भारत की महिलाओं ने इतिहास में वह स्थान अर्जित किया है जिससे देवता भी वंचित रहे हैं। महारानी अहिल्याबाई होलकर का व्यक्तित्व व कृतित्व उन्हें विश्व की श्रेष्ठतम महिलाओं की पंक्ति में अग्रणी बनाता है। भारत के इतिहास और जनमानस पर उनका विशेष प्रभाव रहा है। विश्व का सबसे बड़ा महिला संगठन राष्ट्र सेविका समिति कर्तृत्व के आदर्श के रूप में लोकमाता अहिल्याबाई होलकर का अनुसरण करती है। बचपन के संस्कार ही बच्चों के भविष्य का निर्माण करते हैं। यही संस्कार जीवन की सफलता का मार्ग प्रशस्त करते हैं। किसे पता था चौंडी ग्राम, जामखेड़, अहमदनगर में जन्मी एक छोटी सी सौम्य, शांत, तेजवान बालिका मालवा के सूबेदार मल्हारराव को अपनी भक्ति व गायन से इस कदर प्रभावित कर देगी कि वह अपने पुत्र खंडेराव के विवाह के लिए मानकोजी (अहिल्याबाई के पिता) के समक्ष प्रस्ताव रखने से भी नहीं हिचकिचाएंगे।
बालिका के संस्कारों से प्रभावित मल्हार राव आश्वस्त थे कि यह बालिका अपने संस्कारों, कुशल व्यवहार, सेवा भावना से सभी का हृदय जीत लेगी और खंडेराव को सही दिशा में लाने में अवश्य सफल होगी और हुआ भी यही। बालिका अहिल्या में आदर्श भारतीय नारी के सभी गुण विद्यमान थे। उनके विवेक, नम्रता, सेवा, त्याग और सहनशीलता का ही यह परिणाम था कि खंडेराव में आत्म-गौरव व वीरता का भाव उत्पन्न हुआ। अहिल्याबाई ने भी शनै:-शनै: राजकाज में रुचि लेना प्रारंभ किया और युद्ध क्षेत्र में गोला बारूद, बंदूक, तोप और रसद की व्यवस्था की जिम्मेदारी उन्हीं पर आ गई थी। इसी बीच 1745 व 1748 में अहिल्याबाई ने क्रमश: मालेराव व मुक्ताबाई को जन्म दिया।
जीवन परिचय
महारानी अहिल्याबाई होलकर का जन्म 31 मई, 1725 को हुआ था। उनके पिता मानकोजी शिंदे एक मामूली किसान थे। अहिल्याबाई का विवाह इंदौर राज्य के संस्थापक महाराजा मल्हार राव होलकर के पुत्र खंडेराव से हुआ था। इन्हें एक पुत्र था मालेराव और पुत्री का नाम मुक्ताबाई था। मल्हार राव के जीवन काल में ही उनके पुत्र खंडेराव का निधन हो गया था। अत: मल्हार राव के निधन के बाद रानी अहिल्याबाई ने राज्य का शासन-भार संभाला। अहिल्याबाई ने अपनी मृत्यु-पर्यन्त बड़ी कुशलता से राज्य का शासन चलाया। अहिल्याबाई ने स्त्रियों को उनका उचित स्थान दिया। नारी शक्ति का भरपूर उपयोग किया। उन्होंने बता दिया कि स्त्री किसी भी स्थिति में पुरुष से कम नहीं है। अपने शासनकाल में उन्होंने नदियों पर जो घाट स्नान आदि के लिए बनवाए थे, उनमें महिलाओं के लिए अलग व्यवस्था भी हुआ करती थी। स्त्रियों के मान-सम्मान का बड़ा ध्यान रखा जाता था। लड़कियों को पढ़ाने-लिखाने का जो घरों में थोड़ा-सा चलन था, उसे विस्तार दिया गया। दान-दक्षिणा देने में महिलाओं का वे विशेष ध्यान रखती थीं। देवीअहिल्या के दिल में अपनी प्रजा के लिए काफी प्यार और दया थी। वे जब भी किसी को मुसीबत या तकलीफ में देखती थीं तो उसे मदद करने के लिए आगे कदम बढ़ाती थीं। इसलिए लोग भी उन्हें काफी सम्मान और प्यार देते थे। करीब 30 साल के शासनकाल के दौरान मराठा प्रांत की राजमाता अहिल्याबाई होलकर ने एक छोटे से गांव इंदौर को एक समृद्ध एवं विकसित शहर बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका निधन 13 अगस्त, 1795 को हुआ।
