भारत विश्व का प्राचीनतम राष्ट्र है। धर्म, योग, दर्शन, संस्कृति, सभ्यता, भाषा, विज्ञान आदि का उद्भव और विकास भारत में ही हुआ। हमारा देश केवल आध्यात्मिक दृष्टि से सम्पन्न राष्ट्र नहीं था, वरन् भौतिक दृष्टि से भी समृद्ध था। इसलिए तो भारत पर विदेशी आक्रांताओं के लगातार आक्रमण होते रहे। ग्रीक, हूण, शक, यवन, मुगल और फिर अंग्रेजों ने भारत पर आक्रमण किया, किंतु ऐसा कोई कालखंड नहीं है, जब भारत में किसी महापुरुष ने जन्म न लिया हो। इन महापुरुषों में हम ऋषि, मुनि, संत, साधु, राजा और साहित्यकारों को भी देख सकते हैं।
स्वामी विवेकानंद ने ‘भारत के महापुरुष’ शीर्षक से दिए अपने व्याख्यान में जोर देकर कहा है, ‘‘भारत में इतने महापुरुष पैदा हुए हैं कि उनकी गणना नहीं हो सकती और महापुरुष पैदा करने के अलावा हजारों वर्ष से इस हिंदू जाति ने और किया ही क्या?’’ इन महापुरुषों के जीवन और संदेशों में अध्यात्म व वीरता की धारा अविरल प्रवाहित होती रही। इसलिए अनादि काल से भारत की पहचान पुण्यभूमि, धर्मभूमि, ज्ञानभूमि, आर्यभूमि और वीरभूमि की रही है।
आक्रमण और प्रतिकार
भारत पर आक्रांताओं ने अनेक बार आक्रमण किए और हर बार भारत के वीरों ने उनका प्रतिकार किया, किंतु समाज में जब स्वार्थ की वृत्ति मंडराने लगती है तो पराजय निश्चित हो जाती है। भारतीय इतिहास का आकलन करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि हर शताब्दी में देश के कुछ गद्दारों के द्वेष और स्वार्थ के कारण ही विदेशी आक्रांताओं को सफलता मिली। भारत की सांस्कृतिक धरोहर और आस्था के प्रतीकों को मिटाने के लिए आक्रांताओं ने हजारों मंदिर तोड़े, स्त्रियों, पुरुषों यहां तक कि बच्चों और बुजुर्गों की अमानवीय ढंग से हत्या की।
नारी शक्ति का अपमान किया। बाद में अंग्रेज, फ्रांसीसी और पुर्तगाली आए और यहा अपने-अपने उपनिवेश स्थापित किए। आक्रांताओं के साथ आए अनगिनत सैनिक और उनके परिवार भी आकर बसे और यहां की सांस्कृतिक भाव धारा से जुड़ते चले गए। भारतीय समाज ने इन्हें अपने विशाल हृदय में स्थान दिया। ईस्ट इंडिया कंपनी की आड़ में व्यापार करने आए अंग्रेज छलपूर्वक शासक बन बैठे और अपार धन-संपदा लूटने के साथ ईसाइयत का विस्तार करने के लिए उन्होंने भारतीय जनता पर अमानवीय अत्याचार भी किए। फिर भी भारतीय समाज ने अपने आध्यात्मिक और नैतिक स्वभाव को नहीं छोड़ा, यही हमारी विशेषता है।
भारत में अंग्रेजों ने बंगाल प्रांत से प्रवेश किया था। भारतीय नवजागरण की शुरुआत और समाचार-पत्रों एवं जागरण पत्रिकाओं का सूत्रपात बंगाल से ही हुआ। नवजागरण के अग्रदूत राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, ठाकुर रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, रवींद्रनाथ ठाकुर जैसे विचारकों का जन्म बंगभूमि में हुआ। स्वामी विवेकानंद ने पहले भारत भ्रमण किया और समाज को मन:स्थिति को जाना, फिर विश्व धर्म सम्मेलन में शामिल होने अमेरिका गए।
