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पीड़ा बस्तर की : हमें बस शांति चाहिए

नक्सलियों की बर्बरता के शिकार, अपनों को खोने वाले वनवासी अपनी व्यथा सुनाने बड़ी संख्या में दिल्ली पहुंचे। उनका बस इतना ही कहना था कि हमें बस्तर में हमारे दादा—परदादाओं के जमाने जैसी शांति चाहिए और कुछ नहीं

by Sudhir Kumar Pandey
Oct 1, 2024, 07:00 pm IST
in भारत, विश्लेषण, छत्तीसगढ़
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जी सरपंच जी! नहीं, सरपंच न कहें, मैं उपसरपंच था। मैंने कहा, आप हमारे लिए किसी सरपंच से कम नहीं हैं। इतना कहते ही सियाराम रामटेके के दुख भरे चेहरे पर एक हल्की-सी हंसी आई। कुछ पूछता उससे पहले ही वे कहने लगे- कांकेर के कोईलीबेड़ा का रहने वाला हूं। हम किसान हैं, खेती करते हैं। दो साल पहले की बात है। रोजमर्रा की तरह एक दिन खेत गया था। नक्सलियों को भनक लग गई। उन्होंने गोलियां बरसा दीं। पैर, कमर, पेट में गोली मारी। पैर की हड्डियों को तोड़कर गोलियां बाहर निकलीं। यह देखिए-गोलियों के निशान। खुद से, अपने पैरों पर अब खड़ा नहीं हो पाता। सहारा लेना पड़ता है।

मैंने पूछा कि नक्सलियों ने गोली क्यों मारी। इस पर सियाराम ने कहा कि उनसे मेरी कोई दुश्मनी नहीं थी। नक्सलियों को विकास पसंद नहीं है। मैं उपसरपंच होने के नाते सरकार की विकास योजनाओं की बैठकों में जाता था। उन्हें (नक्सलियों) लगा होगा कि यहां विकास होगा। इतना कहकर वे चुप हो जाते हैं और फिर अपने पैरों की ओर देखकर कहते हैं-नक्सलियों ने गोलियां बरसाई थीं, मुझे खुद कोई उम्मीद नहीं थी कि जिंदा बचूंगा। उन्होंने पर्चे तक फेंके कि मैं मर गया। नक्सलियों से भय के कारण अब दूसरी जगह रहता हूं। यह पूछने पर कि गांव के लोग साथ नहीं देते? सियाराम ने कहा कि गांव के लोग साथ नहीं खड़े होते, उन्हें लगता है कि नक्सली उन्हें भी निशाना बनाएंगे। जो लोग मेरे साथ उठते-बैठते थे, वे मुझसे अब बात तक करने में परहेज करते हैं।

गांव जाएंगे? इस पर उन्होंने कहा कि जब सुरक्षा का प्रबंध होगा तब जा सकता हूं। उस समय मेरा यह हाल किया था, तो अब क्या होगा। सुरक्षा व्यवस्था होगी तभी गांव जाना होगा। मैंने देखा कि किसी का हाथ नहीं है, किसी का पैर नहीं, किसी का चेहरा बिगड़ गया। मैंने फिर पूछा, दिल्ली क्यों आए हैं? इन सबको देखकर मैं भी दिल्ली में बस्तर की शांति के लिए आया हूं। बस्तर शांत था, बस्तर को शांति चाहिए। बस्तर को शांत होना चाहिए।

पास में एक महिला खड़ी थी। मैंने नमस्ते की। हाथ जोड़े तो उसने सिर हिलाया, लेकिन मेरी भाषा नहीं समझ सकी। किसी ने बताया कि वे सुकमा की रहने वाली हैं और उन्हें हिंदी नहीं आती। जनजातीय समाज के ही एक सज्जन से मैंने कहा कि इनसे बात करनी है, आप मदद कर सकते हैं ? उन्होंने हां में उत्तर दिया। मैंने पूछा कि क्या नाम है? नाम-सोड़ी हुंगी, गांव-एटलपारा। एक दिन रास्ते में किसी काम से जा रही थी। इसी दौरान आईईडी पर पैर पड़ा और धमाका हो गया। हाथ टूट गया, कई घंटे तक होश नहीं रहा। इतना कहकर सोड़ी हुंगी चल देती हैं। नारायणपुर का रामू हमारी बातों को ध्यान से सुन रहा था। बोला- हमारे दादा जी के समय जैसा माहौल था, वैसा ही अब चाहिए।

