इस समय काकोरी घटना का शताब्दी वर्ष चल रहा है। अगले वर्ष 9 अगस्त को इसे 100 वर्ष पूरे हो जाएंगे। उत्तर प्रदेश सरकार ने इसकी आधिकारिक घोषणा कर दी है। स्वाभाविक है कि काकोरी प्रतिरोध की घटना देश में चर्चा का विषय बनने वाली है। सामान्यत: इतिहास के विद्यार्थियों के लिए काकोरी मात्र ‘ट्रेन डकैती’ है, क्योंकि अंग्रेजों ने अपने कागजातों में इसे उसी रूप में लिखा था। अंग्रेजी कागजातों के आधार पर इतिहास लिखने वालों ने रामप्रसाद बिस्मिल और चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों को ‘डकैत’ कहा। कुछेक इतिहासकारों ने यदि इसे ‘डकैती’ की बजाय क्रांति की घटना के रूप में चित्रित किया भी तो इसे एक घटना विशेष से अधिक नहीं माना। देश में होने वाली क्रांति की सभी घटनाओं को अलग-अलग और घटना विशेष के रूप में ही इतिहास में लिखा और पढ़ाया गया। अंग्रेजों के विरुद्ध एक राष्ट्रव्यापी सशस्त्र संघर्ष के रूप में इन्हें न तो देखा गया और न ही इसकी राष्ट्रीय पहचान को सामने आने दिया गया।
हालांकि इतिहास बताता है कि काकोरी की घटना केवल काकोरी तक सीमित नहीं थी। इसका देशव्यापी प्रभाव था और इसके पीछे क्रांतिकारियों का देशव्यापी संजाल भी था। वस्तुत: यदि हम अंग्रेजों के विरुद्ध देश के सशस्त्र प्रतिरोध के इतिहास का अवलोकन करें तो पाएंगे कि इसकी कुछेक अभूतपूर्व विशेषताएं हैं। पहली विशेषता यह है कि इसका प्रारंभ इतिहासकारों द्वारा उल्लिखित प्रथम स्वाधीनता संग्राम से काफी पूर्व हो चुका था। 1784 में ही तिलका मांझी ने तत्कालीन बिहार, वर्तमान झारखंड से सशस्त्र प्रतिरोध प्रारंभ कर दिया था। इसका ही प्रतिफलन हम बाद में 1854 में सिद्धु, कान्हू, चांद, भैरव, फूलो और झानो, छह भाई-बहनों के बलिदान के रूप में देखते हैं और इसी शृंखला में आगे बिरसा मुंडा आते हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि इतना सशक्त प्रतिरोध करने वाले ये सभी क्रांतिकारी 18-20 वर्ष के युवा मात्र थे। यह इसकी दूसरी विशेषता है।
सशस्त्र प्रतिरोध की यह कहानी केवल बिहार तक सीमित नहीं रही। यह वहां से फैली और बंगाल, ओडिशा, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पूर्वोत्तर राज्यों सहित केरल तक पूरे देश में फैल गई। सशस्त्र क्रांति की तीसरी विशेषता है इसका देशव्यापी होना। पूरे देश में आम लोग क्रांतिकारी बन रहे थे और अंग्रेजों से मरने-मारने की लड़ाई लड़ रहे थे। इनके बीच परस्पर संबंध भी थे, परंतु संबंध गुप्त हुआ करते थे। इनके परस्पर संबंधों को हम कुछेक उदाहरणों से समझ सकते हैं। पंजाब के क्रांतिकारी भगत सिंह राजस्थान के एक क्रांतिकारी को अपने आदर्श के रूप में घोषित करते हैं और वे काम करते हैं उत्तर प्रदेश में आकर, राम प्रसाद बिस्मिल के साथ। काकोरी प्रतिरोध की घटना के बाद जब अंग्रेजों का दमन प्रारंभ हुआ तो क्रांतिकारियों को छिपने के लिए महाराष्ट्र में स्थान मिला। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने अनेक क्रांतिकारियों के छिपने की व्यवस्था की थी। यह सब कुछ बिना एक राष्ट्रीय संजाल की स्थापना के होना संभव नहीं था।
