बस्तर से दिल्ली आए नक्सल पीड़ित अपनी बात रखने के लिए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) भी पहुंचे। महत्वपूर्ण बात यह नहीं कि नक्सल पीड़ित अपनी बात को छात्रों के बीच रखना चाहते थे, वे उस स्थान पर खड़े होकर पूरे देश को संदेश देना चाहते थे कि मानव-अधिकार किसे कहते हैं और उस पर चर्चा करने की प्रक्रिया कैसी होनी चाहिए। जेएनयू में बस्तर की अनुगूंज कैसी रही, उससे पहले यह जानना जरूरी है कि इस शैक्षणिक संस्थान, जहां से केवल लाल विचार ही पनपते और परोसे जाते थे, वहां नक्सलवाद की विभीषिका पर गंभीरतापूर्वक सुनवाई किस तरह संभव हो सकी। ‘हर घर से अफजल निकलेगा’ और ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशा अल्लाह’ वाली नारा स्थली में ‘माओवाद मुर्दाबाद’ और ‘तुम माओवाद से तोड़ोगे, हम राष्ट्रवाद से जोड़ेंगे’ जैसे नारे ओजस्विता से लगाना क्या यह सिद्ध नहीं करता कि समय ही नहीं बदला है, बल्कि विमर्श और नैरेटिव भी बदलने लगे हैं। जेएनयू में नक्सल पीड़ितों की व्यथा कथा का संवेदनशीलता से सुना जाना पश्चिम से सूरज निकलने जैसा है, जिसका ताप और उजाला दूर तक जाएगा।
एक शिक्षण संस्थान के रूप में जेएनयू की जो ख्याति होनी चाहिए उसे वामपंथी दुराग्रहों और अराजकताओं ने हमेशा ढक-दबा कर रखा। यहां एजेंडा-विमर्श और राष्ट्रविरोध का भी एक अलग इतिहास रहा है। 1980-81 में तो यहां वामपंथी अराजकता इतनी ज्यादा थी कि कुछ समय के लिए विश्वविद्यालय को बंद रखना पड़ा था। 2000 की घटना है। जेएनयू परिसर में एक मुशायरा हुआ, जिसमें निर्भीकता से पाकिस्तान के समर्थन में गजलें पढ़ी गईं। यह मामला संसद में भी पुरजोर तरीके से उठाया गया था। इसी तरह, राजनीति पर पैनी दृष्टि रखने वाले 2005 की उस घटना को नहीं भूले होंगे, जब भारत ने संयुक्त राष्ट्र में ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर उस पर प्रतिबंध के अमेरिकी प्रस्ताव का समर्थन किया था।
इसी दौरान जेएनयू पहुंचे तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का रास्ता रोकने का प्रयास हुआ, उनके विरोध में नारेबाजी हुई। हो सकता है कि विवेचनावादी प्रधानमंत्री के विरुद्ध नारेबाजी को राजनीतिक जागरूकता की संज्ञा दें, लेकिन इस तथ्य का क्या किया जाए कि 2010 में छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सली हमला हुआ, जिसमें सीआरपीएफ के 76 जवान बलिदान हो गए थे। इस हृदयविदारक घटना पर खुशी मनाने के लिए जेएनयू परिसर में लाल-विचार के छात्रों द्वारा कार्यक्रम आयोजित किया गया था। इसमें न केवल माओवाद का समर्थन किया गया था, बल्कि देश विरोधी नारेबाजी भी जमकर हुई थी।
2014 के उस आयोजन को कौन भूल सकता है, जब जेएनयू परिसर में ‘महिषासुर बलिदान दिवस’ मनाया गया। इस आयोजन में माता दुर्गा को लेकर घृणास्पद और आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग किया गया। जेएनयू के वामपंथी छात्रों की छवि राष्ट्रविरोधी बनती गई, लेकिन वह स्पष्टता से 2016 में तब उजागर हुई जब परिसर में संसद पर हमले के दोषी जिहादी अफजल की फांसी की तीसरी बरसी पर कार्यक्रम आयोजित किया गया था।
इस आयोजन के दौरान अनेक आपत्तिजनक और देशविरोधी नारे लगाए गए थे। इस घटना से देश स्तब्ध रह गया था कि कैसे किसी शिक्षा संस्थान के भीतर देश को तोड़ने वाले और अलगाववाद के नारे लगाए जा सकते हैं! यहां लगाए गए अनेक नारों में से एक था ‘बस्तर मांगे आजादी।’