नारायणपुर के मंगाऊ राव कांवड़े कहते हैं, ”पांचवीं-छठी में पढ़ता था। फिर शहर आ गया तो बच निकला। वे (नक्सली) मेरे गांव के आस-पास के लोगों को मारते थे। डर लगा तो दूरियां बना लीं। छुट्टी के दिनों में भी गांव नहीं जाता था। सुरक्षा बलों के कैंप खुले तो नक्सली वहां से दूर चले गए। उन्होंने (नक्सलियों) गांव के सरपंच को मार दिया था। आरोप लगाया था कि सरपंच की वजह से कैंप खुला। नारायणपुरा जब जिला मुख्यालय नहीं था तब रोज आंदोलन होते थे। नक्सली गांव के भोले-भाले लोगों को बरगलाकर आंदोलन करवाते थे। विकास कार्य रुक जाते थे। गांववालों को भड़काते थे कि सरकार उनके अधिकार छीन रही है।

गांव में कोई आवाज उठाने को आगे आता तो उसे मार देते थे, वर्ष 2002 से 2008 तक यही दौर चला। जो अच्छा कमाते हैं, उन्हें निशाना बनाया जाता था। लोगों में डर था। 2002 तक गांव में लाइट तक नहीं था। आज की तरह कोई समाचार नहीं मिलता था। कुछ पता ही नहीं चलता था कि किस गांव में कितने लोग मार दिए गए। नक्सलियों की क्रूरता को चालीस साल से ज्यादा हो गए, अति हो गई। दिल्ली से कथित पढ़े-लिखे लोग बस्तर जाते थे, वे सचाई तो लिखे नहीं, इसलिए हम यहां (दिल्ली) अपनी बात खुद सुनाने आए हैं। वे (कथित एलीट) पहले से विषय बनाकर जाते थे।

वे दिल्ली से अपनी रिपोर्ट तैयार करके बस्तर आते थे। दुनिया को पता ही नहीं चलता था कि बस्तर में वास्तव में क्या चल रहा है। वे यही संदेश देते थे कि सरकार जल, जंगल, जमीन छीन रही है। हकीकत क्या है उसे कभी बताया ही नहीं गया। एक बुजुर्ग की आंखों में आंसू थे। मैंने उनसे कुछ नहीं पूछा। उनका दर्द गहरा था। कैमरा सामने आया तो बोले, ‘‘रोते हुए फोटो मत लो भाई। वे (नक्सली) पता नहीं क्या करेंगे। बेटे के सिर को तो कुल्हाड़ी से काट ही दिया है। मुझे भी पांच किलोमीटर तक सड़क पर घसीटा।’’ इतना कहकर उनकी दोनों आंखों से आंसू झर-झर गिरने लगे।

अंदर तक हिला देने वाली ये बातें महज कहानियां नहीं, सचाई है। यह उन हजारों लोगों का भोगा गया दर्द है, जो नक्सली हिंसा का शिकार हुए और अब भी हो रहे हैं। नक्सलियों ने उन्हें जो पीड़ा दी है, वह पर्वत से भी बड़ी है और इतनी घनी है कि पिघल ही नहीं पा रही। इस दर्द भरे पर्वत को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता, बस महसूस किया जा सकता है।

नक्सलियों के झूठ

अर्बन नक्सली और मीडिया का एक धड़ा नक्सलियों को लेकर लगातार झूठ परोसता रहा है। ये देश-विदेश में यही प्रचारित करते रहे कि माओवादी जनजातीय समाज और वंचितों के हित में जल, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन सच इस दावे से कोसों दूर है। आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों ने भी इनकी कलई खोल दी है। ये अपने इलाके में कोई भी विकास कार्य नहीं होने देते, ताकि इनके साम्राज्य को चुनौती नहीं दी जा सके। स्थानीय लोग विकास चाहते हैं, लेकिन नक्सली स्कूलों, अस्पतालों को विस्फोट कर उड़ा देते हैं। सड़क नहीं बनने देते और आंगनवाड़ी का विरोध करते हैं। वे लेवी वसूलते हैं और ग्रामीणों को अपने कैडर को पुलिस और सुरक्षाबलों से छिपाने के लिए डराते-धमकाते हैं।

