेता से करवाया? सैयद हुसैन और विजयलक्ष्मी पंडित की अधूरी प्रेम कहानी अभी भी तमाम किताबों में आती है और ऐसा लगता है कि आती ही रहेगी।
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