शेख हसीना के बांग्लादेश से भागने के साथ ही बांग्लादेश की वह पहचान धीरे-धीरे सामने आने लगी है, जो उसकी वह पहचान है, जिसे उसने वर्ष 1906 से मुस्लिम लीग की स्थापना के साथ से महसूस करना शुरू कर दिया था। वह पहचान है भारत से घृणा की। भारत से दूरी की और भारत से खुद को अलग करने की। दरअसल, बांग्लादेश तो पूर्वी पाकिस्तान की अस्थाई पहचान थी, जिसे मुस्लिम लीग के ही एक नेता रहे शेख मुजीबुर्रहमान ने संभवतया अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा न पूरी हो पाने के कारण भारत की सहायता से हासिल किया था।
वर्ष 1971 में पूर्वी पाकिस्तान ने भारत की सहायता से पाकिस्तान से आजादी तो ले ली थी, परंतु फिर भी भारत से विभाजन होने की जो मूल वजह थी, वह तो बनी ही रही थी। बांग्लादेश में एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा था ही, जो बांग्लादेश की बांग्लादेशी पहचान के साथ आत्मसात नहीं कर पा रहा होगा। और यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षों में भारत द्वारा बांग्लादेश को निरंतर सहायता के बावजूद भी, बांग्लादेश में भारत (हिन्दू पहचान वाले भारत) के प्रति घृणा भरी है और जो गाहे-बगाहे उनके खेलों के पोस्टर्स से भी दिखता रहा था।
मगर शेख हसीना के बांग्लादेश छोड़ने के बाद जिस प्रकार जिन्ना की बरसी मनाई गई, वह हालांकि कुछ लोगों को हैरानी से भर सकती है, मगर वह न ही चौंकाने वाली है और न ही हैरान करने वाली। जिन्ना के पाकिस्तान से ही बांग्लादेश की पहचान है, यही सत्य है। जिन्ना की बरसी के मौके पर अर्थात 11 सितंबर को ढाका में नेशनल प्रेस क्लब के सदस्यों ने जिन्ना को याद किया और जिन्ना के प्रति शुक्रिया व्यक्त किया कि आज वे यदि आजाद हैं तो जिन्ना के ही कारण!
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मुजीबुर्रहमान की मूर्तियों को तोड़ने से लेकर जिन्ना की तारीफों तक
5 अगस्त को जैसे ही शेख हसीना ने बांग्लादेश छोड़ा था, वैसे ही शेख मुजीबुर्रहमान की मूर्तियों को तोड़ने से लेकर भारत से जुड़े स्मारकों पर भी हथौड़े चलने लगे थे या फिर आगजनी होने लगी थी। लोगों ने हैरानी जताई थी कि “फादर ऑफ द नेशन” के साथ कोई ऐसा सलूक कैसे कर सकता है? मगर इसका उत्तर ढाका में नेशनल प्रेस क्लब के जिन्ना की बरसी पर आयोजित आयोजन से प्राप्त हो जाता है जिसमें वक्ताओं ने जिन्ना को अपने देश का पिता बताया।
इस आयोजन में एक वक्ता नज़रुल इस्लाम ने कहा कि चाहे कैसे भी हमें आजादी मिली हो। हमें पाकिस्तान के अपने रिश्ते बनाए रखने चाहिए। फिर नज़रुल ने कहा कि “अगर जिन्ना नहीं होते तो पाकिस्तान नहीं होता और पाकिस्तान के बिना बांग्लादेश नहीं होता। जिन्ना हमारे राष्ट्रपिता हैं, लेकिन हम इसे स्वीकार नहीं करते। हमें अपने भाईचारे को बनाए रखना चाहिए और मुझे उम्मीद है कि जिन्ना की बरसी और सालगिरह दोनों को ही हर साल मनाया जाना जारी रखा जाएगा!”
