हॉलीवुड अभिनेत्री मेरिल स्ट्रिप ने संयुक्त राष्ट्र आम सभा में एक भाषण में कहा था कि अफगानिस्तान में एक मादा बिल्ली को भी अफगानी औरत की तुलना में अधिक आजादी है। उन्होनें अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से यह अपील की थी कि वे अफगानिस्तान की महिलाओं के लिए कदम उठाएं। उन्होंने यह अपील की थी कि अफगानिस्तान में महिलाएं पूरी तरह से कैद हैं। उन्होनें कहा था था कि अफगानिस्तान में एक बिल्ली तो बाहर बैठ सकती है मगर महिला नहीं।
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फिर उसे लेकर तालिबान की तरफ से भी यह बयान आया है कि अफगानिस्तान में औरतों को पूरी आजादी है। मेरिल स्ट्रिप ने जब अफगानी महिलाओं को लेकर यह टिप्पणी की थी तो यह टिप्पणी किसी झूठ का हिस्सा नहीं थी, बल्कि यह टिप्पणी एक महिला की भावनात्मक टिप्पणी हो सकती है। यह टिप्पणी उस महिला की थी, जिसने महिलाओं के उस दर्द को महसूस किया हो जो अफगानी औरतें इन दिनों झेल रही हैं। अफगानी औरतों का बाजार में जाना बंद है, अफगानी औरतों का सार्वजनिक स्थानों पर बोलना तक प्रतिबंधित है और शेष बातों को तो छोड़ ही दिया जाए। अफगानी औरतें इन दिनों जिस कैद में हैं उसकी कल्पना ही असंभव है, परंतु अफ़गान के मौजूदा मालिक तालिबान, जिन्होनें इन औरतों को कैद किया है, जिन्होनें अपनी ही औरतों को कैद कर दिया है और जिन्होंने अपनी ही औरतों की ज़िंदगी मुहाल कर दी है, उनका कहना है कि अफगानिस्तान में औरतें बिल्कुल भी कैद नहीं हैं, बल्कि आजाद हैं।
मेरिल स्ट्रिप ने जब यह कहा था कि एक बिल्ली अपने दरवाजे पर बैठ सकती है और अपने चेहरे पर सूरज की किरणों को महसूस कर सकती है, वह पार्क में एक गिलहरी के पीछे जा सकती है, काबुल में एक पक्षी गा सकता है, मगर एक लड़की सार्वजनिक रूप से नहीं गा सकती! यह पीड़ा सभी को बेचैन कर सकती है, सिवाय तालिबानी सरकार के। क्योंकि तालिबानी सरकार यह मानने के लिए ही तैयार नहीं है कि उसने कुछ गलत किया है या फिर लड़कियां कैद हैं? उसके अनुसार लड़कियों को अफगानिस्तान में पूरी तरह से आजादी है। तालिबान के अनुसार वह जो भी कर रहा है इस्लामी कानूनों ने दायरे में कर रहा है। तालिबान के प्रवक्ता ने इस मामले में बीबीसी से बात करते हुए कहा कि औरतों को उनके उन अधिकारों से मरहूम नहीं किया जा सकता है जो उन्हें इस्लाम में मिले हैं। और औरतों पर जो भी प्रतिबंध लगे हैं, वे सभी इस्लामी शरीयत कानून के दायरे में है।
मेरिल स्ट्रिप ने एक महत्वपूर्ण बात करते हुए कहा था कि उन्होनें 1971 में ग्रेजुएशन किया था और उस साल ही स्विट्ज़रलैंड में महिलाओं को मतदान का अधिकार मिला था। जबकि अफगानिस्तान में तो उन्हें साल 1919 में ही मतदान का अधिकार मिल चुका था। मगर मेरिल इस बात को अनदेखा कर देती हैं कि तालिबानी शासन जिस शरिया की बात करता है, उसमें उस लोकतंत्र का कोई स्थान ही नहीं है जिस लोकतंत्र में महिलाएं सरकार चयन में सार्थक और सक्रिय भूमिका निभा सकती हैं। जहां पर वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर अपनी मर्जी से जा सकती हैं। तालिबान शासन शरिया पर चलने का दावा करता है और वह यह कहता है कि औरतों को उस दायरे में जितनी आजादी मिलती है उतनी मिल रही है। अफगानिस्तान में अफगानी औरतों पर जो पाबंदियाँ हैं, उनमें मुख्य पाबंदियाँ हैं कि वे घर से बाहर अकेले नहीं जा सकती हैं। वे गा नहीं सकती हैं। कक्षा छ के बाद वे स्कूल नहीं जा सकती हैं।
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वहाँ पर औरतें नौकरी नहीं कर सकती हैं। उन्हें सिर से लेकर पाँव तक खुद को ढककर चलना है। वे गाड़ी नहीं चला सकती हैं। वे अकेले सफर नहीं कर सकती हैं। वे खेलकूद आदि में भी भाग नहीं ले सकती हैं। वे पार्क में नहीं बैठ सकती हैं। वे महिलाओं वाले व्यापार जैसे ब्यूटी सैलून आदि भी नहीं कर सकती हैं। ये उन अनगिनत पाबंदियों में से कुछ पाबंदियाँ हैं, जो तालिबान ने अपने यहाँ की औरतों पर लगाई हैं, मगर उसके अनुसार उसने कुछ भी गलत नहीं किया है, और न ही वह औरतों को कैद कर रहा है। वह केवल वही कर रहा है जो उसे करना चाहिए। यह भी दुर्भाग्य है कि भारत में प्रगतिशील लेखकों का एक बहुत बड़ा वर्ग था, जिनमें महिलाएं भी थीं जिन्होनें उस क्रांति का समर्थन किया था जो अमेरिका के खिलाफ तालिबानियों ने की थी और सत्ता हासिल की थी। अफसोस कि आज जब मेरिल स्ट्रिप तो अफगानी महिलाओं की पीड़ा पर बात कर रही हैं, मगर भारत की कम्युनिस्ट फेमिनिस्ट औरते तालिबान द्वारा यह कहे जाने पर भी विरोध नहीं जता रही हैं कि अफ़गान में औरतें कैद नहीं हैं।
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