2011 की फिल्म ‘द एडजस्टमेंट ब्यूरो’ का एक महत्वपूर्ण दृश्य है, जो आपको झकझोरता है। इसमें मुख्य किरदार डेविड अपने अदृश्य कर्ताओं से सवाल करता है, जो उसकी ज़िन्दगी की हर चाल को अपनी मर्जी से चलाते हैं। डेविड हताश होकर पूछता है, “आखिर मेरी मर्जी कहाँ गई?” इस पर ब्यूरो का प्रतिनिधि थॉम्पसन जवाब देता है, “तुम्हारे पास अपनी मर्जी नहीं है, डेविड। तुम्हारे पास बस अपनी मर्जी का दिखावा है।” यह दृश्य उन ताकतों का रूपक है, जो परदे के पीछे से सारी दुनिया को अपनी उंगलियों पर नचा रही हैं, जिससे हमें लगता है कि हम चुनाव कर रहे हैं, जबकि हकीकत कुछ और ही होती है। यही हाल बांग्लादेश का है।
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यह सिर्फ़ फिल्मी दुनिया की बात नहीं है। भारत के इर्द-गिर्द का भू-राजनीतिक माहौल, खासकर बांग्लादेश में इस बात की मिसाल है। बांग्लादेश का ताजा इतिहास हिंसा, धोखेबाजी और संघर्ष की चादर में लिपटा हुआ है। भारत के आसपास का भू-राजनीतिक परिदृश्य, खासकर बांग्लादेश में, इस विचार की गूंज सुनाई देती है। हाल ही में प्रधानमंत्री शेख हसीना ने खुलासा किया है कि 15 साल सत्ता में रहने के बाद, उनके संभावित सत्ता से बेदखल होने का कारण अमेरिका का बंगाल की खाड़ी के सेंट मार्टिन्स द्वीप को लेकर दबाव था। उनके शब्दों में, “अगर मैंने सेंट मार्टिन्स और बंगाल की खाड़ी को अमेरिका के हवाले कर दिया होता, तो मैं सत्ता में बनी रहती।”
इन आरोपों को और पेचीदा बना देता है अमेरिकी सहायक विदेश मंत्री डोनाल्ड लू की गतिविधियां, जिन्हें कुछ लोग ‘डीप स्टेट’ एजेंट बताते हैं, जिनका मकसद दक्षिण एशिया को हिला देना है। लू की इस क्षेत्र में गतिविधियां, जैसे भारत के लोकसभा चुनावों के दौरान चेन्नई में अचानक दौरा और राहुल गांधी जैसे विपक्षी नेताओं से गुप्त बैठकों ने कई सवाल खड़े किए हैं और अमेरिका के इरादों पर शक जताया है। जम्मू-कश्मीर पर उनकी टिप्पणियों और पाकिस्तान, बांग्लादेश और यहां तक कि श्रीलंका में राजनीतिक घटनाक्रम में उनकी कथित भूमिका से यह संकेत मिलता है कि यह हस्तक्षेप दक्षिण एशिया के राजनीतिक परिदृश्य को नए सिरे से गढ़ने के लिए है।
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बांग्लादेश का हालिया इतिहास एक जटिल चादर की तरह है, जिसमें हिंसा, विश्वासघात और सहनशीलता की डोर बुनती है। 1975 में शेख मुजीबुर रहमान की हत्या ने देश के इतिहास में एक काला अध्याय लिखा। उनकी मौत, जैसा कि पूर्व जर्मन चांसलर विली ब्रांट ने कहा था, एक “घिनौना कृत्य” था, जिसने देश के भविष्य पर लंबी छाया डाली। हाल ही में ढाका में मुजीब की मूर्ति तोड़े जाने की घटना इस बात का कड़ा सबूत है कि जब जनता में गुस्सा और राजनीतिक असहमति बढ़ती है, तो एक संस्थापक पिता की विरासत कितनी नाजुक हो सकती है।
जैसे-जैसे बांग्लादेश इस तूफानी दौर से गुजर रहा है, यह सवाल उठता है, क्या यह देश अपनी इतिहास की उन पुरानी परछाइयों में फिर से खो जाएगा जो कट्टरता और हिंसा से घिरी हुई हैं? या फिर यह लोकतंत्र को अपनाते हुए एक उज्जवल भविष्य की ओर बढ़ेगा? छात्रों का विरोध, जो आशा की एक किरण है, के बावजूद यह खतरा भी है कि ये असंतोष और बवाल को और भड़काने का कारण बन सकते हैं। कादर सिद्दीक़ी की छवि आज भी चेतावनी के रूप में मौजूद है कि अच्छी नीयत से शुरू हुए आंदोलन भी कभी-कभी अराजकता में बदल सकते हैं।
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1975 में शेख मुजीबुर रहमान की हत्या से लेकर उनकी बेटी शेख हसीना का तख्तापलट देश के इतिहास का काला पन्ना बन गई है। मुजीब निर्विवाद रूप से बांग्लादेश के हीरो माने जाते थे, जो भाषा को लेकर पाकिस्तान से टकराये थे, और पूरे बांग्लादेश के हीरो बन गये थे, लेकिन सत्ता संभालने के बाद 4 साल से कम समय में ही मौत के धाट उतार दिये गये थे, दिलचस्प ये है कि मौत वाले दिन उनके धर से लगातार फोन सेना प्रमुख को किये गये, कि प्रधानमंत्री को बचाइये, लेकिन फौज के कुछ अफसरों ने चुनचुन कर पूरे परिवार को मौत के धाट उतार दिया। ठीक 49 साल के बाद उनकी बेटी को भी उसी अंदाज में फौज ने 1 धंटे का अल्टीमेटम दिया कि भाग निकलें, वरना इस बार उनकी मौत लिंचिग के जरिये करवा दी जायेगी। बाद में जो कुछ हो रहा है वो पूरी दुनिया अविश्वास से देख रही है कि कैसे बंगाली मज़हब की आग में मुजीब की मूर्ति तोड़ रहे हैं, तो हिंदूओं को मार रहे है। यह दिखाता है कि मज़हब की आग पर हाथ सेक कर बनाये आशियाने खुद उसी आग की तपिश में जलने को मजबूर हो सकते हैं। जिस छात्र आंदोलन को हसीना सरकार की नितीयों के खिलाफ एक सहज आंदोलन माना जा रहा है, उसमें हिंदूओं से नफरत का शामिल होना मूल चरित्र को ही उजागर करता है।