प्रश्न यह है कि बस्तर को किससे आजादी चाहिए थी? बस्तर को गुलाम किसने बना कर रखा हुआ है? अगर इसका संज्ञान लें तो आंध्र प्रदेश से पीपुल्स वार ग्रुप के आतंकवादी, जो लाल विचारधारा के संपोषक थे, उन्होंने देश से लगभग कटे, सांस्कृतिक रूप से समृद्ध इस अबूझमाड़ परिक्षेत्र को अपना आधार क्षेत्र बना लिया था। यहां से आंध्र प्रदेश, ओडिशा और महाराष्ट्र के कैडर बस्तर के सीधे-सादे वनवासियों को बहला कर, दबाव डाल कर या जबरदस्ती उनका नक्सलवादी गतिविधियों के लिए उपयोग करते रहे हैं। मानो बस्तर माओवादियों का उपनिवेश हो।
इस परिक्षेत्र को यदि आजादी चाहिए तो इन्हीं लाल-हत्यारों से। जेएनयू, जहां समाजशास्त्र और इतिहास के श्रेष्टतम संस्थान हैं, उन्हें यह क्यों नहीं पता कि विक्टिम का मतलब गढ़ी हुई कहानियां नहीं होतीं। पीड़ित का मतलब कुछ प्राध्यापकों और कथित समाजसेवी संस्थाओं के गढ़े ‘मोनोलॉग’ और घड़ियाली आंसू नहीं होते। पीड़ित क्या होते हैं और पीड़ा किसे कहते हैं, यह जेएनयू के छात्रों के समक्ष पहली बार गत दिनों ही सामने आया।
बस्तर से आए इन 55 नक्सल पीड़ितों ने 20 सितंबर, 2024 की शाम जेएनयू परिसर में आयोजित एक कार्यक्रम में अपनी व्यथा सभी को सुनाई। उन्होंने छात्रों के सामने यह प्रश्न रखा कि अध्ययनशील और विचारवान लोगों को समस्या की पहचान होनी चाहिए, न कि उन्हें किसी विचारधारा या एजेंडे के बहाव में आना चाहिए। नक्सल पीड़ितों ने बताया कि जिस जल, जंगल और जमीन के नारों से नक्सलवाद का महिमामंडन किया जाता है, उससे वे कितना डरते हैं। जानें कब किस पेड़ के नीचे नक्सलियों द्वारा लगाया गया कोई आईईडी या प्रेशर बम फट जाए और वे अपनी जान गंवा दें।
ग्रामीणों ने बताया कि माओवादियों ने किस तरह स्कूलों को नष्ट कर उनकी पीढ़ी को अनपढ़ बनाना चाहा, सड़कों और संचार के माध्यमों को नष्ट कर उन्हें शेष दुनिया से काट कर रखा। यह माओवादियों की ही देन है कि वे और उनके मवेशी एक-एक दिन गिनते थे कि वे आज तो कम से कम मारे नहीं गए या घायल नहीं हुए। कई स्थानों पर हर पगडंडी असुरक्षित है, हर पत्थर किसी बड़े विस्फोट की आशंका से डराता है। नक्सल पीड़ितों ने छात्रों के सामने प्रश्न रखा कि ऐसी परिस्थिति वाली किसी जगह की क्या वे परिकल्पना कर सकते हैं?
बस्तर के नक्सल पीड़ितों में बड़ी संख्या उन वनवासियों की है, जिन्हें केवल संदेह के आधार पर मुखबिर बताकर नक्सलियों ने जनता की अदालत लगाकर बेरहमी से मार दिया। ऐसे कई पीड़ित जो अब चलने-फिरने में लाचार हैं, वे भी दिल्ली आए थे। उन्होंने जेएनयू परिसर में न्याय व्यवस्था का प्रश्न उठाया। उन्होंने कहा कि कोई भी बौद्धिक जमात उस अन्याय की बात क्यों नहीं करती जो माओवादियों द्वारा कथित जनअदालत लगाकर बस्तर के जंगलों में की जाती है। वह परिसर, जहां अफजल जैसे देशद्रोहियों-जिहादियों के लिए भी न्याय की गुहार लगाई जाती है, जहां माओवादियों के पक्ष में लगातार बातें होती रही हैं, उनके पास ऐसे अन्याय के लिए कभी कोई प्रश्न या आवाज क्यों नहीं थी?
जेएनयू में छात्र-छात्राओं ने नक्सल पीड़ितों की व्यथा को पूरी संवेदना के साथ सुना। अनेक छात्र-छात्राओं की प्रतिक्रिया थी कि उनके सामने माओवाद का सच पहली बार साक्ष्य सहित पहुंचा है। उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि देश का ही एक हिस्सा ऐसी गहन पीड़ा में है, लेकिन इस विषय पर चर्चा करना ही प्रगतिशील नहीं माना जाता, आखिर क्यों? नक्सल पीड़ितों ने छात्रों के प्रश्नों का बहुत खुले मन से उत्तर दिया, जिससे यह प्रतीत होता है कि सच का सामना सभी गढ़े हुए नैरेटिव को ध्वस्त कर देता है। स्वागत होना चाहिए कि जेएनयू में नए दौर के विमर्श का शुभारंभ हुआ है।
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