11 सितंबर, 1893 को उन्होंने अपना विश्व प्रसिद्ध व्याख्यान दिया और फिर लगभग साढ़े तीन वर्ष अमेरिका, इंग्लैंड आदि देशों को भारतीय ज्ञान परंपरा से अवगत कराया। भारत लौटकर उन्होंने ‘कोलंबो से अल्मोड़ा तक’ पुन: प्रवास किया और अपनी ओजस्वी वाणी से पूरे भारत को जगाया। नतीजा, देशवासियों के अन्त:करण में स्वतंत्रता प्राप्ति का बीज अंकुरित होने लगा और जगह-जगह लोग एकत्रित होने लगे। 4 जुलाई, 1902 को उन्होंने महासमाधि ली।
बंग-भंग आंदोलन
अंग्रेजों ने शुरू से ही ‘बांटो और राज करो’ की नीति अपनाई थी। इसलिए भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में बंग-भंग विरोधी आंदोलन महत्वपूर्ण है, क्योंकि न सिर्फ बंगाल, बल्कि पूरे भारत के लोगों ने एकजुट होकर अंग्रेजों को झुकने पर मजबूर कर दिया था। लॉर्ड कर्जन ने बंगाल के मुस्लिम बहुल क्षेत्र को असम के साथ मिलाकर एक नया प्रांत बनाने का षड्यंत्र रचा। उसने बंगाल विभाजन का आदेश जारी किया कि 16 अक्तूबर, 1905 को नया राज्य अस्तित्व में आ जाएगा। इसके बाद पूरा बंगाल सुलग उठा और विभाजन के विरोध में न केवल राजनेता अपितु बच्चे, बूढ़े, महिला, पुरुष सब सड़कों पर उतर आए। उन दिनों बंगाल क्रांतिकारियों का गढ़ था। उन्होंने चेतावनी दी कि वे किसी भी कीमत पर बंगाल का विभाजन नहीं होने देंगे। इसमें समाचार माध्यमों ने भी बड़ी भूमिका निभाई थी।
उधर, लोकमान्य तिलक ने हताश, निराश और दिशाहीन समाज में ‘सम्पूर्ण स्वाधीनता’ का भाव जगाया। स्वराज, स्वाधीनता, बहिष्कार, स्वदेशी ये शब्द तिलक की राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत मुखर पत्रकारिता की देन है। केसरी और मराठा पत्रों में प्रकाशित उनके लेख स्वतंत्रता आंदोलन के लिए ‘अग्नि मंत्र’ का काम करते थे। राष्ट्रीय नेताओं ने लोगों से विदेशी वस्त्रों एवं वस्तुओं के बहिष्कार की अपील की। जनसभाओं में एक वर्ष तक सभी सार्वजनिक पर्वों पर होने वाले उत्सव स्थगित कर राष्ट्रीय शोक मनाने की अपील की जाने लगी।पा
इन अपीलों का व्यापक असर हुआ। ब्राह्मणों ने विदेशी वस्त्र पहनने वाले वर-वधुओं का विवाह कराने से इनकार कर दिया। नाइयों ने विदेशी वस्तुओं के प्रेमियों के बाल काटने और धोबियों ने उनके कपड़े धोने से मना कर दिया। इससे विदेशी सामान की बिक्री बहुत घट गई। मारवाड़ी चैंबर आफ कॉमर्स ने मैनचेस्टर चैम्बर आफ कॉमर्स को तार भेजा कि शासन पर दबाव डालकर इस निर्णय को वापस कराए, नहीं तो यहां माल बेचना असंभव हो जाएगा। योजना के क्रियान्वयन के दिन यानी 16 अक्तूबर, 1905 को पूरे बंगाल में शोक मनाया गया। रवींद्रनाथ ठाकुर व अन्य प्रबुद्ध लोगों ने आग्रह किया कि इस दिन सभी लोग गंगा या निकट की किसी भी नदी में स्नान कर एक-दूसरे के हाथ पर राखी बांधें और संकल्प लें कि जब तक यह काला आदेश वापस नहीं लिया जाता, वे चैन से नहीं बैठेंगे।