इन क्रांतिकारी संघर्षों की चौथी विशेषता यह थी कि यह संघर्ष न्यूनतम संसाधनों से लड़ा जा रहा था। क्रांतिकारियों को देसी राज्यों का सहयोग प्राप्त नहीं था। 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य समर के बाद अधिकांश देसी राज्यों की हिम्मत समाप्त हो चुकी थी। अधिकांश राज्यों ने अंग्रेजों के साथ घोषित-अघोषित समझौता कर लिया था। अंग्रेजों से संघर्ष करने वाले लोग आम जन थे। इसमें देश के हरेक समुदाय के लोग समान रूप से सहभागी हुए थे, चाहे वह आज का कथित पिछड़ा वर्ग हो या अनुसूचित जाति या या फिर अनुसूचित जनजाति के लोग। सभी समुदाय आपस में मिल कर एक-दूसरे के साथ कंथे से कंधा मिला कर अंग्रेजों को भगाने के लिए प्रयास कर रहे थे।
ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जहां कथित अनुसूचित जनजाति समाज के संघर्ष का नेतृत्व कथित पिछड़े वर्ग के व्यक्ति ने किया। उदाहरण के लिए, भीलों के संघर्ष का नेतृत्व कर रहे थे गोविंद गुरु, जोकि पिछड़े वर्ग से आते थे, जनजाति से नहीं। ऐसे और भी अनेक उदाहरण हैं। यह जो सशस्त्र संघर्ष देश में चल रहा था, वह भारत के समरस समाज का एक ज्वलंत उदाहरण था।
यह हुआ 9 अगस्त, 1925 को
क्रांतिकारियों द्वारा चलाए जा रहे स्वतंत्रता आंदोलन को गति देने के लिए धन चाहिए था। इसके लिए शाहजहांपुर में हुई बैठक में महान क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल ने अंग्रेजी सरकार का खजाना लूटने की योजना बनाई। इस योजना के अनुसार क्रांतिकारी राजेंद्रनाथ लाहिड़ी ने 9 अगस्त, 1925 को लखनऊ जिले के काकोरी रेलवे स्टेशन से चली ‘8 डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन’ को चेन खींच कर रोका। इसके बाद राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफाक उल्ला खां, चंद्रशेखर आजाद ने छह अन्य क्रांतिकारियों की सहायता से सरकारी खजाना लूट लिया। बाद में ब्रिटिश सरकार ने ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ के कुल 40 क्रांतिकारियों पर सम्राट के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी खजाना लूटने और यात्रियों की हत्या करने का मामला चलाया। इसमें राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां तथा ठाकुर रोशन सिंह को मृत्यु-दंड की सजा सुनाई गई। 16 अन्य क्रांतिकारियों को कम से कम चार वर्ष की सजा से लेकर अधिकतम काला पानी (आजीवन कारावास) तक का दंड दिया गया था।
काकोरी में भी हम यह देख सकते हैं कि पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के मुख्य सहयोगी माने गए ठाकुर रोशन सिंह और अशफाक उल्ला। परंतु उनके शेष सहयोगियों के नामों को देखेंगे तो उसमें सभी समाज के लोग मिलेंगे। अंग्रेजों की फूटनीति का इन पर कोई असर नहीं था। जातीय फूट के बीज स्वाधीनता से पूर्व उतना नहीं पनप पाए, जितना स्वाधीनता के बाद भेदकारी चुनावी राजनीति ने उन्हें खाद-पानी देकर पनपाया।
कालांतर में जब महात्मा गांधी के कारण बने वातावरण में क्रांतिकार्य एकदम असंभव जैसा हो गया, उस काल में सशस्त्र संघर्ष को देश के बाहर से प्रारंभ किया गया। आजाद हिंद फौज के रूप में यह सशस्त्र संघर्ष देश को स्वाधीनता मिलने तक जारी रहा। देश के अंदर सशस्त्र संघर्ष के विरुद्ध वातावरण बनने की बात तो क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में ही लिख दी थी। वे 1926 में ही यह बात लिख गए थे। 1930 आते-आते देश में परिस्थितियां सशस्त्र क्रांति के एकदम विरुद्ध हो गई थीं।