एक और वक्ता मोहम्मद शाखावत ने कहा कि “अगर जिन्ना बांगलदेश की जिम्मेदारी साल 1947 में नहीं लेते तो हम भी पश्चिम बंगाल की तरह हिंदुस्तान का हिस्सा होते! ये जिन्ना की ही लीडरशिप थी, कि पूर्वी पाकिस्तान पश्चिमी पाकिस्तान के साथ एक हुआ। अब हमें अपनी दोस्ती का आंकलन करना चाहिए!” इस आयोजन को नवाब सलीमुल्लाह अकादमी द्वारा राष्ट्रीय प्रेस क्लब के तोफज्जल हुसैन माणिक मिया हॉल में आयोजित किया गया था।
ढाका ट्रिब्यून के अनुसार प्रोफेसर डॉ. मुस्ताफिज़ूर ने कीनोट पेपर प्रस्तुत करते हुए जिन्ना की ज़िंदगी की कई घटनाओं पर प्रकाश डाल था। इतना ही नहीं, जिस उर्दू ने बांग्लाभाषी पूर्वी पाकिस्तान के नागरिकों के साथ लगातार सौतेला व्यवहार किया था, उसी उर्दू में जिन्ना के बारे में एक कविता पढ़ी गई और बांग्लादेश में पढ़ने वाले दो पाकिस्तानी छात्रों मोहम्मद ताहिर और कामरान अब्बास ने जिन्ना को समर्पित दो उर्दू गाने गाए।
इस आयोजन में नागरिक परिषद के समन्वयक मोहम्मद शमसुद्दीन और पत्रकार मुस्तफा कमल मजूमदार भी मौजूद थे। इस आयोजन की खास बात यही थी कि सभी वक्ताओं द्वारा बांग्लादेश की बांग्ला पहचान को पीछे छोड़ते हुए, जिसे मुजीबुर्रहमान ने दिया था, उस पहचान पर बात की गई जो जिन्ना ने दी थी। जिन्ना को अपने मुल्क का अब्बा बताया गया, यही कहा गया कि कुछ कारणों से आजादी लेनी पड़ी, मगर अब पाकिस्तान से रिश्ते बनाए जाएं।
मोहम्मद शमसुद्दीन ने कहा कि अगर बांग्लादेश पाकिस्तान का हिस्सा 1947 में नहीं होता तो हम आज कश्मीर की तरह होते जिसमें भारतीय सेना हमारी गर्दन पर हथियार रखे होती। बांग्लादेश को आजादी पाकिस्तान के कारण मिली, जिसे जिन्ना ने बनाया था। और फिर उन्होनें यह भी कहा कि “हमें अल्लामा इकबाल हॉल या जिन्ना आवेन्यू के नाम क्यों बदलने चाहिए? ये बदलाव इसलिए किये गए, क्योंकि दिली चाहती थी, मगर हम नहीं। बांग्लादेश को चीन और पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारने चाहिए!”
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यह अजीब विडंबना है कि जहां पूर्वी से पश्चिमी पाकिस्तान तक इस्लाम की पहचान के आधार पर लोग एक दूसरे को जोड़ते हैं, तो वहीं उस चीन में रह रहे मुस्लिम भाइयों पर पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के मुस्लिम चुप रहते हैं, जिनकी मजहबी आजादी को चीन लगभग कुचल ही चुका है। जिन्ना की बरसी मनाकर जिन्ना को अपने मुल्क का वालिद बताकर और अल्लामा इकबाल को अपना बताकर बांग्लादेश के एक वर्ग ने यह तो बता ही दिया है कि दरअसल, उनकी असली लड़ाई अपनी वही पहचान वापस पाने की है, जो जिन्ना ने बनाई थी और जो मुजीबुर्रहमान ने डायरेक्ट एक्शन डे के दौरान बनाई थी, न कि शेख मुजीबुर्रहमान ने 1971 में भारत के साथ मिलकर बनाई थी।
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