राजनीतिक और वैचारिक बदलाव दुनिया में नए नहीं हैं। इतिहास में कई बार देखा गया है जब समाज बदलते मूल्यों और दृष्टिकोणों के चलते कभी पूज्य रहे नेताओं की मूर्तियों को गिरा देता है या उनके प्रतीकों को विकृत कर देता है। लेनिन से लेकर सद्दाम हुसैन तक, ये कृत्य केवल असहमति के प्रतीक नहीं, बल्कि समाज के बदलते दौर का आईना हैं।
हसीना के तख्तापलट के एक मुख्य किरदार नाहिद इस्लाम जो छात्र आंदोलन के प्रमुख चेहरा हमें 1971 के युद्ध के हीरो रहे कादर सिद्दीकी की याद दिलाता है, जो बांग्लादेश के इतिहास के एक काले अध्याय का हिस्सा रहे, ढाका की आजादी के तुरंत बाद, सिद्दीकी ने सरेआम तीन सहयोगियों को बंदूक की बैनट से पत्रकारों से बात करते हुये बेदर्दी से मौत के घाट उतार दिया था वो भी विदेशी पत्रकारों के कैमरे के सामने, उस घटना ने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया, और उस आजादी की बुनियाद पर सवाल उठा दिए जिसके लिए न जाने कितने लोगों ने अपनी जान गँवाई थी।
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आज बांग्लादेश का लोकतंत्र मानो रस्सी पर चल रहा है और उसका भविष्य हवा के रुख पर निर्भर है। हाल की हिंसा केवल व्यक्तियों पर हमला नहीं है, बल्कि सहिष्णुता, धर्मनिरपेक्षता और न्याय की उन बुनियादी बातों पर प्रहार है जिन पर इस राष्ट्र की नींव डालने के दावे किये गये, कट्टरपंथ का जिन्न, जिसने भारत के टुकड़े करवाये, वो कभी पूरी तरह बोतल में बंद नहीं हुआ, वो पिछले 53 सालों से लगातार बांग्लादेश को डराता है, समय-समय पर हिंदुओ के खिलाफ हिंसा और सामाजिक अशांति में दिखाई देता है।
इस ताने-बाने के बीच, एक नोबेल पुरस्कार विजेता का अंतरिम सरकार का मुखिया बनना, उम्मीद और संदेह दोनों लेकर आता है। माइक्रोक्रेडिट और माइक्रोफाइनेंस के लिए नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित इस व्यक्ति की सराहना हो सकती है, लेकिन राजनीति का मैदान एक अलग ही रणक्षेत्र होता है। सरकार चलाने के लिए सिर्फ अच्छे इरादे ही नहीं, बल्कि लोहा लेना भी पड़ता है, और इसमें कई दाँवपेंच लगते हैं जिनसे बड़े-बड़े धुरंधर भी हार जाते हैं।
बांग्लादेश की मौजूदा उथल-पुथल उन गहरे जख्मों का नतीजा है जिनका कभी इलाज नहीं हुआ–कट्टरपंथ की जड़ को उखाड़ फेंकने में नाकामी और एक बहुलतावादी समाज को बनाए रखने की चुनौती। यह हालात हमें याद दिलाते हैं कि सत्ता और राजनीति का खेल अभी खत्म नहीं हुआ है। जैसे कि ‘द एडजस्टमेंट ब्यूरो’ में थॉम्पसन के शब्दों ने दिखाया कि मानवता का फ्री विल अक्सर एक भ्रम होता है, वैसे ही बांग्लादेश की हालात यह बताती हैं कि इस देश की किस्मत भी आंतरिक और बाहरी ताकतों के इशारों पर चल सकती है।
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कादर सिद्दीकी के कृत्य की छाया आज भी जैसे एक चेतावनी बनकर मंडरा रही है कि सबसे नेक इरादे वाली गतिविधियाँ भी कैसे अराजकता में बदल सकती हैं। अंततः बांग्लादेश में भले ही तूफान का झोंका अभी थमा हो, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि यह आंधी भारत के दरवाजे पर दस्तक नहीं देगी। दक्षिण एशिया की भू-राजनीतिक जटिलताएँ इतनी आपस में जुड़ी हुई हैं कि संभावित असर को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। बांग्लादेश के नेताओं और वहाँ के लोगों द्वारा लिए गए निर्णयों का असर न केवल राष्ट्र पर, बल्कि पूरे क्षेत्र पर भी पड़ेगा।
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