स्वामी विवेकानंद ने वर्ष 1893 में शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद में हिंदू सन्यासी के रूप में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए ऐतिहासिक भाषण दिया। उस समय स्वामी जी की आयु 30 वर्ष थी। उनके भाषण से लोग इतने प्रभावित हुए कि उन्हें सम्मलेन के अगले पखवाड़े में पांच बार बोलने के लिए आमंत्रित किया गया।
- भाषण की अगली सुबह प्रकाशित न्यूयार्क हेराल्ड ने लिखा- “विवेकानंद निस्संदेह धर्म संसद में सबसे बड़े व्यक्ति हैं।”
- इस भाषण की शुरुआत उन्होंने “sisters and brothers of America,” से की थी और उसके बाद उन्होंने हिंदुओं की ओर से आभार व्यक्त किया।
- स्वामी विवेकानंद ने भाषण के आरंभ में ही कहा- ‘आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है और मैं आपको दुनिया की प्राचीनतम संत परम्परा की तरफ से धन्यवाद देता हूं। मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जातियों, संप्रदायों के लाखों, करोड़ों हिन्दुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं।’
- यह भाषण मात्र 468 शब्दों का था, इतने कम समय के भाषण में भी स्वामी जी ने विश्व स्तर की छाप छोड़ी – “मुझे ऐसे धर्म पर गर्व है, जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति दोनों को सिखाया है।” इसे उन्होंने हिंदू धर्म का मूल माना, और इसे सबसे मूल्यवान तत्व बताया।
- स्वामी विवेकानंद ने कहा “हम न केवल सार्वभौमिक सहिष्णुता में विश्वास करते हैं, बल्कि हम सभी धर्मों को सच मानते हैं। मुझे ऐसे देश पर गर्व है, जिसने सभी धर्मों और पृथ्वी के सभी राष्ट्रों के सताए हुए और शरणार्थियों को शरण दी है। भाइयो, मैं आप लोगों को एक स्रोत्त की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ, जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं:
रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम् । नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।। - ‘जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।’
- उन्होंने धर्म संसद में जो कुछ बोला वह उनके अनुभव और उनकी अपनी आत्मा के अन्तःकरण से निकली हुई वाणी थी। उन्होंने भाषण में जो बोला, उसने वहाँ उपस्थित दर्शकों को भारतीय संस्कृति और हिन्दुत्त्व पर चिंतन करने के लिए प्रेरणा दी। उनके उद्बोधन ने उनसे पहले बोलने वाले कई वक्ताओं को भी प्रभावित किया।
- स्वामी विवेकानंद ने कहा कि -“सांप्रदायिकता, कट्टरता और इसके भयानक वंशजों के धार्मिक हठ ने लंबे समय से इस खूबसूरत धरती को जकड़ रखा है। उन्होंने इस धरती को हिंसा से भर दिया है और कितनी ही बार यह धरती खून से लाल हो चुकी है। न जाने कितनी सभ्याताएं तबाह हुईं और कितने देश मिटा दिए गए।” यदि ये भयावह राक्षस नहीं होते तो मानव समाज कहीं ज़्यादा श्रेष्ठतर होता, जितना कि अभी है लेकिन उनका समय अब पूरा हो चुका है। मुझे आशा है कि इस सम्मेलन का बिगुल सभी तरह की कट्टरता, हठधर्मिता और दुखों का विनाश करने वाला होगा। चाहे वह तलवार से हो या फिर लेखनी से।
- स्वामी विवेकानंद अपने छोटे जीवन में जिस कार्य और संदेश का संचार किया, उससे सम्पूर्ण विश्व आश्चर्यचकित होकर रह जाता है कि ऐसे व्यक्ति ने इस राष्ट्र की भूमि मे जन्म लिया था और यहां की पगडंडियों पर ही चला था। निःसन्देह स्वामी विवेकानन्द एक हिंदू थे और उन्हें हिन्दू होने पर गर्व था। किन्तु उनके दर्शन ने धर्म के जिस स्वरूप को प्रसारित किया उसके केंद्र में मनुष्य था और उनका मौलिक योगदान यह है कि उन्होंने मनुष्य निर्माण की सर्वोत्तम विधा के रूप में ‘हिन्दुत्व’ को अग्रिम पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया।
- विश्व धर्म संसद में विश्व भर के प्रमुख धर्मों के प्रतिनिधि थे जिनमें हिंदू धर्म, यहूदी, इस्लाम, बौद्ध, पारसी, कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट इत्यादि सम्मिलित हुए। किन्तु स्वामी जी का उद्बोधन सबसे सफल रहा।
- स्वामी विवेकानंद के अनुसार- मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान हैं, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है।
- साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी बीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं, उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को विध्वस्त करती और पूरे-पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये बीभत्स दानवी न होते, तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता।
- हिन्दू जाति ने अपना धर्म श्रुति – वेदों से प्राप्त किया है। उसकी धारणा है कि वेद अनादि और अनन्त हैं। सम्भव है, श्रोताओं को यह बात हास्यास्पद लगे कि कोई पुस्तक अनादि और अनन्त कैसे हो सकती है। किन्तु वेदों का अर्थ कोई पुस्तक है ही नहीं। वेदों का अर्थ है, भिन्न-भिन्न कालों में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा आविष्कृत आध्यात्मिक सत्यों का संचित कोष।
- वेद कहते हैं कि आत्मा दिव्यस्वरूप है, वह केवल पंचभूतों के बन्धन में बँध गयी हैं और उन बन्धनों के टूटने पर वह अपने पूर्णत्व को प्राप्त कर लेगी।
- और यह बन्धन केवल ईश्वर की दया से ही टूट सकता है और वह दया पवित्र लोगों को ही प्राप्त होती है। अतएव पवित्रता ही उसके अनुग्रह की प्राप्ति का उपाय है। उसकी दया किस प्रकार काम करती हैं? वह पवित्र हृदय में अपने को प्रकाशित करता है। पवित्र और निर्मल मनुष्य इसी जीवन में ईश्वर दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ हो जाता है।
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