हाल ही में देश के कुछ जाने-माने लोगों द्वारा इस मुद्दे को उठाने के बाद एक बहस-सी छिड़ गई है कि ‘क्या देश में कानून की शिक्षा क्षेत्रीय भाषाओं में दी जानी चाहिए?’ आजादी के पूर्व अंग्रेजों ने भारत में एक संहिताबद्ध कानून प्रणाली शुरू की थी जिसमें अंग्रेजी आधिकारिक भाषा थी।
स्वतंत्रता के बाद भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 में प्रावधान है कि संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। हालंकि इसमें यह प्रावधान किया गया कि भारत के संविधान के लागू होने के 15 वर्ष तक संघ के सभी आधिकारिक उद्देश्यों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग जारी रहेगा।
इसमें आगे यह भी प्रावधान है कि राष्ट्रपति उक्त अवधि के दौरान, आदेश द्वारा संघ के किसी राजकीय प्रयोजन के लिए अंग्रेजी भाषा से भिन्न हिंदी भाषा के प्रयोग को प्राधिकृत कर सकेंगे। परंतु संवैधानिक प्रावधान इससे भिन्न थे। अनुच्छेद 348 (1) (ए) में कहा गया है कि जब तक संसद कानून द्वारा अन्यथा प्रावधान नहीं करती, सर्वोच्च न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सारी कार्यवाही अंग्रेजी में संचालित की जाएगी।
इसके बाद प्रावधानों में कुछ बदलाव भी हुए और इसी क्रम में अनुच्छेद 348(2) में यह प्रावधान है कि अनुच्छेद 348(1) के प्रावधानों के बावजूद, किसी राज्य के राज्यपाल राष्ट्रपति की सहमति से उच्च न्यायालय की कार्यवाही में हिंदी या किसी अन्य आधिकारिक उद्देश्य के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा के प्रयोग को अधिकृत कर सकते हैं।
मालिमथ सीमिति ने भी की थी सिफारिश
वर्ष 2000 में मालिमथ समिति का गठन हुआ था। इसने भारतीय न्याय प्रणाली में सुधार को लेकर 2003 में एक रिपोर्ट दी थी। इसमें यह सिफारिश की गई थी कि क्षेत्रीय भाषाओं में संहिता की अनुसूची बनाई जाए, जिससे आरोपी भी अपने अधिकारों को जान सकें और अधिकारों से वंचित होने पर किससे संपर्क करना है, इसकी जानकारी मिल सके।
महामना ने किया था आंदोलन
महामना मदनमोहन मालवीय ने जब वकालत शुरू की थी तो उन्होंने न्यायालयों की भाषा को लेकर जन आंदोलन किया था। उन्होंने स्थानीय रजवाड़ों को साथ लेकर अवध के गवर्नर एपी मैकडोनल पर दबाव बनाया था। इस पर 16 अप्रैल को न्यायालयों में फारसी और अंग्रेजी के साथ हिंदी में कामकाज को लेकर विज्ञप्ति जारी हुई। न्यायालय में नियुक्ति के लिए हिंदी का ज्ञान अनिवार्य कर दिया गया था। तब से उत्तर प्रदेश के न्यायालयों में हिंदी का प्रयोग भी होने लगा।
अंग्रेजियत अभी भी हावी
समय-समय पर इस संदर्भ में बहुत चर्चाएं और विचार-विमर्श हुए, परंतु आज भी संपूर्ण देश में कानून की शिक्षा अंग्रेजी भाषा में ही दी जाती है। जहां अन्य किसी कोर्स की प्रवेश परीक्षा अंग्रेजी के साथ हिंदी तथा क्षेत्रीय भाषाओं में भी ली जाती है, वहीं वकालत के लिए होनी वाली प्रवेश परीक्षा ह्यक्लैट’ सिर्फ अंग्रेजी भाषा में होती है, जिससे देश के अलग-अलग प्रांतों के छात्रों को समस्याएं भी होती हैं।
यदि सर्वोच्च न्यायालय को ध्यान में रखते हुए सोचा जाए तो अंग्रेजी भाषा में कानूनी शिक्षा देने वालों का मत सही लगता है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय में देश भर की विभिन्न जगहों से मामले आते हैं, जिन्हें लड़ने वाले वकील और फैसला देने वाले न्यायाधीश भी भारत के विभिन्न हिस्सों से आते हैं। ऐसे में न्यायाधीशों से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे उन भाषाओं में दस्तावेज पढ़ें और दलीलें सुनें जिनसे वे परिचित नहीं हैं।
