वर्ष 2011 की जनगणना में लिंगानुपात में राजस्थान राष्ट्रीय औसत से बहुत नीचे था। आंकड़े दिखा रहे थे कि राज्य में बेटियां कम हो रही थीं। तब ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’, ‘वंशालिका’, ‘टाबरां रो ब्याव’, ‘लाडो’, ‘आठवां फेरा’ जैसी एक के बाद एक कई मुहिम शुरू की गई। पहले से भी कुछ काम चल रहे थे। बच्चियों का जन्म हो, वे बची रहें और उनकी सुरक्षा हो और उनका आर्थिक-सामाजिक विकास हो, यह बड़ी चिंता थी। 5 वर्ष में मुहिम के नतीजे दिखने लगे। खास तौर से ‘लाइव बर्थ’ के आंकड़ों में वृद्धि ने आशा की किरण जगाई।
2015 में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ नाम से सरकारी अभियान शुरू हुआ, तब तक प्रदेश में जमीनी स्तर पर बहुत काम हो चुका था। परिणाम अच्छे आए तो प्रदेश की प्रशंसा भी होने लगी। इसी तरह, कोख में बेटियों को बचाने के लिए ‘लाडो अभियान’ की कहानी 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गांधीनगर के सरपंच संवाद में कहने का मौका मिला और इसी नाम से राजस्थान में एक योजना शुरू हुई। लेकिन कुछ नेताओं ने अच्छी समझ बनाने की बजाय ओछी राजनीति शुरू की तो उनका प्रतिकार भी हुआ।
जब मुख्यमंत्री ने राजनीतिक मंच से ‘घूंघट हटाओ’ की बात की, तब सवाल उठा कि ‘हिजाब’ के लिए भी यह बात कहते। उनके ही दौर में प्रदेश महिला अपराध में देश में अव्वल हो गया। ये वही लोग थे, जिनके साथियों पर और यूथ कांग्रेस के पदाधिकारियों पर 1992 के अजमेर सामूहिक बलात्कार और ब्लैकमेल कांड के आरोप थे। इनमें अजमेर दरगाह का खादिम परिवार भी शामिल था। इस जलालत के कारण कई बेटियों ने आत्महत्या कर ली। पॉक्सो अदालत ने 32 साल बाद 6 अपराधियों को सजा सुनाई, मगर इस बारे में कोई आश्वस्त नहीं कि वे कब तक सलाखों के पीछे रहेंगे। राजनीति, अपराधी, पुलिस और जांच एजेंसियां, सबने बेटियों का भरोसा तोड़ा है। कुछ जुझारू पत्रकारों ने जान देकर अपनी जिम्मेदारी निभाई।
हमारे सामने कई और विरोधाभास हैं। बीते कुछ वर्षों के दौरान कानून कड़े तो हुए हैं, लेकिन न्याय मिलना अब भी आसान नहीं है। अपराध बढ़े ही नहीं हैं, बल्कि और जघन्य हो गए हैं। आंकड़े बताते हैं कि दुष्कर्म के मामले में 94 प्रतिशत लोग जानकार या करीबी होते हैं। 31 प्रतिशत अपराध तो घरों में होने वाली हिंसा के हैं। स्थिति इतनी भयावह है कि खुदा की खिदमत करने वाले लोग भी ऐसे अपराधों में शामिल होते हैं। राजस्थान के 1992 के सामूहिक बलात्कार और ब्लैकमेल कांड में यह बात हमें देखने को मिली।
देश में दहेज के लिए कानून 1961 का है, लेकिन दहेज प्रताड़ना आज भी कलंक के तौर पर मौजूद है। महिला सशक्तिकरण की रट लगाने वालों का इतिहास बोध जागेगा तो उन्हें बाहरी सोच को आयात नहीं करना पड़ेगा। हमारे पास मीरा जैसे कई प्रतिमान हैं, जो हमें प्रेरित करती हैं। हमारे यहां महिलाएं अपना पथ खुद चुनती हैं और हर संघर्ष के बीच उस पर टिकी रहती हैं। लीक पर चलने से मना कर देती हैं। साहित्य रचती हैं, संबंधों का सम्मान बढ़ाती हैं। वही अहंकारी समाज उन्हें पूजता है, उसके आगे नतमस्तक होता है। आज दक्षता बढ़ाने पर, प्रशिक्षण पर तो काम होना ही चाहिए। लेकिन अपनी उस जिम्मेदारी से तब तक मुक्त नहीं हो सकते, जब तक हर महिला अपराध से मुक्त हो जाए।
आज राजस्थान विधानसभा में चुने 22 प्रतिशत विधायक गंभीर अपराध वाले हैं, तो ये मुद्दे सदन में कैसे गूंजेंगे? अजमेर कांड के समय भी विधानसभा में खामोशी रही। इसलिए इस अपराध से सत्ता-प्रतिपक्ष किसी को मुक्त नहीं किया जा सकता। भगिनी निवेदिता का कहना था कि भारतीय समस्याओं का समाधान भारतीय विचार से ही उपजेगा। इस पर चिंतन करना होगा कि हमारे अपने समाज के भीतर क्या विकार हैं और महिला अपराधों से निपटने के लिए हमारी समग्र सोच क्या बनी है? बेटियों के साथ अपराध चाहे देश के किसी भी हिस्से में हो, सिहरन होती है। जिस पर बीतती है, उसे जीवन भर पीड़ा सहनी पड़ती है। समाज की सोच बदलने और न्याय की प्रक्रिया दोनों त्वरित होनी चाहिए।
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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