वनवासियों के गाँधी ‘लक्ष्मण नायक’ एक निडर लीडर और स्वतंत्रता सेनानी

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सुरेश कुमार गोयल

लगभग 200 वर्षों के निरंतर संघर्ष और अपने लाखों नौजवान वीर सपूतों की कुर्बानी के बाद भारत को ब्रिटिश राज से आजादी मिली। इस आज़ादी के संघर्ष में अपना जीवन अर्पित करने वाले  कुछ बहादुरों को तो उचित पहचान मिली, जबकि कई अन्य लगभग पूरी तरह से गुमनामी में रह गए। देश की आज़ादी की लड़ाई में न जाने कितने देशवासियों ने खुद को बलिवेदी पर चढ़ा दिया। राजघराने से लेकर आम जन-मानस तक, भारत के हर गली-कूचे से आपको स्वतंत्रता सेनानियों की कहानियाँ मिल जाएँगी। ऐसे ही साहस और समर्पण की कहानियाँ हमारे देश के जंगलों में भी छिपी हुई हैं। ओडिशा में जन्मे लक्ष्मण नायक एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी हैं जिन्हें दुर्भाग्य से वर्तमान पीढ़ी भूल गई है।

नायक, दक्षिण उड़ीसा में वनवासियों के अधिकारों के लिए कार्यरत थे। लक्ष्मण नायक का जन्म 22 नवंबर 1899 को कोरापुट ज़िले के मलकानगिरी के टेंटुलीगुमा  में हुआ था। इनके पिता पदलम नायक थे, जो भूयान जनजाति से संबंध रखते थे। लक्ष्मण ने अपने बचपन के दिन अपने दोस्तों के साथ खेलने, शिकार करने और तैरने में बिताए। लक्ष्मण जातिवाद और छुआछूत में कभी विश्वास नहीं करते थे। इनके गोत्र के लोगों को दूसरे समुदाय के साथ खाने की अनुमति नहीं थी फिर भी वह अक्सर अपने सबसे अच्छे दोस्त भालू के साथ अपने पिता से सलाह लिए बिना भोजन करते थे। यह एक सच्चे अर्थों में एक समाज-सुधारक थे, जिन्होंने अपने क्षेत्र में वनवासियों को अपने गहन अंधविश्वासों से छुटकारा दिलाने में मदद करने के लिए लगातार प्रयास किया। कोलाब नदी के पास स्थित टेंटुलिगुम्मा एक सुदूर गाँव था जहाँ कोई स्कूल या अस्पताल नहीं था और लगभग हर ग्रामीण निरक्षर था। इन सब के बावजूद  लक्ष्मण के पिता ने उन्हें पढ़ना-लिखना सिखाया।

19 साल की उम्र में इन्होंने पास के गांव के काशीराम की 17 वर्षीय बेटी मंगूली से शादी कर ली थी इन्हें कुछ वर्षों बाद ही एक बेटा रघुनाथ के रूप में प्रभु का आशीर्वाद मिला। स्थानीय ब्रिटिश पुलिस और अधिकारियों द्वारा गरीब आदिवासी ग्रामीणों पर हत्यारों को देखकर लक्ष्मण के दिल को कभी शांति नहीं मिली। यह ब्रिटिश पुलिस और अधिकारी भारी करों (टैक्स) के माध्यम से गरीब लोगों से धन लूट कर एक भव्य जीवनशैली जीते थे उन्होंने गरीब और कमजोर वनवासियों को भी अपने महलों, खेतों में मुफ्त में काम करने के लिए मजबूर कर दिया था। समय बीतने के साथ लक्ष्मण ने पुजारी के रूप में काम करना शुरू कर दिया। इन्होंने कोया जनजाति के अपने एक मित्र चंद्र कुटिया से बंदूक चलाना भी सीख लिया। 1930 में इनके पिता की मृत्यु के बाद इन्हें प्रधान के रूप में नियुक्त किया गया था ग्राम प्रधान के रूप में वे हर कठिन परिस्थिति में हमेशा अपने लोगों के साथ खड़े रहते थे जिससे  इनकी लोकप्रियता और भी बढ़ गई। इनके आसपास के गांव के लोग अक्सर बीमारियों को ठीक करने और पूजा करने के लिए इनकी मदद मांगते थे ।