परन्तु यहां इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि देश में जहां इतनी अधिक संख्या में उच्च न्यायालय, जिला न्यायालय, तथा अन्य न्यायालय हैं, जहां सबसे अधिक मामले लंबित हैं, (और सबसे अधिक मामले इन्हीं न्यायालयों में आते हैं) वहां क्षेत्रीय भाषाओं का क्या महत्व होगा। विभिन्न क्षेत्रों के लोग जिन्हें अंग्रेजी भाषा की जानकारी नहीं है, वे जब अपने किसी मामले के लिए न्यायालय जाते हैं तो अपने पक्ष या विपक्ष में आए फैसले को वे पढ़ भी नहीं पाते।
यदि इन सभी समस्यायों का निवारण करना है तो यह अति आवश्यक है कि बिल्कुल प्रारंभिक स्तर से बदलाव किया जाए, जो है- ‘कानूनी शिक्षा’। अगर कानून की शिक्षा छात्रों को अंग्रेजी के साथ – साथ उनकी क्षेत्रीय भाषा में उपलब्ध कराई जाएगी तो आने वाले समय में क्षेत्रीय भाषा में वकालत करने वाले वकीलों एवं न्यायाधीशों की संख्या बढ़ेगी, जिससे यकीनन आम नागरिकों को भी सुविधा होगी और यह देश में एक सकारात्मक बदलाव लाएगा।
2022 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक वीडियो कॉन्फ्रेंस के माध्यम से विधि मंत्रियों और विधि सचिवों के अखिल भारतीय सम्मेलन का उद्घाटन किया था, जिसमें उन्होंने न्याय में आसानी लाने के लिए कानूनी प्रणाली में क्षेत्रीय भाषाओं के उपयोग की वकालत की थी। उन्होंने कहा था, ‘‘नए कानूनों को स्पष्ट तरीके से और क्षेत्रीय भाषाओं में लिखा जाना चाहिए ताकि न्याय में आसानी हो, ताकि गरीब लोग भी उन्हें आसानी से समझ सकें और कानूनी भाषा नागरिकों के लिए बाधा न बने।’’
मुख्य न्यायाधीश भी पक्ष में
हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने भी क्षेत्रीय भाषाओं में कानूनी शिक्षा दिए जाने की वकालत की है। उन्होंने कहा, ‘‘मैं उम्मीद करता हूं कि हर क्षेत्रीय भाषा में कानूनी शिक्षा दी जाएगी ताकि हम वकीलों के ऐसे समूहों को तैयार कर सकें जो अदालतों के समक्ष बहस करने और न्याय को बढ़ावा देने के लिए अपनी मातृभाषा में पारंगत हों।’’
इन सभी बातों का सार यही निकलता है कि आज समय की मांग यही है कि जिस प्रकार से देश को प्रगति की ओर ले जाने के लिए विभिन्न क्षेत्रों में कठोर और बड़े फैसले लिए जा रहे हैं, उसी प्रकार कानूनी शिक्षा में भी एक बड़ा बदलाव लाने की आवश्यकता है। समय आ गया है कि अपने देश के आम नागरिकों की सुविधा को देखते हुए कानून की शिक्षा लेने वाले विद्यार्थियों को उनकी क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा ग्रहण करने की छूट दी जाए जिससे अदालतों में क्षेत्रीय भाषा में दलीलों और बहस को बढ़ावा मिले।
देश के कुछ राज्य जैसे, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश ने अपने-अपने उच्च न्यायालयों में कार्यवाही में हिंदी के प्रयोग को अधिकृत कर दिया है। अन्य राज्यों को भी इनसे प्रेरणा ले कर इस ओर अग्रसर होने की आवश्यकता है, जिससे संपूर्ण राष्ट्र में एक समान कानून प्रणाली बन सके जो आम जन मानस के लिए सुविधाजनक हो।
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