भारत

श्री अरविंद घोष जयंती पर विशेष: आजादी से अतिमानस की यात्रा कराने वाला महामनीषी

Published by
Mahak Singh

आज स्वतंत्रता की 78 वीं वर्षगांठ पर भारत की स्वतंत्रता के अग्रदूत, क्रांतिकारी, कवि, लेखक, दार्शनिक, ऋषि, मंत्रद्रष्टा एवं महान योगी श्री अरविंद घोष की 152वीं जयंती है। भारतभूमि के इस महामनीषी का जन्म कलकत्ता शहर के सुप्रसिद्ध एलोपैथिक चिकित्सक डॉ. कृष्णधन घोष और स्वर्णलता देवी के घर 15 अगस्त 1872 को कृष्ण-जन्माष्टमी की पावन तिथि को हुआ था। आइए इस शुभ दिवस पर पुनः याद करते हैं इस महामानव के जीवन से जुड़ी उन खास बातों को जो आज भी हर प्रबुद्ध भारतवासी के अंतस में राष्ट्र निर्माण की अनूठी प्रेरणा भर देती हैं।

ज्ञात हो कि पांच साल की आयु में दार्जिलिंग के लोरेटो कॉन्वेंट स्कूल से अपनी स्कूली शिक्षा का शुभारम्भ करने वाले बालक अरविंद को मात्र सात वर्ष की आयु में उनके पिता ने इंग्लैंड भेज दिया था। इस बात के प्रति सतर्कता बरतते हुए कि उन पर भारतीय संस्कृति और परम्परा का कोई प्रभाव न पड़े। 18 साल की उम्र में उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र की भी पढ़ाई की थी। अरविन्द 14 वर्ष तक इंग्लैंड में पढ़कर पूरी तरह अंग्रेजी आचार-विचार में पले-बढ़े। यही नहीं, पिता की इच्छा का मान रखते हुए अरविंद घोष ने कैम्ब्रिज में रहते हुए न सिर्फ आईसीएस के लिए आवेदन किया, बल्कि 1890 में भारतीय सिविल सेवा की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। लेकिन घुड़सवारी के जरूरी इम्तिहान को पास न कर पाने के कारण उन्हें सिविल सेवा में प्रवेश नहीं मिला।

स्वदेश लौटने के बाद वे बड़ौदा में गायकवाड़ नरेश के निजी सचिव बन गये। इसी बीच मृणालिनी नाम की कन्या से विवाह भी हो गया। किन्तु इसी बीच कोलकाता लौट आये और आजादी के आंदोलन में कूद पड़े। भाई बारिन ने उन्हें बाघा जतिन, जतिन बनर्जी और सुरेंद्रनाथ टैगोर जैसी क्रांतिकारियों से मिलवाया। इसके बाद वे 1902 में अहमदाबाद के कांग्रेस सत्र में बाल गंगाधर तिलक से मिले और बाल गंगाधर से प्रभावित होकर स्वतंत्रता संघर्ष से जुड़ गए। 1906 में बंग-भग आंदोलन के दौरान उन्होंने ‘वंदे मातरम्’ साप्ताहिक के सह संपादक के रूप ब्रिटिश सरकार के अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करते हुए जोरदार आलोचना की। ब्रिटिश सराकर के खिलाफ लिखने पर उन पर मुकदमा दर्ज किया गया लेकिन वे छूट गए। हालांकि इसके बाद 1908-09 में उन पर अलीपुर बमकांड मामले में राजद्रोह का मुकदमा चलाकर जेल में डाला गया। अलीपुर जेल में उनका जीवन पूरी तरह बदल गया और वे आध्यात्मिक महामनीषी के रूप में रूपांतरित हो गये।

अरविंद सोसाइटी संयुक्त बिहार के पूर्व सचिव अशोक तुलस्यान जी लिखते हैं, ‘’अरविंद घोष एक व्यक्ति न होकर प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति थे। बीसवीं सदी के पहले दशक में पूर्ण स्वराज, निष्क्रिय प्रतिरोध और ग्राम स्वराज जैसे विचार देने वाले श्री अरविंद ही थे। ब्रिटिश राज को उनकी कलम से इतना खौफ था कि तत्कालीन वायसराय ने सचिव को पत्र में लिखा, ‘भारत में फिलहाल अरविंद घोष सबसे खतरनाक व्यक्ति है, जिससे हमें निपटना है।‘’ श्री अरविंद ने राष्ट्र को शक्ति का स्वरूप माना और लोकमानस से राष्ट्र को ‘मां’ की तरह पूजने का आह्वान किया। राष्ट्र को सबल, संपन्न और महान बनाने के लिए भारतीय युवाओं से सच्चे भारतीय होने और आंतरिक स्वराज प्राप्त करने का आह्वान किया। उन्होंने भारत को ईश्वर द्वारा सौंपे गये दायित्व और भारतीय संस्कृति व सनातन धर्म को देखने की दृष्टि दी थी।‘’

