जीवन में कठिन परिश्रम का कोई विकल्प नहीं होता है। कड़ी मेहनत और लगन के बल पर बड़ी से बड़ी मंजिल हासिल की जा सकती है। इस बार 37 वर्षीय पैरा शूटर मोना अग्रवाल ने पेरिस पैरालंपिक में कांस्य पदक जीतकर इन पंक्तियों को सच साबित कर दिया। जिस मोना अग्रवाल को महज नौ महीने की उम्र में दोनों पैरों में पोलियो हो गया था, उसने पेरिस पैरालंपिक में तीन पदक स्पर्धाओं में हिस्सा लिया था। इस दौरान व्हीलचेयर के जरिए चलने वाली एथलीट ने पहाड़ जैसी चुनौतियों को कड़े परिश्रम से पार कर दिखाया। अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में लगातार विजयी प्रदर्शनों के बाद क्वालिफाई करने वाली मोना ने शुक्रवार (30 अगस्त 2024) को 10 मीटर एयर राइफल (एसएच1) प्रतियोगिता में 228.7 का स्कोर बनाकर तीसरा स्थान हासिल कर देश को गौरवान्वित किया। पेरिस पैरालंपिक में भाग लेने वाले हर एथलीट की अपनी कहानी है, लेकिन मोना की कहानी खेल प्रेमियों के अलावा अन्य क्षेत्रों में कार्यरत लोगों को भी प्रेरित कर सकती है।
जाने कौन हैं कांस्य पदक जीतने वाली मोना अग्रवाल
मोना अग्रवाल का जन्म राजस्थान के सीकर में हुआ। उन्हें महज नौ महीने की उम्र में दोनों पैरों में पोलियो हो गया। इसके बावजूद उन्होंने अपने सपनों की उड़ान को नहीं रोका और सफलता हासिल करने के लिए जीतोड़ मेहनत की। यह तो हम सभी जानते हैं कि संघर्ष वह अज्ञात शक्ति है जो व्यक्ति को निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। मोना अग्रवाल ने भी इस अज्ञात शक्ति को पहचाना और चुनौतियों को स्वीकार किया। लेकिन मोना के लिए शारीरिक चुनौतियों से भी ज्यादा सामाजिक चुनौतियां थीं। मोना घर की तीसरी बेटी हैं। इसलिए उन्हें लड़कियों के प्रति पूर्वाग्रह के कारण समाज के तानों का सामना करना पड़ा। फिर पोलियो ने उनकी परेशानियों को और भी बढ़ा दिया। पोलियो के कारण वह बचपन से ही चलने में असमर्थ हो गई थीं। लेकिन उनकी दादी ने उनका हौसला बढ़ाया और उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया।
‘तरक्की के बाद रिश्तेदारों का रवैया बदला’
एक मीडिया इंटरव्यू में मोना के पति रवींद्र चौधरी बताते हैं, “जब उनका (मोना का) जन्म हुआ था तो जमाना आज जैसा नहीं था। लोग बेटी के जन्म को बुरा मानते थे। उन्हें पोलियो हो गया, जिसके बाद रिश्तेदार और अन्य लोगों की नजरों में मोना ने अपने लिए तिरस्कार देखा। हालांकि जैसे-जैसे उसने तरक्की की, रिश्तेदारों और बड़े-बूढ़ों ने ये सब चीजें भुला दीं।” रविंद्र ने यह भी बताया कि उनकी पत्नी ने पहले एथलेटिक्स को अपने खेल के रूप में चुना, इसके बाद पावरलिफ्टिंग और सिटिंग वॉलीबॉल को भी उन्होंने करियर ऑप्शन के रूप में देखा। आखिर में जयपुर की एक और शूटिंग चैंपियन अवनी लेखरा को उन्होंने देखा और फिर शूटिंग को अपने करियर गोल के रूप में आगे बढ़ाने का फैसला किया।
पैरा शूटिंग में आजमाया हाथ
मोना ने वर्ष 2021 में पैरा एथलेटिक्स की ओर रुख किया। उन्होंने शॉट पुट, डिस्कस और पावरलिफ्टिंग में हाथ आजमाया और राज्य स्तरीय टूर्नामेंट में पहुंचकर अपनी पहचान बनाई। पोलियो के कारण उनका शरीर एथलेटिक्स की कठोरता को झेलने में असमर्थ था। इसके बावजूद उन्होंने परिस्थितियों के आगे घुटने नहीं टेके और अपने सपनों को पूरा करने में लगी रहीं। फिर उन्होंने पैरा शूटिंग की ओर रुख किया। राष्ट्रीय चैंपियनशिप 2022 में रजत पदक जीतने के बाद मोना ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दस्तक दी और वर्ष 2023 में अपना पहला वर्ल्ड कप खेलते हुए उन्होंने मिश्रित टीम इवेंट में कांस्य पदक हासिल किया। साथ ही वह पैरा एशियन गेम्स में छठे स्थान पर भी रहीं। इसके बाद 2024 में दिल्ली में आयोजित हुए पैरा शूटिंग वर्ल्ड कप में मोना ने न सिर्फ स्वर्ण पदक जीता, बल्कि नया एशियन रिकॉर्ड बनाते हुए पेरिस पैरालंपिक के लिए क्वालीफाई भी किया।
बच्चों से दस महीने दूर रहकर किया अभ्यास
मोना आर्ट्स की डिग्री ले चुकी हैं। इस समय वह लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी से डिस्टेंस लर्निंग के माध्यम से साइकोलॉजी में मास्टर्स कर रही हैं। मोना के पति रविन्द्र चौधरी भी खिलाड़ी हैं। वर्ष 2017 में मोना और रविन्द्र की एक प्रतियोगिता में मुलाकात हुई, जिसके बाद दोनों 2018 में हमसफर बन गए। रविन्द्र ने उन्हें हमेशा खेलों में आगे बढ़ने की सीख दी। मोना की पांच साल की बेटी आरवी और तीन साल का बेटा अविक है। उन्होंने लगभग दस महीने बच्चों से दूर रहकर अभ्यास किया।
प्राइवेट नौकरी भी की
मोना ने कुछ समय प्राइवेट नौकरी भी की। बाद में बहरोड कोर्ट में लिपिक के पद पर उन्हें नौकरी मिल गई। इसके बाद पदक जीतने पर उन्हें आबकारी विभाग में लिपिक के पद पर खेल कोटे में जयपुर में नौकरी मिल गई।
‘बेटे से भी बढ़कर किया काम’
मोना की सास अपनी बहू के कांस्य पदक जीतने पर बेहद खुश हैं। उन्होंने कहा कि उनकी बहू ने बेटे से भी बढ़कर काम किया है। वह आज गौरवान्वित महसूस कर रही हैं।
मोना अग्रवाल ने 37 साल की उम्र में पैरालंपिक में कांस्य पदक जीतकर न केवल बेटियों को बोझ समझने वालों और उन्हें कम आंकने वालों को गलत साबित किया है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए मिसाल भी कायम की है।
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