16 अक्तूबर को बंगाल के सभी लोग सुबह जल्दी सड़कों पर आ गए। फिर उन्होंने प्रभात फेरी निकाली और कीर्तन करते हुए नदी तटों पर गए। 50,000 से अधिक लोग गंगा नदी में स्नान के बाद संकल्प के लिए बारीसाल में एकत्र हुए। सबने एक-दूसरे को पीले सूत की राखी बांधी और स्त्रियों ने बंगलक्ष्मी व्रत रखा। रवींद्रनाथ ठाकुर ने अखंड बंगाल के लक्ष्य को पूरा करने की शपथ दिलाई, लेकिन अंग्रेजों की दृष्टि में यह देशद्रोह था।
बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर ने आंदोलन को कुचलने के लिए सैन्य टुकड़ियां भेजीं। लेकिन जनमानस पर अत्याचारों और सैनिकों द्वारा महिलाओं के साथ बलात्कार के बाद लोगों का आक्रोश और भड़क गया। अब यह बंगाल के विभाजन से अधिक राष्ट्रीय मुद्दा बन चुका था। वंदे मातरम् जयघोष बंगाल की सीमाओं को लांघकर समूचे राष्ट्र का नारा बन गया। पंजाब के लाला लाजपत राय, महाराष्ट्र के बाल गंगाधर तिलक तथा कोलकाता के बिपिनचंद्र पाल की तिकड़ी ने इस आग को पूरे देश में सुलगा दिया। यह आंदोलन छह वर्ष तक चला। हजारों लोग जेल गए, फिर भी लोग डटे रहे। इससे लंदन में बैठे अंग्रेज शासक घबरा गए।
ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम ने 11 दिसंबर, 1912 को यह आदेश वापस ले लिया। यही नहीं, वायसराय कर्जन को वापस बुलाकर उसकी जगह लॉर्ड हार्डिंग को भारत भेजा गया। इस प्रकार पहली बार राष्ट्रवादी शक्तियों ने ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की फूट डालने की चालबाजियों को विफल किया। 1857 के संग्राम के बाद यह सबसे बड़ी रोमांचकारी घटना थी। इसमें राष्ट्रीय आत्मबल-प्रदर्शन का राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति पर एक अद्भुत प्रभाव पड़ा।
फिर चूक कहां हुई?
स्वतंत्रता के लिए समस्त भारतीयों के सामूहिक प्रयासों के बावजूद आखिर क्या कमी रह गई, जिसके चलते 14 अगस्त को भारत का विभाजन हो गया? दरअसल, 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना के साथ ही अलग मुस्लिम राज्य बनाने का षड्यंत्र शुरू हो गया था, लेकिन तिलक की ‘पूर्ण स्वराज्य’ की दहाड़ के आगे मुस्लिम लीग की एक न चली। 1 अगस्त, 1920 को तिलक के निधन के बाद स्वतंत्रता संग्राम की ज्वाला पहले जैसी नहीं रही। राष्ट्रीय कांग्रेस का नेतृत्व अब महात्मा गांधी के पास था। वे चाहते थे कि हिंदू-मुस्लिम एकजुट होकर अंग्रजों के विरुद्ध आंदोलन करें। इसलिए उन्होंने कई बार मुस्लिम लीग के नेताओं को समझाया। यहां तक कि स्वतंत्रता आंदोलन में मुस्लिम समुदाय की सहभागिता बढ़ाने के लिए उन्होंने खिलाफत आंदोलन का समर्थन भी किया। फिर भी मुस्लिम लीग का रवैया नहीं बदला। अगस्त, 1929 में मोपला नरसंहार हुआ।