भरतपुर का युद्ध मल्हार राव, खंडेराव और देवी अहिल्याबाई की मानो परीक्षा लेने ही आया था। जाटों और मराठों के बीच घमासान युद्ध हुआ और युद्ध की कीमत खंडेराव के जीवन से चुकानी पड़ी। मल्हार राव के लिए पुत्र की मृत्यु की वेदना असहनीय थी, वहीं अहिल्याबाई ने सती होने का प्रण लिया कि प्राणों से प्रिय पति अगर जीवित नहीं हैं तो मेरे जीवन का भी कोई अर्थ नहीं है। श्वसुर मल्हार राव के समझाने के बाद अहिल्या ने सती होने का विचार त्यागा और जी-जान से प्रजा की सेवा करने का दायित्व निभाया। ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ के मूल मंत्र को अपने जीवन में उतार राजसी सुखों का त्याग कर दुखी, पीड़ित जन की सेवा को ही उन्होंने अपने जीवन का परम लक्ष्य बना लिया।
कुशल शिक्षक श्वसुर मल्हार राव के संरक्षण व मार्गनिर्देशन में शिष्या, पुत्रवधू अहिल्याबाई अब राजकाज में कुशल हो रही थी। मल्हार राव अपने जीते जी पुत्रवधू को देश-दुनिया की भौगोलिक, राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति से परिचित कराना चाहते थे। इसी कारण उन्होंने उसे देशाटन के लिए भी भेजा। समाज के बीच में रहकर ही समाज का बेहतर ज्ञान होता है। अब वे स्वयं लगान वसूलती, न्याय करती, आदेश निकालती और जनता के दुख-दर्द को दूर करने का हर संभव प्रयास करती। मल्हार राव कुशल शासक थे। कई बार युद्धों में व्यस्त होने के कारण राज्य से जब वे बाहर रहते तो पत्रों के माध्यम से अहिल्याबाई का मार्गदर्शन भी करते थे।
अहिल्याबाई को आशीर्वाद
मल्हार राव ने 3 जनवरी, 1765 को आगरा से अहिल्याबाई को पत्र में लिखा, ‘‘मैंने पिछले पत्र में भी तुम्हें लिखा था कि बिना रुके सीधे ग्वालियर पहुंचो। वहां 5-7 दिन ठहरो। वहां 1000 या 500 बड़ी तोपों के गोले और हो सके तो इतनी ही छोटी बंदूकों के गोले तैयार करवाओ। पसंद करके 100 बड़े बर्तन खरीदो जिनमें तीरों के लिए एक सेर का पाउडर समा सके। इस काम को तुरंत करो। मैंने तुम्हें पूर्व में भी छोटी तोपों की ओर ध्यान देने को कहा था। हथियार बनाने के लिए एक माह के खर्च की पूरी व्यवस्था रखो।’’
इतिहास में ऐसे उदाहरण संभवत: देखने को कहीं नहीं मिलते हैं। कभी पिताओं ने भी अपनी पुत्री का इस भांति संरक्षण व मार्गदर्शन नहीं किया होगा।
कर्तव्यनिष्ठ व ममतामयी मां
होलकर राज्य के संस्थापक, मराठा साम्राज्य के भीष्म पितामह मल्हार राव का 1766 ईस्वीं में निधन हो गया। मराठा साम्राज्य के आधार स्तंभों में से एक पराक्रमी, शक्तिशाली और स्वामी भक्त सरदार मल्हार राव के जाने से मराठा साम्राज्य को भी गहरा आघात लगा था। एक के बाद एक अपने प्रियजनों पहले पति और अब पिता तुल्य ससुर का इस तरह बिछड़ना अहिल्याबाई के लिए असहनीय था। मात्र 21 वर्ष की आयु में मालेराव (सुपुत्र अहिल्याबाई) मालवा की गद्दी पर आसीन हुआ। अहिल्याबाई के लिए मां, पत्नी, बहू से बड़ा दायित्व था अपनी प्रजा के हित के लिए कार्य करने का। इतिहास में शायद ही ऐसा कोई और उदाहरण देखने को मिलेगा।
