इन दिनों बांग्लादेश जल रहा है, मगर हाँ उसकी लपटें अभी तक उतनी दिखाई नहीं दे रही हैं, जितनी दिखाई देनी चाहिए थीं। यह बहुत ही भयावह है। यह इस सीमा तक भयावह है कि जिसे कहा नहीं जा सकता है। शेख हसीना के देश छोड़ने के बाद बांग्लादेश बहुत तेजी से अपनी ईस्ट पाकिस्तान की पहचान वापस पाने के लिए जो भी कर सकता है, वह कर रहा है। वह लगातार हर वह काम कर रहा है, जिससे उसकी “बांग्लादेश” की पहचान समाप्त हो सके, जो उसके असली अब्बू “पाकिस्तान” से उसे अलग करती है।
इस पहचान को पाने के क्रम में वह अब दिखा रहा है कि वह कौन सी मानसिकता थी, जिसने नालंदा से लेकर बांग्लादेश तक सब कुछ राख किया है। 5 अगस्त 2024 को जब शेख हसीना ने कथित छात्र आंदोलन के कारण देश छोड़ा तो हिंदुओं पर हमले हुए और उनके मंदिर तोड़े गए, जलाए गए। जब इस हिंसा का विरोध हुआ, तो यह तर्क दिया गया कि ये हमले दरअसल इसलिए हिंदुओं पर हुए हैं, क्योंकि हिन्दू आम तौर पर शेख हसीना के समर्थक होते हैं, इसलिए इन्हें धार्मिक नहीं बल्कि राजनीतिक चश्मे से देखा जाए। इसी झूठ को वहाँ की यूनुस सरकार तक ने लोगों के दिमाग में भरा।
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यहाँ तक कि यह भी कहा गया कि बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों की स्थिति भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति से बेहतर है और इस झूठ को भी भारत के मीडिया के एक वर्ग ने खूब चलाया। मगर अब जो चकमा समुदाय के खिलाफ हिंसा हो रही है, इस पर सारे विमर्श मौन हैं। ये हमले केवल उनकी धार्मिक पहचान के ही आधार पर हो रहे हैं। चकमा समुदाय के लोग बौद्ध धर्म का पालन करते हैं और त्रिपुरी समुदाय हिन्दू है। यह भी दुर्भाग्य ही है कि चटगांव का वह इलाका जहां पर लगभग 96% गैर मुस्लिम थे, वह क्षेत्र विभाजन के समय पाकिस्तान के पास चला गया था। तब से लेकर अभी तक वहाँ के स्थानीय लोग तरह-तरह के अत्याचारों का सामना कर रहे हैं। उनके साथ हिंसा अभी तक जारी है।
यह भी बात हैरान करने वाली है कि जो क्षेत्र पूरी तरह से गैर-मुस्लिम बहुल था, वहाँ से स्थानीय लोग कम होते चले गए और इस समय मीडिया के अनुसार चटगांव में लगभग 50 प्रतिशत बाहरी लोग हैं। यही कारण है कि स्थानीय लोग अपनी पहचान के लिए आवाज उठाते हैं और 18 सितंबर 2024 को स्थानीय छात्रों द्वारा संघट ओ बोईशमयों बिरोधी प्रहरी छात्र आंदोलन (संघर्ष और भेदभाव के खिलाफ आंदोलन) बैनर के अंतर्गत हजारों छात्रों ने रैली की थी और पहचान को लेकर अपनी मांग उठाई थी। जिस मानसिकता ने नालंदा को जलाया था, जिस मानसिकता ने बामियान के बुद्ध तोड़े थे, जिस मानसिकता ने पाकिस्तान से बौद्ध प्रतिमाओं को तोड़ा, वही मानसिकता यह बर्दाश्त नहीं कर पाई कि अपनी पहचान के लिए स्थानीय लोग आवाज उठा सकते हैं।
हालांकि, इसका तात्कालिक कारण एक अपराधी पर स्थानीय लोगों द्वारा हमला करना रहा था। 18 सितंबर 2024 को मोहम्मद मामून नामक आदमी ने एक बाइक चुराने की कोशिश की। जिसे स्थानीय लोगों ने पकड़ लिया और उसकी पिटाई की। जिसके कारण अगले दिन अस्पताल में उपचार के दौरान मौत हो गई। यह घटना चटगांव के दीघिनाला और खगराचारी सदर इलाके में हुई थी और फिर इस मौत के बाद अफवाहें उड़ाई गईं कि स्थानीय लोगों ने बंगालियों पर हमला करके एक आदमी को मार डाला है। इसके साथ ही यह भी मीडिया रिपोर्ट्स रहीं कि मस्जिदों से भी इसी झूठ को दोहराया गया और इस अफवाह ने आग में घी का काम किया। एक अपराधी को अपराध करने से रोकने पर गलती से हुई मौत का बदला स्थानीय लोगों के घरों और दुकानों को जलाकर लिया गया।
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चटगाँव पहाड़ी क्षेत्र में स्थानीय चकमा और त्रिपुरी समुदाय के लोगों के साथ जो हिंसा हो रही है उसे जातीय हिंसा आदि का नाम देकर भी इस हिंसा का स्वरूप परिवर्तित करने का प्रयास किया जा रहा है। यह भी बात बहुत हैरान करने वाली है कि चटगाँव पहाड़ी क्षेत्र, जहां पर एक समय में गैर मुस्लिम ही बहुमत में थे, वहाँ पर उनकी संख्या कम हो गई है। और उन पर हमला उन्हीं लोगों ने किया है जिन्हें अवैध रूप से या तो बसाया गया या वे खुद आकर बसे हैं। चकमा समुदाय पर हो रहे ताजे हमलों पर बात करते हुए राइट्स एंड रिस्क एनालिसिस ग्रुप (आरआरएजी) के निदेशक सुहास चकमा ने मीडिया को बताया कि जिस बांग्लादेशी सेना को यूनुस सरकार ने पुलिस और मजिस्ट्रेट शक्तियां दी हैं, वही स्थानीय समुदायों के घरों और दुकानों को जलाने में शामिल है।
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शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या के बाद जब जियाऊर रहमान बांग्लादेश के राष्ट्रपति बने थे तो उन्होने चटगाँव पहाड़ी क्षेत्र में बंगाली मुस्लिमों को बसाना आरंभ कर दिया था और उन्होंने लाखों की संख्या में बांग्लादेशी मुस्लिमों को चटगाँव पहाड़ी क्षेत्र में बसाया था। धीरे-धीरे स्थानीय समाज की पहचान को समाप्त करना आरंभ कर दिया था। आज वह समुदाय जब पहचान की बात करता है तो उसपर उसी प्रकार प्रहार होता है, जैसा नालंदा से खिलजी ने आरंभ किया था।
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