श्री अरविंद ‘भारतीय संस्कृति के आधार’ में लिखते हैं, ‘’भारतीय आदर्श सनातन हैं। भारतीय संस्कृति की संचालिका आध्यात्मिक अभीप्सा है। भारत में चार पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चार वर्ण- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, चार आश्रम- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास, हमारी संस्कृति के विधायक तत्व रहे हैं। उनके अनुसार भारतीय संस्कृति में किसी भी पुरुषार्थ, वर्ण व आश्रम की उपेक्षा नहीं की गयी है, वरन सभी को महत्व देकर स्वीकारा गया है। श्री अरविंद के अनुसार भारतीय संस्कृति उच्चतम शिखर है, जिस पर एकाएक नहीं चढ़ा जा सकता। शिखर तक पहुंचने के लिए धर्म की आवश्यकता है। भारतीय संस्कृति ने आध्यात्मिकता के दो मोड़ पूरे कर लिये हैं- आदिकालीन वैदिक युग एवं पौराणिक तांत्रिक युग। अब हम तीसरे मोड़ पर हैं- मानव मन से आगे अतिमानस को चरितार्थ करना होगा, तभी भारतीय संस्कृति को और समृद्ध किया जा सकेगा।‘’

श्री अरविंद का मानना था कि भारत को भारतीय बनकर ही बनाया और बचाया जा सकता है। वे भारतीय युवाओं से मौलिक चिंतक बनने की पुरजोर वकालत करते हैं। वे प्रेरणा देते हैं कि वेद पढ़ें ताकि अपने युग की वेदना को आनंद के समाधान का गीत बना सकें। महाभारत प्रत्येक घर में इसलिए पढ़ा-समझा जाए ताकि भावी महाभारतों का दुर्भाग्य टाला जा सके। जो अतीत हमें वर्तमान में जीना और भविष्य की मजबूत नींव डालने में मदद नहीं कर सकता, उसका प्रयोजन क्या है !! हमारा संबंध अतीत की ऊषाओं से नहीं, भविष्य की दोपहरों से है। ‘दिव्य जीवन’ में श्री अरविंद स्पष्ट करते हैं कि शरीर, मन और प्राण का विकास आवश्यक है, परंतु यह संपूर्ण नहीं है। बुद्धि मनुष्य की विशेषता नहीं है, यह अन्य प्राणियों में भी होती है। मनुष्य में आत्मबुद्धि होनी चाहिए। मेरी बुद्धि को वासुदेव चलाएं या वासना यह निर्णय स्वयं को करना पड़ता है। महर्षि दोनों को सत्य मानते हैं- जगत को भी और ब्रह्म को भी। श्री अरविंद अन्नमय कोष से लेकर आनंदमय कोष तक चेतना की यात्रा कराते हैं। यह सजग साधन शैली श्री अरविंद का रूपांतर योग या सर्वांगीण योग है। इस रूपांतरण का अनुशीलन मनुष्य को चेतना के उस शिखर पर ले जा सकता है, जिसे श्री अरविंद ने अतिमानस कहा है।

अतिमानस के लिए भारत में पैदा होना जरूरी नहीं, परंतु भारतीय भाव अनिवार्य होगा। संप्रदाय सीमित हो सकता है, अध्यात्म उदार होता है। सभ्यता बाह्य रूप है, संस्कृति अंतरतम रूप है।

आध्यात्मिक जीवन व्यावहारिक जीवन की जड़ है। जड़ काट दी जाए तो जीवन मृत हो जाएगा। मन से आत्मा की ओर जाना होगा और दिव्य चेतना से व्यक्तिगत चेतना को समाहित होना होगा। श्री अरविंद के दर्शन की सबसे क्रांतिकारी उद्घोषणा है, ‘’मानव अंतिम नहीं है, वह केवल एक बीच की कड़ी यानी मध्यवर्ती सत्ता है। अपने जीवन को उच्चतर संकल्प और साधना की दिशा में मोड़कर वह देवपुरुष बन सकता है।‘’

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

Share
Leave a Comment

Recent News