आधुनिक समय जैसे-जैसे विकास की अपार संभावनाओं के बीच सतत ऊंचाइयों को छू रहा है। मानवीय समाज में सफलता का दबाव इस कदर हावी होता जा रहा है कि थोड़ी सी असफलता भी कोई स्वीकार्य नहीं करना चाह रहा, जिसके कि परिणाम बहुत भयावह रूप से सामने आ रहे हैं। इसमें दुखद यह है कि बच्चे अपना धैर्य खोते जा रहे हैं और अपने बीच समस्याओं के समाधान के लिए जब वे किसी को नहीं पाते तो आत्महत्या जैसा अनुचित कदम उठा लेते हैं। किंतु अपनी जीवन लीला समाप्ति के बाद ऐसे बच्चे अपने अभिभावकों के लिए बहुत बड़ा दर्द पीछे छोड़ जाते हैं, जिसे वे जीते जी, जीवन भर अनुभव करते हैं । इससे जुड़े जो आंकड़े हाल ही में सामने आए हैं आज वे बहुत चिंता पैदा कर रहे हैं। क्योंकि भारत में छात्रों की आत्महत्या की घटनाएं समग्र आत्महत्या प्रवृत्तियों की दर से भी अधिक हो गई है। पिछले दशक में छात्र आत्महत्याओं में 50 और छात्राओं में 61 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। पिछले पांच वर्षों में दोनों में औसतन 5 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि हुई है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के आधार पर, छात्र आत्महत्या भारत में फैलती महामारी रिपोर्ट वार्षिक आईसी-3 सम्मेलन में जारी की गई है जो हमारे सभ्य समाज को आज बहुत कुछ विचार करने के लिए विवश कर रही है । देश में आत्महत्या की घटनाओं की संख्या में प्रतिवर्ष दो प्रतिशत की वृद्धि देखी जा रही है, जिसमें कि विद्यार्थियों की आत्महत्या के मामलों में चार प्रतिशत की वृद्धि हुई है। आईसी3 इंस्टीट्यूट की ओर से संकलित यह रिपोर्ट बता रही है कि वर्ष 2022 में कुल छात्र आत्महत्या के मामलों में 53 प्रतिशत पुरुष छात्रों ने खुदकुशी की थी, जबकि इससे पहले के वर्ष में छात्राओं की आत्महत्या में सात प्रतिशत की वृद्धि दिखी। जिसमें कि सबसे ज्यादा चिंताजनक स्थिति राज्यवार मुख्य पांच राज्यों को देखें तो महाराष्ट्र, तमिलनाडु और मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और झारखण्ड की है। इन प्रदेशों में छात्र सबसे अधिक आत्महत्या कर रहे हैं। यानी कि जो आंकड़ा निकलकर सामने आया है, वह देश में होने वाली कुल आत्महत्याओं का एक तिहाई है, कोटा जैसे कोचिंग केंद्रों से जुड़ा राजस्थान इस सूची में दसवें स्थान पर है। महाराष्ट्र में 2022 के दौरान 1,764, तमिलनाड़ में 1,416, मध्य प्रदेश में 1,340, उत्तर प्रदेश में 1,060 और झारखण्ड में 824 विद्यार्थियों ने अपनी जीवनलीला समाप्त की है।
वास्तव में एनसीआरबी के आंकड़े पुलिस की ओर से दर्ज की गई प्राथमिकी रिपोर्ट (एफआईआर) पर आधारित है। जो हमें सभ्य समाज के बीच बहुत कुछ सोचने पर विवश कर रही है। क्या हमारे इस सभ्य समाज में आत्महत्या के लिए कोई जगह होनी चाहिए? यदि नहीं तो यह आत्महत्याएं क्यों हो रही हैं? इसका अर्थ हुआ कि हम अपने बच्चों में जीवन की सकारात्मकता के प्रति विश्वास पैदा नहीं कर पा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीजी ने इसलिए ही परीक्षा पर चर्चा की शुरूआत की है, ताकि बच्चे उसके प्रति सहज हों और उससे बिल्कुल भी घबनाएं नहीं । अभिभावकों को भी चाहिए कि वह अपने बच्चों को सहनशील बनाने एवं धैर्य धारण करने की दिशा में भी प्रशिक्षित करें।