पुत्री मुक्ताबाई के विवाह की कहानी रानी के राजनीतिक कौशल की एक अनोखी दास्तां है। राज्य में चोर, डाकुओं का आतंक इतना अधिक था कि व्यापारी, यात्री और प्रजा, सभी भयभीत थे। ऐसे में रानी ने घोषणा की थी कि जो भी व्यक्ति इन डाकुओं का राज्य से सफाया कर देगा उससे वह अपनी पुत्री का विवाह कर देंगी। यशवंत राव फणसे ने रानी की शर्त पूरी की और इस तरह मुक्ताबाई का विवाह वीर व बुद्धिमान योद्धा यशवंत से हुआ। मुक्ताबाई के पुत्र नथ्या से अहिल्याबाई अत्यंत प्रेम करती थीं। लंबी बीमारी से नथ्या की मृत्यु और उसके बाद यशवंत राव फणसे की मृत्यु ने अहिल्याबाई को तोड़कर रख दिया। दुर्भाग्य तो यह रहा कि पति की मृत्यु पर पुत्री मुक्ताबाई ने भी सती होने का निश्चय किया। ये सभी आघातों को सहन करना किसी लौह महिला के लिए भी सहनीय नहीं होगा। धीरे-धीरे अपने सभी बिछड़ रहे थे। पहले पति, फिर श्वसुर, पुत्र, नवासा, दामाद और पुत्री। जीवन का आनंद जाता रहा था। फल-फूल से लदे वृक्ष पर मानो पतझड़ ने बसेरा बना लिया था। तब भी अपनी प्रजा के हित व संरक्षण के लिए रानी उठ खड़ी हुईं। अपने साम्राज्य के संरक्षण के लिए जो कुछ भी संभव था वह उन्होंने किया।
कुशल राजनेता
अहिल्याबाई होलकर ने 1757 में होलकर राज्य की बागडोर संभाली। ससुर मल्हार राव से मिले संस्कारों व मार्गदर्शन का यह प्रभाव रहा कि रानी अहिल्याबाई में एक कुशल शासक के सभी गुण विद्यमान थे। प्रजा के हित में उठाए कदमों ने उन्हें लोकमाता की उपाधि दी। प्रजा की भलाई, सुरक्षा, सुख सुविधा जुटाना, बाहरी आक्रमण, विद्रोहियों और डाकुओं से राज्य की रक्षा करने के हरसंभव प्रयास रानी ने किए। एक और जहां राज्य को चोर डाकुओं से सुरक्षित रखा, वहीं दूसरी ओर राज्य के शत्रुओं (उदयपुर के राजा जगत सिंह और रामपुरा के सरदार चंद्रावत माधव सिंह, गंगाधर चंद्रचूड़, दादा राघोबा) से भी।
अहिल्याबाई ने महिलाओं की सेना भी तैयार कर उन्हें हथियार चलाना, रण व्यूह का प्रशिक्षण देना भी प्रारंभ किया। रानी ने अपने शत्रु दादा राघोबा को एक पत्र लिखा, ‘‘आप मेरा राज्य हड़पने आए हैं। यह आपको शोभा नहीं देता। आप एक नारी के साथ युद्ध मत कीजिए नहीं तो यह कलंक मिट नहीं पाएगा। मैं एक असहाय नारी हूं यह समझकर आप आए हैं, तो इस बात का पता युद्ध भूमि में चलेगा। मैं एक स्त्री हूं। युद्ध में हार भी गई तो मुझे कोई याद नहीं रखेगा, आप युद्ध में हार गए तो जग में अब आपकी हंसी होगी। मैं अपनी महिला सेना के साथ युद्ध भूमि में आपका मुकाबला करूंगी। आपका भला इसी में है जैसे आए हैं वैसे ही चुपचाप वापस चले जाएं।’’
दादा राघोबा ने जब यह पत्र पढ़ा तो विशाल सेना, महिला सेना और युद्ध की तैयारी ने दादा राघोबा के हौसले पस्त कर दिए और इस तरह रानी ने बिना युद्ध लड़े, बिना खून-खराबे के युद्ध जीता भी और एक शत्रु को अपने व्यवहार से मित्र भी बना लिया।
जन कल्याण के क्षेत्र में भी रानी अहिल्याबाई ने अनेक कार्य किए। वह अपनी प्रजा को अपनी संतान मानती थीं। उन्होंने अपने शासनकाल में कई कानूनों को समाप्त किया, किसानों का लगान कम किया, कृषि, उद्योग धंधों को सुविधा देकर विकास के अनेक काम किए। चोर, डाकुओं को सही रास्ते पर लाकर उनके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन ला उन्हें बसाया भी। काशी में एक ब्राह्मण का घर जलकर राख हो गया था। वह सहायता के लिए रानी के पास आया तो उन्होंने इस बात की सत्यता जानने पर उसे नया घर बनवा कर भेंट किया।