झूठ -1 : माओवादी वनवासियों और वंचितों के अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं।
सच : माओवादी जनताजीय समुदाय का शोषण कर रहे हैं। वे ग्रामीणों से रसद वसूलते हैं और नक्सलियों को छिपाने के लिए दबाव डालते हैं। विरोध करने वाले की हत्या कर देते हैं।
झूठ-2 : नक्सली क्रांतिकारी हैं और अपने कैडर में महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार देते हैं।
सच : जनजातीय महिलाओं का सबसे अधिक यौन शोषण माओवादी ही करते हैं। ये अपने संगठन और कथित सेना में शामिल महिलाओं को भी नहीं छोड़ते।
झूठ-3 : माओवादी वनवासियों के वनाधिकार की लड़ाई लड़ रहे हैं।
सच : वनवासियों को वनाधिकार प्रदान करने के लिए केंद्र सरकार ड्रोन सर्वेक्षण के जरिये जमीन की डिजिटल मैपिंग कर रही है, तो अपना गढ़ बचाने के लिए माओवादी उसके विरुद्ध प्रोपेगेंडा चला रहे हैं।
झूठ-4 : माओवादी जल, जंगल, जमीन की रक्षा के लिए व्यवस्था से लड़ रहे हैं।
सच : ये विकास में बाधक हैं। यहां तक कि लोगों को शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं से भी वंचित रखना चाहते हैं। इसलिए स्कूलों, अस्पतालों को भी निशाना बनाते हैं।
झूठ-5 : माओवादी मानवता, जनजातीय संस्कृति के रक्षक हैं और वनवासियों की स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे हैं।
सच : वे ग्रामीणों और जनप्रतिनिधियों की बेरहमी से हत्या करते हैं और समानांतर सरकार चलाते हैं। वनवासी समुदाय के विवादों का निपटारा पहले गायता और पुजारी सुलझाते थे, पर अब उनके मसले जनताना अदालत में संघम सदस्य करते हैं।
झूठ-6 : माओवादी अपने काम में शुचिता और पारदर्शिता रखते हैं और जनता की सहूलियत का ध्यान रखते हैं।
सच : अपने मंसूबों को पूरा करने के लिए नक्सली कल-कारखानों के मालिकों, स्थानीय व्यवसायियों, ठेकेदारों और ग्रामीणों से भी पैसे वसूलते हैं, जिसे रिवॉल्यूशनरी टैक्स कहा जाता है।
झूठ-7 : नक्सलवाद कोई उग्रवाद या अतिवाद नहीं, बल्कि शोषित किसानों और वंचित वनवासियों के आक्रोश से उपजा स्वत:स्फूर्त आंदोलन है।
सच : माओवादी स्थानीय लोगों को डरा-धमका कर जबरन अपने संगठन में शामिल करते हैं और विरोध करने पर हत्या कर देते हैं। वे सुनियोजित तरीके से जनजातीय समाज का इस्तेमाल ढाल के रूप में करते हैं।
झूठ-8 : माओवादी न्याय और स्वतंत्र न्यापालिका की बात करते हैं।
सच : ये न तो संविधान और न ही देश की किसी संवैधानिक व्यवस्था में विश्वास करते हैं। ये अपनी जनताना अदालतें लगाकर निर्दोष लोगों की निर्मम हत्या करते हैं।
झूठ-9 : स्थानीय जनजातीय समाज माओवादियों का समर्थन करता है। माओवादी सरकारों द्वारा उपलब्ध कराई जा रही शिक्षा, स्वास्थ्य आदि बुनियादी सुविधाओं का विरोध नहीं करते।
सच : अपने प्रभाव वाले इलाकों में नक्सली लोगों को शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं और विकास को बाधित करते हैं, क्योंकि इससे जनजातीय समुदाय के इनके विरुद्ध खड़े होने की संभावना बढ़ जाती है।
झूठ-10 : अर्बन नक्सली यह प्रचारित करते रहे हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में रोष की प्रतिक्रिया के रूप में माओवाद का जन्म हुआ, जो एक गैर-राजनीतिक आंदोलन है।
सच : नक्सलवाद एक विध्वंसक विदेशी राजनीतिक विचार की उपज है, जिसका एकमात्र उद्देश्य भारत में संवैधानिक सरकार की जगह निरंकुश सत्ता की स्थापना करना है। माओवाद का असली स्वरूप शहरी ही है, ग्रामीण और वन क्षेत्र तो उनकी गुरिल्ला रणनीति के साधन मात्र हैं।

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