यहां यह देखना महत्वपूर्ण है कि काकोरी घटना का प्रभाव न केवल देशव्यापी था, बल्कि अंग्रेजों के लिए भी यह नाक का प्रश्न था। उन्होंने मात्र चार हजार की राशि छीने जाने की घटना के आरोपियों को पकड़ने और दंडित करने के लिए लगभग दस लाख रुपए व्यय किए। निश्चित ही उन्होंने काकोरी घटना को लूट की घटना मात्र नहीं माना था। वस्तुत: यह उनकी सत्ता को चुनौती थी। उन्हें इसका उत्तर देना था।
भले ही स्वाधीन भारत में इतिहासकारों ने अपनी सत्तापरस्ती में स्वाधीनता संग्राम को कांग्रेस के इतिहास में बदल दिया और काकोरी को एक ट्रेन डकैती के रूप में चित्रित किया, परंतु काकोरी का महत्व हमारे वैज्ञानिकों तक को पता था। उन्होंने मंगल ग्रह पर एक क्रेटर का नाम काकोरी के नाम पर रखा। यह सम्मान था, काकोरी घटना की महत्ता का। इस क्रम में यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि तुर्की में कमाल पाशा ने उसी कालखंड में एक जिले का नाम ‘बिस्मिल’ रख दिया था। यह जिला 1936 में बसाया गया था और समझा जाता है कि कमाल पाशा ने राम प्रसाद बिस्मिल से प्रभावित होने के कारण इसका नाम बिस्मिल रखा। बिस्मिल जिले के मुख्यालय शहर का नाम भी बिस्मिल शहर ही है।
यह देश का दुर्भाग्य है कि भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में काकोरी जैसी घटनाओं और इन घटनाओं के पीछे सशस्त्र संघर्ष के एक सुव्यवस्थित इतिहास को उसका निश्चित स्थान नहीं दिया गया। इस कारण बड़ी संख्या में क्रांतिकारियों के नामों को भी भुला दिया गया। इस संघर्ष में प्रकट हुए भारतीय समाज के शौर्य, समरस स्वभाव तथा एकात्म ताकत को इतिहास में कहीं भी वर्णित नहीं किया गया। आज भी यदि हम काकोरी घटना के नायकों का सम्मान करना चाहते हैं, तो सर्वप्रथम लिखित इतिहास में उनका योग्य स्थान उन्हें प्रदान करना होगा।
विचारणीय यह भी है कि तुर्की में बिस्मिल जिला और शहर स्थापित होता है, परंतु भारत में बिस्मिल के जन्मस्थान वाले शहर और जिले का नाम आज भी शाहजहांपुर ही है। सरकार को चाहिए कि मंगल ग्रह पर जिस काकोरी के नाम पर क्रेटर का नामकरण किया गया, कम से कम इस धरती पर उसके नायक के शहर का नामकरण तो उसके नाम पर कर ही दे। राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा विद्यार्थियों और युवा वर्ग के लिए अत्यंत प्रेरक है। उसे विद्यालयों तथा महाविद्यालयों में पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाना चाहिए। यदि प्रेमचंद की एक कहानी ‘दो बैलों की कथा’ को तीन कक्षाओं तक फैलाया जा सकता है, तो बिस्मिल की आत्मकथा को तो कई स्तरों पर पढ़ाया ही जा सकता है। वस्तुत: काकोरी की घटना का पुन: स्मरण इसलिए भी आवश्यक है, ताकि हम उन भूले-बिसरे योद्धाओं का स्मरण कर सकें, जिन्होंने अपनी युवावस्था में देश हेतु अपना बलिदान कर दिया, परंतु हम उनका नाम लेना तक भूल गए हैं।
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा।
उपरोक्त पंक्तियों को लिखने वाले इस कवि ने कभी सोचा तक नहीं होगा कि वतन पर मिटने वालों की चिताओं पर मेले लगना तो दूर, देश इतना शीघ्र उन्हें भुला भी देगा। परंतु पूर्व के चाटुकार इतिहासकारों ने वतन पर मिटने वाले इन युवाओं का इतिहास इस ढंग से गायब किया कि आज विशेष आयोजन करके उन्हें स्मरण करना पड़ता है।
(लेखक सभ्यता अध्ययन केंद्र के निदेशक हैं)
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