चार साल बीत चुके हैं लद्दाख में चीन की उस शैतानी हरकत को, लेकिन अब वह ‘बातचीत और समन्वय’ के नाम पर बैठकें करता आ रहा है। दोनों देशों में लगातार बात तो हो रही है, लेकिन ज्यादातर बेनतीजा ही रहती है। कोई न कोई अड़ंगा लगाकर बीजिंग चीजों को फिर वहीं ले आता रहा है जहां से वह शुरू हुई होती हैं।
भारत और चीन के बीच सीमा विवाद सुलझाने के लिए जिन आपसी बैठकों का सहारा लिया जा रहा है, वे चीन के अड़ियल रवैए के चलते उतना असरदार नहीं दिख रहा है। जबकि दूसरी ओर, चीन के नेता इसे ‘सकारात्मक’ और ‘मुद्दे को सुलझाने की तरफ एक और कदम’ बताने से नहीं चूकते। भारत के विदेश मंत्री जयशंकर संकते में कह भी चुके हैं कि सीमा विवाद को सुलझाने के लिए चीन की तरफ से और प्रयास की जरूरत है।
अभी बीजिंग में सम्पन्न हुई दोनों देशों के प्रतिनिधिमंडलों की 31वीं बैठक भी कोई बहुत ज्यादा फलदायी नहीं रही, मात्र सहमतियों का आदान—प्रदान किया गया, जिसके लिए बीजिंग के चतुर नेता तैयार ही रहते हैं। ठोस समाधान वे निकालना ही नहीं चाहते, क्योंकि इसमें दोषी वे ही पाए जाएंगे।
जून 2020 में गलवान संघर्ष के बाद, संबंधों में आए तनाव को दूर करने के लिए ही भारत-चीन सीमा विवाद को दूर करने के लिए सलाह और समन्वय के कार्यदल की इस बार की बैठक बीजिंग में रखी गई थी। इसमें वास्तविक नियंत्रण रेखा के हालात पर आपस में समझ को साझा किया गया। इसके अलावा वर्तमान समझौतों तथा व्यवस्थाओं के अंतर्गत तय किया गया कि सीमांत क्षेत्र में शांति बनाए रखी जाए। एक नई चीज इस बैठक में हुई और वह यह है कि ‘विवाद को दूर करने के लिए’ सहमति बनी कि अब सैन्य तथा कूटनीति, दोनों तरह से पारस्परिक संपर्क गहरा किया जाए।
पूर्वी लद्दाख में हुए संघर्ष को लेकर भारत और चीन के अपने अपने दावे सामने आते रहे हैं। भारत ने सबूतों के साथ यह सिद्ध किया है कि जिस जगह चीनी सैनिक घुस आए थे वह भारत की है और वहां भारत के पहरेदार चौकस रहते हैं। लेकिन विस्तारवादी चीन यह जताने पर तुला है कि वह जगह चीन के अंतर्गत है इसलिए चीनी वहां जा सकते हैं। यही झूठ वह डोकलाम में बोलता रहा, यही झूठ उसने नेपाल के सीमांत इलाकों को लेकर फैलाया। उन दो देशों की सीमाओं पर तो उसने कथित तौर पर अपने ढांचे खड़े कर लिए हैं और फौजी भी पहुंचा दिए हैं।
भारत में भी पैंगोंग झील और उसके आसपास के इलाकों पर बीजिंग झूठे दावे ठोंकता आ रहा है जिन्हें भारत ने अंततराष्ट्रीय मंचों तक से झूठा साबित किया है। वर्तमान केन्द्र सरकार पूर्ववर्ती नेहरू सरकार से उलट अब एक इंच भूमि भी दूसरे देश के हाथ में न जाने देने को प्रतिबद्ध है।
चार साल बीत चुके हैं लद्दाख में चीन की उस शैतानी हरकत को, लेकिन अब वह ‘बातचीत और समन्वय’ के नाम पर बैठकें करता आ रहा है। दोनों देशों में लगातार बात तो हो रही है, लेकिन ज्यादातर बेनतीजा ही रहती है। कोई न कोई अड़ंगा लगाकर बीजिंग चीजों को फिर वहीं ले आता रहा है जहां से वह शुरू हुई होती हैं।
उल्लेखनीय है कि भारत और चीन के बीच सीमा को लेकर 1993 के बाद से कई समझौते हो चुके हैं। उदाहरण के लिए, 1993 में एक समझौता हुआ, फिर 1996 में और 2003 में समझौते हुए। आखिरी समझौता 2005 में किया गया। इन सभी समझौतों में मुख्यत: सीमा पर शाांति कायम रखने की बातें ही हैं।
बीजिंग की परसों हुई बैठक में भारतीय के प्रतिनिधिमंडल की नेता थे संयुक्त सचिव (पूर्वी एशिया) गौरांगलाल दास। चीन की तरफ से वार्ताकारों के अगुआ थे हांग लिआंग जो चीन के विदेश मंत्रालय में सीमा एवं सागर विभाग में महानिदेशक हैं।
इससे पूर्व जुलाई 2024 में अस्ताना में भारत और चीन के विदेश मंत्रियों की बात हुई थी, जिसके बाद बीजिंग की बैठक हुई। भारत के विदेश मंत्रालय ने बयान दिया कि बातचीत में आने वाले वक्त को देखकर एलएसी के हालात पर विचार सुने—समझे गए। मुद्दा था आपसी मनमुटाव को कैसे कम किया जाए। सीमा विवाद का भी जल्दी निदान निकालने की बात हुई। तय पाया गया कि कूटनीतिक तरीके के साथ ही सैन्य स्तर पर भी बात हो।
बाकी रस्म की तरह सीमा पर शांति बनाए रखने को लेकर ‘सहमति’ बनी, जो पहले कई बार बन चुकी है और जिसे अनदेखा करके ही चीन ने गलवान में ‘हथियारों’ के साथ घुसने और भारत के सैनिकों पर हमले की कायराना हरकत की थी। द्विपक्षीय समझौतों, संधियों को बीजिंग वैसे भी शायद उतना महत्व नहीं देता है। एलएसी का सम्मान बनाए रखने की बात भी हुई, लेकिन चीन की शब्दावली में सम्मान जैसे शब्द शायद हैं ही नहीं। गौरांगलाल बाद में चीन के उप विदेश मंत्री से भी मिलने गए थे। उस चर्चा का कोई ब्योरा सामने नहीं आया है।
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