मोपला वास्तव में मुस्लिम काश्तकार थे, जो मालाबार क्षेत्र में रहते थे, जहां अधिकांश हिंदू जमींदार थे। खिलाफत आंदोलन 1921 में ही पूरी तरह खत्म हो चुका था, लेकिन केरल के मुसलमानों के बीच यह प्रचारित किया गया कि ‘‘ब्रिटिश शासन खत्म हो गया और खिलाफत की स्थापना हो गई है। समय आ गया है कि सभी काफिरों को मार कर दारुल इस्लाम की स्थापना की जाए।’’ केरल के मुसलमानों ने एक मुस्लिम मोहम्मद हाजी को अपना खलीफा नियुक्त कर जिहाद की घोषणा कर दी। पहले कट्टपंथियों का सामना अंग्रेजों से हुआ। इस भिड़ंत में 2,226 दंगाई मारे गए, 1,615 घायल हुए, 5,668 बंदी बनाए गए और 38,656 ने आत्मसमर्पण किया। अंग्रेजों से हारने के बाद कट्टरपंथियों ने अपना गुस्सा हिंदुओं पर निकाला।
भारत सेवक मंडल की जांच समिति के प्रतिवेदन के अनुसार, मोपला नरसंहार में 1,500 हिंदू मार दिए गए, 20,000 हिंदुओं का जबरन कन्वर्जन किया गया और तीन करोड़ की संपत्ति लूटी गई। हिंदू महिलाओं के साथ बलात्कार और अपहरण की तो कोई सीमा ही नहीं रही। यह भारत में तालिबानी मानसिकता की पहली अभिव्यक्तियों में से एक था।
मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली और शौकत अली घोर कट्टरपंथी थे। मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान की मांग को लेकर मुसलमानों को उकसा रहे थे। 1937 से 1947 के बीच भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में राजनीतिक षड्यंत्र हावी हो गया। जगह-जगह दंगे करवा कर मुस्लिम लीग ने कांग्रेस नेताओं पर दबाव बनाया। ‘मुस्लिम लीग की कट्टर कारगुजारियों, साम्राज्यवादी ब्रिटिश रणनीति और कांग्रेस की राजनीतिक उलझन’ के कारण भारत पूर्ण स्वराज्य के लक्ष्य को प्राप्त न कर सका।
ब्रिटिश शासन ने एक अंग्रेज सिरिल रेडक्लिफ को भारत के विभाजन की रेखा खींचने के लिए बैठा दिया, जिसे न तो भारत की तत्कालीन परिस्थितियों की जानकारी थी और न ही इतिहास-भूगोल की। उसने भारत को तीन हिस्से में बांट दिया- पश्चिम पाकिस्तान, भारत और पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश)। अनेक हिंदू बहुल गांव पाकिस्तान में चले गए। लाहौर में हिंदुओं की संख्या और संपत्ति अधिक थी, फिर भी उसे पाकिस्तान को सौंप दिया गया। इसी तरह, चटगांव के पहाड़ी इलाकों में बौद्धों की 97 प्रतिशत बहुसंख्यक आबादी थी, लेकिन उन्हें पाकिस्तान को सौंप दिया गया।
14 अगस्त, 1947 को भारत से कट कर पाकिस्तान बना और इसके अगले ही दिन यानी 15 अगस्त को भारत स्वतंत्र हुआ। स्वतंत्रता के कुछ माह बाद ही पाकिस्तान ने कबाइलियों के नाम पर सेना भेजकर आधे कश्मीर पर कब्जा कर लिया। गिलगित और बाल्टिस्तान भारत के पास नहीं रहे और कश्मीर का बहुत बड़ा हिस्सा अक्साई चिन के रूप में चीन को दे दिया गया।
बंटवारे का दर्द
विभाजन के इस दर्द को डेढ़ करोड़ से अधिक भारतीयों ने झेला। लगभग 20 लाख हिंदू-सिख इस विभीषिका की भेंट चढ़ गए। लाखों माताओं-बहनों के साथ बलात्कार हुआ। अनगिनत हिंदुओं के घर उजाड़ दिए गए और हम कुछ नहीं कर सके। पवित्र हिंगलाज देवी का मंदिर अब भारत का हिस्सा नहीं है। मां ढाकेश्वरी का दर्शन भी अब हिंदुओं के लिए दुर्लभ है। जहां गुरु नानकदेव का जन्म हुआ और जहां उन्होंने जीवन के अंतिम 17 वर्ष बिताए, वह ननकाना साहिब और करतारपुर साहिब भी पाकिस्तान में हैं। क्रांतिकारियों में स्फूर्ति जगाने वाला चटगांव अब बांग्लादेश का हिस्सा है। भारतवर्ष का श्रेष्ठतम ज्ञान मंदिर तक्षशिला भी अब भारत के मानचित्र में दिखाई नहीं देता।
