वर्तमान समय में देश का माहौल बदला हुआ है। कोलकाता में महिला डॉक्टर से बलात्कार के बार निर्मम हत्या के बाद देशव्यापी विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। अस्पतालों में इलाज ठप है। महिलाओं की सुरक्षा के लिए सरकार ने पॉक्सो जैसे कड़े कानून बनाए हैं। फिर भी महिलाओं के विरुद्ध अपराध थम नहीं रहे हैं। अदालतों में महिला यौन हिंसा के ढेरों मामले लंबित हैं। इसका कारण है- ऐसे मामलों में एफआईआर दर्ज करने, जांच और मुकदमे की सुनवाई में देरी। अक्सर ऐसे मामलों में पीड़िता को ही दोषी ठहरा दिया जाता है।
अजमेर सामूहिक बलात्कार कांड में 32 वर्ष के बाद पॉक्सो की विशेष अदालत ने 6 आरोपियों को दोषी ठहराया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई। इन सभी ने 11 से 20 वर्ष की अनेक लड़कियों का पहले यौन शोषण किया, फिर उन्हें ब्लैकमेल किया। इन जघन्य अपराध में शहर के प्रभावशाली और संपन्न परिवारों के पुरुष थे।
1992 में 18 लोगों को आरोपी बनाया गया था। लेकिन पहला आरोपी 2003 में और अंतिम आरोपी 2018 में पेश हुआ। कहा गया कि लंबे समय तक आरोपियों की अनुपस्थिति के कारण जांच और मुकदमे की सुनवाई में देरी हुई। बहरहाल, यह निर्णय ऐसे समय पर आया है, जब सर्वोच्च न्यायालय ने कोलकाता के आरजी कर अस्पताल में एक महिला डॉक्टर के बलात्कार और निर्मम हत्या पर स्वत: संज्ञान लिया है।
अजमेर सामूहिक बलात्कार मामले में पॉक्सो की विशेष अदालत के बहुप्रतीक्षित निर्णय ने हमारे समक्ष एक महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा कर दिया है। क्या अदालत से न्याय मिल गया? अपराध की प्रवृत्ति घिनौनी थी, जिसने समाज की अंतरात्मा को झकझोर दिया था, फिर भी अदालत को निर्णय सुनाने में 32 वर्ष लग गए। यही नहीं, राजनीति और अपराध के घालमेल पर केंद्रित चर्चा में पीड़ितों और उनकी दुर्दशा को काफी हद तक अनसुना कर दिया गया है।
अपराध और फैसले के बीच लंबा समय बीतने के कारण यौन हिंसा के प्रति संवेदनशील लोगों की उम्मीदें धुंधली हो गई हैं। पुनर्वास, गुमनामी का सम्मान, मानसिक स्वास्थ्य परामर्श यौन शोषण के शिकार व्यक्ति को समाज की मुख्यधारा में वापस लाने के विभिन्न पहलू हैं। यदि समय रहते ऐसा नहीं किया गया तो आपराधिक न्याय प्रणाली के कारण पीड़ितों की दुर्दशा और बढ़ जाती है।
न्यायालय ने पीड़ितों के लिए मुआवजे का प्रावधान किया है, लेकिन पीड़ितों द्वारा अनुभव किए गए आघात और न्याय में देरी के बाद मुआवजे की बड़ी से बड़ी राशि उसके जीवन के पुनर्निर्माण की गारंटी नहीं दे सकती है। कई जिंदगियों को अंधेरे में धकेलने वाले अपराधियों को दोषी ठहराने और सजा सुनाने में इतना लंबा समय लगने से अपराध के शिकार पीड़ितों का विश्वास खत्म हो जाता है। न्याय वितरण प्रणाली पर उनका विश्वास डगमगा जाता है।
इसलिए सरकार और न्यायालयों का कर्तव्य है कि ऐसे मामलों में पीड़ितों की गरिमा को बहाल करने में मदद करें। उनमें जीवन के प्रति आशा जगाएं। यह सवाल हमें खुद से पूछना चाहिए कि क्या उन पीड़ितों को न्याय मिला, जिन्होंने अपनी जान दे दी? क्या हम उन पीड़ित महिलाओं का सामना कर सकते हैं, जो अब बूढ़ी हो चुकी हैं। उनमें से अधिकतर दादी-नानी, मां-चाची बन गई हैं।
क्या हम दृढ़ विश्वास के साथ कह सकते हैं कि न्याय मिल गया है? क्या सिस्टम यौन अपराधों के पीड़ितों को विफल कर चुका है? क्या हम अपनी रक्षा के लिए आपराधिक न्याय प्रणाली पर भरोसा कर सकते हैं? नए कानून से उम्मीदें बढ़ गई हैं, क्योंकि सभी को जवाबदेह बनाया गया है। मामला दर्ज कर पुलिस को तय समय में जांच करनी होगी और अदलतों को भी उसी तरह तय समयसीमा में मुकदमों का निपटारा करना होगा।
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