होलकर राजवंश
1732 में मालवा (वर्तमान में मध्य प्रदेश का पश्चिमी भाग) में मराठा राज्य का आगमन हुआ और इस प्रकार होलकर, सिंधिया व पवार वंशों के मराठा राज्य मालवा में शामिल हुए। 1734 में मालवा में होलकर राज्य की विधिवत स्थापना हुई। इस होलकर वंश में कुल मिला कर 14 शासक हुए। 220 वर्ष तक मालवा में होलकर राज्य रहा और 16 जून, 1948 को इस होलकर राज्य का विलय भारतीय संघ में हो गया। इस वंश की अहिल्याबाई की कीर्ति पूरे भारत में फैली। होलकरों के पूर्वज महाराष्ट्र में वाफ गांव के मूल निवासी थे। कुछ समय बाद इनके वंशज पुणे के पास होल नाम के गांव में बस गए। होल के निवासी होने के कारण इनका उपनाम ‘होलकर’ पड़ा।
जनकल्याण की राह
रानी राहगीरों, गरीबों, विकलांगों, साधु-संतों, पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं सभी का ध्यान रखती थीं, यहां तक कि अपने सैनिकों, कर्मचारियों के कल्याण के लिए भी वह कभी पीछे नहीं हटीं। वेतन समय पर देना, शौर्यपूर्ण कार्य करने वाले स्वामीभक्त सैनिकों को पुरस्कृत करना इत्यादि। अहिल्याबाई का हृदय समाज के सभी वर्गों के लिए धड़कता था। उन्होंने बद्रीनाथ, केदारनाथ, रामेश्वरम, जगन्नाथपुरी, द्वारका, पैठण, महेश्वर, वृंदावन, सुपलेश्वर, उज्जैन, पुष्कर, पंढरपुर, चिंचवाड़, चिखलदा, आलमपुर, देवप्रयाग, राजापुर आदि स्थानों पर मंदिरों का पुनर्निर्माण करवाया तथा घाट बनवाए और अन्नसत्र या सदावर्त खुलवाए जहां लोगों को प्रतिदिन भोजन मिलता था। काशी विश्वनाथ मंदिर के साथ-साथ पूरे देश के मंदिरों का निर्माण व पुनर्निर्माण का कार्य रानी ने करवाया। त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग में तीर्थ यात्रा के लिए विश्रामगृह, अयोध्या, नासिक में भगवान राम के मंदिरों का निर्माण, सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण, उज्जैन में चिंतामणि गणपति मंदिर निर्माण जैसे कार्य रानी ने दिल खोलकर किए। उन्होंने कल्याणकारी व परोपकारी कार्यों द्वारा राष्ट्र निर्माण का महत्ती कार्य भी किया तथा देश में धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रीय एकता कायम करने के लिए सराहनीय प्रयास किए। इन सभी कार्यों के लिए भी केवल ‘खासगी संपत्ति’ ही खर्च करती थीं, जिस पर पूर्णतया राज परिवार का अधिकार था। प्रसिद्ध इतिहासकार चिंतामणि विनायक वैद्य ने लिखा है, ‘‘उनकी धार्मिकता इतनी उदार थी कि धर्म व नीति के हर क्षेत्र में उन्होंने अपना नाम अजर-अमर कर दिया। उनका दान-धर्म इतना महान था कि वैसा दान-धर्म आज तक हिंदुस्थान में किसी ने भी नहीं किया है।’’
वीरों के गुण