इसके साथ ही हमें अपने बच्चों का परिचय राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) और राज्य बाल संरक्षण आयोग (एससीपीसीआर) से अवश्य करवाना चाहिए। जो कार्य राष्ट्रीय स्तर पर एनसीपीसीआर का है, वही राज्य स्तर पर एससीपीसीआर करता है। आयोग के लिए, शुन्य से लेकर अट्ठारह वर्ष की आयु वर्ग के सभी बच्चों की सुरक्षा समान महत्व रखता है। आयोग का अपने गठन के पहले दिन से ही यह मानना रहा है कि बाल अधिकार के संरक्षण के हित में एक बड़े वातावरण का निर्माण होना आवश्यक है। अत: इसके लिए जो भी कदम हो सकते हैं, वे सभी बच्चों के हित केंद्र व राज्य सरकारों को उठाने चाहिए। आयोग के लिए, सभी बच्चों के अधिकार समान महत्व के हैं।
देश भर में केंद्र व राज्य बाल आयोग संसद के अधिनियम (दिसम्बर 2005) के तहत एक सांवैधानिक निकाय के रूप में आज कार्य कर रहे हैं। इस अधिनियम में आयोग के कार्य ही हैं, बाल अधिकारों की सुरक्षा की जांच तथा समीक्षा करना तथा उनके प्रभावी क्रियांवयन के लिए उपाय की अनुशंसा करना। वस्तुत: इसके लिए आयोग को संसद से अपार शक्तियां भी दी गई हैं। किसी मामले की जांच करने के दौरान आयोग के पास कोड ऑफ सिविल प्रॉसीजर 1908 के तहत विशेषकर निम्न मामलों में व्यवहार न्यायालय द्वारा कार्यवाही करने के सभी अधिकार दिए गए हैं । एससीपीसीआर के पास भारत के किसी भी हिस्से से किसी व्यक्ति को सम्मन जारी करना तथा उसे उपस्थित होने के लिए कहना और शपथ दिलाकर जांच करना है तो वहीं यही अधिकार एससीपीसीआर को उसके राज्य में प्रदत्त हैं।
आयोग सरकारों को किसी दस्तावेज की खोज तथा निर्माण करने की आवश्यकता के लिए कह सकता है। किसी कोर्ट ऑफ ऑफिस से किसी पब्लिक रिकॉर्ड या उसकी कॉपी की मांग कर सकता है ।मामले को उन मजिस्ट्रेट के पास भेजना जिनके पास उनकी सुनवाई के न्यायिक अधिक हों। जांच के दौरान बाल अधिकारों तथा कानूनी प्रावधानों के उल्लंघन का मामला साबित होने पर संबंधित सरकार को कार्रवाई या अभियोजन अथवा किसी अन्य कार्यवाई के लिए अनुशंसित करता है । यदि वह अदालत उचित समझती है तो निर्देशों, आदेशों या आज्ञापत्र के लिए सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय जाना। यदि आवश्यक हो तो पीड़ित या उनके परिवार के सदस्यों की ऐसी अंतरिम सहायता की मंजूरी के लिए संबद्ध सरकार या प्राधिकार को अनुशंसा भेजना सभी आयोगों का अहम कार्य है ।
अत: यह जरूरी हो जाता है कि अपने बच्चों को हम बाल आयोग के बारे में बताएं। ताकि वह जरूरत पढ़ने पर आयोग का सहयोग अपने अपरिहार्य निवारण के लिए ले सके। यदि कहीं उन्हें (बच्चों को) संवाद के स्तर पर कमी नजर आती है, किसी भी बालक को कोई परेशानी या कठिनाई किसी भी तरह की हो रही है, कोई उसे परेशान कर रहा है तो वह सीधे बाल आयोग में शिकायत कर सकते हैं। हो सकता है, इस पहल से और बाल संरक्षण आयोग के लिए गए नीतिगत निर्णय से हम किसी बालक के जीवन को बचा पाने में सफल हो जाएं।
(लेखिका, मध्य प्रदेश बाल संरक्षण आयोग की सदस्य हैं)
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