विभाजन के समय लाखों हिंदुओं ने जो पीड़ा और दर्द झेला, उसे देखते हुए भारत सरकार ने 14 अगस्त को ‘विभाजन विभीषिका दिवस’ के रूप में मनाने का आह्वान किया। आज भी अवसरवादी और विघटनकारी शक्तियां भारत को टुकड़ों में बांटने की कोशिशों में लगी हुई हैं। जातिगत आरक्षण के नाम पर लोगों को भड़काया जा रहा है। जगह-जगह आंदोलन हो रहे हैं। इससे लोगों में परस्पर कटुता बढ़ रही है। विपक्षी दलों के नेताओं ने लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान जनता को यह कहकर भ्रमित किया कि मोदी सरकार बन गई तो वे संविधान को बदल देंगे। विपक्षी दल बार-बार इस झूठ को फैलाकर जनता को भ्रमित करने में बहुत हद तक सफल भी हो गए। अब देश के आमजन, जिन्हें संविधान की जानकारी नहीं है, जब इस झूठ को सच मान बैठे तो चिंता स्वाभाविक है। समाज को खांचों में बांटने वाले और उनमें अलगाव का बीजारोपण करने वाले नेताओं और विचारों से अपने समाज को बचाना होगा। याद रखिए, जब तक हम संगठित हैं, तभी तक सुरक्षित और सुखी हैं।
सर्वविदित है कि विविध पंथों और विविध उपासना पद्धतियों का अनुसरण करने वाला भारतीय समाज बहुभाषी होते हुए भी आध्यात्मिक भाव से एक है। स्वामी विवेकानंद ने ‘वेदांत का उद्देश्य’ शीर्षक से दिए अपने एक व्याख्यान में भारत की राष्ट्रीय जीवनधारा के संबंध में कहा था, ‘‘समस्त देशों में भारत को ही सहिष्णुता और आध्यात्मिकता का देश होना था और इसीलिए यहां की विभिन्न उपजातियों या संप्रदायों में अपने देवता की प्रधानता का झगड़ा दीर्घकाल तक नहीं चल सका। जिस समय का हाल बताने में इतिहास असमर्थ है, यहां तक कि परंपरा भी जिसका कुछ आभास नहीं दे सकती, उस अति प्राचीन युग में भारत में एक महापुरुष प्रकट हुए और उन्होंने घोषित किया, ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’। अर्थात् वास्तव में संसार में एक ही वस्तु (ईश्वर) है; ज्ञानी लोग उसी एक वस्तु का नाना रूपों में वर्णन करते हैं। ऐसी चिरस्मरणीय पवित्र वाणी संसार में कभी और कहीं उच्चारित नहीं हुई। ऐसा महान सत्य इसके पहले कभी आविष्कृत नहीं हुआ था। यही महान सत्य हमारे हिंदू राष्ट्र के राष्ट्रीय जीवन का मेरुदंड हो गया है।’’ स्वामी विवेकानंद के अनुसार ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’ के मंत्र पर भी हमारा राष्ट्र खड़ा है। यह समय अलगाववादी तत्वों के षड्यंत्रों को समझकर प्रखरता से उनका उत्तर देने का है। एक विभाजन हमने देखा है, जिसके घाव अभी तक भरे नहीं हैं। इसलिए वैचारिक विभाजन की रेखा को समाप्त करने और समाज को आत्मीयता से जोड़ने का सामर्थ्य प्रत्येक भारतवासी को अपने हृदय में जागाना होगा।
लेखक-कार्यकारी संपादक, केंद्र भारती पत्रिका
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