रानी अहिल्याबाई में इतिहास के गौरवशाली वीरों के गुण देखने को मिलते हैं। कोई भी महिला सर्वगुण संपन्न कैसे हो सकती है? इतिहास, वर्तमान और भविष्य में केवल एक ही व्यक्ति में इतने गुणों का समावेश होना संभव ही नहीं है। धर्माचरण, शासन प्रबंध, विद्वानों का सम्मान व न्याय, दानशीलता, उदार धर्म नीति, भक्ति भावना, वीरता, त्याग व बलिदान, साहस, शौर्य से परिपूर्ण रानी अहिल्याबाई युगों- युगों तक अमर रहेंगी। इतिहास के दिग्गज शासकों के गुणों से परिपूर्ण रानी हम सभी की प्रेरणास्रोत हैं। रानी का नाम सदा स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा।
सद्गुणों की खान
देवी अहिल्याबाई का सादगीपूर्ण जीवन, नीति युक्त शासन और कुशल राजनीति का संसार के इतिहास में एक विशेष स्थान है। 13 अगस्त,1795 के दिन 70 वर्षीया रानी की दिव्य आत्मा ने शरीर छोड़ दिया। लोकमाता अहिल्याबाई राजश्री से राजर्षि के रूप में संसार में प्रसिद्ध हुईं। कवि मोरोपंत के शब्दों में, ‘‘देवी अहिल्याबाई का निष्ठावान और कर्तव्य परायण चरित्र महाराष्ट्र ही नहीं, अपितु पूरे देश में लोकप्रिय है। वह गंगा नदी के समान पवित्र हैं। सदा सद्भावना-युक्त कार्य कर सभी का कल्याण करती हैं। इन्हीं सद्गुणों के कारण वह जन-जन के हृदय में स्थान बनाए हुए हैं।
‘लोकमाता अहिल्याबाई होलकर त्रिशताब्दी समारोह समिति’ का गठन
देवी अहिल्याबाई होलकर के 300वें जयंती वर्ष को पूरे देश में मनाने के लिए ‘लोकमाता अहिल्याबाई होलकर त्रिशताब्दी समारोह समिति’ का गठन किया गया। पद्मविभूषण सोनल मानसिंह तथा पद्मभूषण सुमित्रा महाजन समिति की संरक्षक हैं। समिति की अध्यक्ष प्रख्यात शिक्षाविद् चंद्रकला पाड़ीया तथा कार्याध्यक्ष होलकर राजवंश के उदयसिंह राजे होलकर के मार्गदर्शन में लोकमाता के संदेश को जन-जन तक पहुंचाने के लिए वर्षभर विभिन्न कार्यक्रम आयोजित होंगे। समिति में देशभर के प्रख्यात कलाकार, शिक्षाविद्, साहित्यकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हैं।
समिति वर्ष भर में अनेक कार्यशालाएं, गोष्ठियां तथा सार्वजनिक कार्यक्रम आयोजित करेगी। भारत की सभी प्रमुख भाषाओं में लोकमाता के साहित्य का प्रकाशन किया जाएगा। लोकमाता के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व के साथ तीर्थस्थलों के चित्रों सहित एक कॉफी टेबल बुक भी प्रकाशित होगी। ललित कलाओं जैसे संगीत, नाटक, चित्रकला आदि के माध्यम से देवी अहिल्याबाई के जीवन को जन-जन तक पहुंचाया जाएगा। ये आयोजन देश के प्रमुख महानगरों एवं विश्वविद्यालयों में संपन्न होंगे। देवी अहिल्याबाई ने देशभर के 100 से अधिक तीर्थस्थानों पर धर्मशालाएं, बावड़ी, अन्न क्षेत्र आदि का निर्माण करवाया था, उन स्थानों पर भी विशेष आयोजन होंगे। इनके माध्यम से उनके तीन प्रमुख गुणों को लोगों को बताया जाएगा। पहला गुण यह कि वे कुशल प्रशासक थीं। दूसरा यह कि उनकी दृष्टि अखिल भारतीय थी। विदेशी आक्रमणकारियों और मुगल साम्राज्य के कारण ध्वस्त हो चुके भारत के तीर्थस्थलों का पुनर्निर्माण करने के पीछे उनका उद्देश्य मात्र पुण्य लाभ प्राप्त करना नहीं, अपितु भारत की अस्मिता को पुनर्स्थापित करना था। तीसरा यह कि उन्होंने महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए अनेक कार्य किए। त्रिशताब्दी समारोह का औपचारिक उद्घाटन 31 मई को इंदौर में संपन्न हुआ।
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