नायक ने अंग्रेजों के खिलाफ अपने लोगों के संसाधन जल,जंगल और जमीन को बचाने की लड़ाई लड़ी। नायक ने अपने और अपने लोगों के लिए अकेले ही ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ मोर्चा खोला। अंग्रेजी सरकार की बढ़ती दमनकारी नीतियाँ जब भारत के जंगलों तक भी पहुँच गयी और जंगल के दावेदारों से ही उनकी संपत्ति पर लगान वसूला जाने लगा तो नायक ने अपने लोगों को संगठित करने का अभियान शुरू किया। नायक ने अंग्रेज़ों के खिलाफ अपना एक क्रांतिकारी गुट तैयार किया। आम वनवासियों के लिए वे एक नेता बनकर उभरे। उनके कार्यों की वजह से पूरे देश में उन्हें जाना जाने लगा। कांग्रेस ने भी इनकी बढती ख्याति को देखकर इनके साथ संपर्क कर अपने साथ जोड़ लिया। अब यह कांग्रेस की सभाओं और ट्रेनिंग सेशन में भाग लेने लगे और वे गाँधी जी के सम्पर्क में आये। वे गाँधी जी द्वारा देश की आज़ादी के लिए किये जा रहे कार्यों से काफी प्रभावित हुए। उनके दिल में राष्ट्रवाद की भावना जागृत होने लगी। इसके बाद वे न केवल वनवासियों के लिए अपितु सभी देशवासियों के लिए सोचने लगे। गांधीवादी अहिंसा नीति ने लक्ष्मण को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने अपने जीवन के हर क्षेत्र में उनके सभी सिद्धांतों का सख्ती से पालन करना शुरू कर दिया।

1937 में जेपोर के पास नुआपुट गांव में कांग्रेस संचालित प्रशिक्षण केंद्र में शामिल होने के बाद उन्होंने कताई भी सीखी। अब कांग्रेस के अभियानों में वनवासी समाज भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने लगा। वे गाँधी जी का चरखा साथ लेकर वनवासी गाँवों में एकता व शिक्षा के लिए लोगों को प्रेरित करने लगे। उन्होंने ग्रामीण इलाकों में बदलाव लाने में अहम भूमिका निभाई। उनके द्वारा किये जा रहे समाज हित कार्यों के कारण बहुत से लोग ‘मलकानगिरी का गाँधी’ भी कह कर पुकारने लगे थे। इस क्षेत्र में वनवासी आंदोलन के बढ़ने के कारण एक अभूतपूर्व जनजागृति पैदा हुई।

अगस्त 1942 में शुरू हुए भारत छोड़ो आंदोलन का हिस्सा बनकर इन्होंने कई  क्षेत्रों के कार्यक्रमों के आयोजन का ज़िम्मा लिया। इसी क्रम में  21 अगस्त 1942 को एक बड़े पैमाने पर जुलूस की योजना बनाई गई थी, जिसका समापन कोरापुट के मैथिली पुलिस स्टेशन के शीर्ष पर तिरंगा फहराने के साथ होना था। लेकिन जैसे ही जुलूस नायक की अगुवाई में पुलिस स्टेशन पहुंचा, पुलिस बल ने शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे प्रदर्शनकारियों की अंधाधुंध पिटाई शुरू कर दी फिर उन पर गोलीबारी भी की, जिसमें 5 लोगों की मौत हुई थी और 17 अन्य घायल हुए थे। इस जुलूस पर पुलिस की अंधाधुंध पिटाई में लक्ष्मण नायक को भी गंभीर चोट आई थी। पुलिस ने न केवल इन्हें बेरहमी से पीटा बल्कि इनकी मूछें तक जला दी जिससे लक्ष्मण बेहोश हो गए थे। घंटों के बाद जब इन्हें होश आया तो कई  किलोमीटर पैदल चलकर जयपुर पहुंचे और एक कांग्रेस कार्यकर्ता के घर पर रुके। पुलिस से बचने के लिए यहाँ से वे रामगिरि पहाड़ियों पर चले गए लेकिन पुलिस द्वारा बार बार ग्रामीणों पर हमले करने की खबर मिलते ही अपने गांव लौट आए।

2 सितंबर 1942 को अधिकारियों ने उन्हें फॉरेस्ट गार्ड, जी. रमैया की हत्या के मामले में झूठा फंसाकर गिरफ्तार कर लिया जिन्हें प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए मैथिली पुलिस स्टेशन में तैनात किया गया था। हालांकि, लक्ष्मण ने अदालत को बताया कि पुलिस फायरिंग के दौरान लगी गोली की चोटों के कारण ही रामय्या की मौत हुई है परन्तु कोरापुट के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश वी रामनाथन ने पूरी तरह से पुलिस द्वारा पेश किये गए झूठे सबूतों पर भरोसा करते हुए, इन्हें लोगों को आगजनी, दंगों और रमैया की पिटाई के लिए उकसाने का दोषी ठहराया। न्यायाधीश जी  ने उन्हें आईपीसी की धारा 302 के तहत मौत की सजा सुनाई।

29 मार्च 1943 को उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया था। अपने अंतिम समय में उन्होंने बस इतना ही कहा था- “यदि सूर्य सत्य है और चंद्रमा भी है, तो यह भी उतना ही सच है कि भारत भी स्वतंत्र होगा। इनके जन्म के 100 होने पर 1989 में इंडिया पोस्ट द्वारा इनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया गया।

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