विश्लेषण

स्वतंत्रता दिवस पर विशेष: जंगे आजादी के गुमनाम महानायकों की बेमिसाल क्रांति कथाएं!

Published by
पूनम नेगी

महान क्रांतिकारी भगत सिंह से लेकर चंद्रशेखर आजाद के बलिदान को याद कर आज भी राष्ट्रभक्तों की आंखें नम हो जाती हैं। सुखदेव, राजगुरु, खुदीराम बोस व बिस्मिल जैसे वीर योद्धाओं की कुर्बानियां आजादी के इतने वर्षों बाद भी लोगों के जेहन में ताजा हैं। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के महान शहीद मंगल पांडेय, रानी लक्ष्मीबाई, बाजीराव पेशवा व तात्या टोपे भी हमारी श्रद्धा के पात्र हैं।

किंतु इतिहास को थोड़ा और पारखी दृष्टि से देखें तो स्वाधीनता के इस महासमर में ऊधम सिंह, मदनललाल धींगड़ा, भगवती चरण वोहरा, बाघा जतीन, बधू भगत सरीखे असंख्यों ऐसे क्रांतिवीर भी थे जो स्वतंत्रता की बलिवेदी पर हंसते-हंसते कुर्बान हो गये। किंतु देश आजाद होने के बाद धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भारत के स्वर्णिम इतिहास को विकृत करने का जो सुनियोजित षड्यंत्र शुरू हुआ, उसी का दुष्परिणाम था स्वाधीनता संग्राम में अपना सर्वस्व बलिदान करने वाले हजारों क्रांतिकारियों की घोर उपेक्षा। अनेक अमर शहीदों को गुमनाम बनाकर स्कूली पाठ्यक्रमों से दूर रखा गया। जंगे आजादी के महापर्व पर प्रस्तुत हैं देश के ऐसे ही कुछ गुमनाम क्रांतिवीरों की बेमिसाल बलिदान गाथाएं-

1. ऊधम सिंह

13 अप्रैल सन 1919 का दिन देश के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास का काला दिन माना जाता है। उस दिन अंग्रेजों ने अमृतसर के जलियांवाला बाग़ में सभा कर रहे निहत्थे भारतीयों पर अंधाधुंध गोलियां चलाकर सैकड़ों बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। अपनी आँखों के सामने उस निर्मम कत्लेआम को देख अनाथाश्रम में पलने वाले किशोरवय बालक ऊधम सिंह का समूचा मन मस्तिष्क हिल उठा और वह घटना के लिए जिम्मेदार पंजाब प्रांत के गवर्नर जनरल माइकल ड्वायर से बदला लेने के लिये वेश बदलकर भटकते- भटकते लंदन जा पहुंचा।

साक्ष्य कहते हैं कि 13 मार्च 1940 की शाम लंदन के कैक्सटन हॉल में जहां ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की बैठक होनी थी, उस हॉल में बैठे भारतीयों में ऊधम सिंह भी एक थे जिनके ओवरकोट में एक मोटी किताब थी और किताब के भीतर के पन्नों के को काटकर उस युवा ने उसमें एक रिवॉल्वर छिपा रखी थी। ज्यों ही बैठक खत्म हुई, तभी ऊधम सिंह ने किताब से रिवॉल्वर निकाल मंच पर वक्ताओं में से एक गवर्नर माइकल ओ ड्वायर पर फायर कर दिया। ड्वायर की मौके पर ही मौत हो गयी। हाल में भगदड़ मच गयी लेकिन इस दुस्साहसिक वारदात को अंजाम देने के बाद भी उस निर्भीक युवा ने भागने की कोशिश नहीं की। गिरफ्तारी के बाद उस पर मुकदमा चला और 31 जुलाई 1940 को उसे फांसी दे दी गयी।

2. मदनलाल धींगड़ा

भारत की आजादी के लिए प्राणों की आहुति देने वाले मदनलाल ढींगरा महान हिंदू राष्ट्रवादी विनायक सावरकर के करीबी थे। 11 अगस्त 1908 को जब भारत में खुदीराम बोस और उसके बाद कन्हाई दत्त सहित कई क्रांतिकारियों को फांसी की सजा दी गयी तो इस घटना ने उन्हें उद्वेलित कर दिया। उन दिनों वे इंग्लैंड में पढ़ाई कर रहे थे। सावरकर भी तब लंदन में ही थे। उन्होंने उनसे पूछा, क्या अपनी मातृभूमि के लिए प्राण देने का यह सही वक्त है? जवाब में सावरकर ने कहा, अगर तुम सर्वोच्च बलिदान के लिए तैयार हो तो निश्चित रूप से अपने राष्ट्र के लिए प्राण देने का यह सही समय है।

सावरकर की प्रेरणा से इस प्रखर राष्ट्रभक्त ने भारतीय क्रांतिवीरों की हत्या के दोषी ब्रिटिश सैनिक अधिकारी विलियम कर्जन वायली की हत्या कर दी। उन्हें फांसी की सजा सुनायी गयी। फैसले के बाद उन्होंने जज को शुक्रिया कहा और बोले, ‘’मेरा विश्वास है कि विदेशी संगीनों से पराधीन किया गया राष्ट्र सदैव युद्ध की स्थिति में ही रहता है। चूंकि निःशस्त्र जाति द्वारा खुला युद्ध करना असंभव है, इसलिए मैंने अकस्मात हमला किया। मुझ जैसा निर्धन बेटा खून के अलावा अपनी मां को भला और क्या दे सकता है? कहा जाता है कि जज उनकी उस तेजस्वी वाणी को सुनकर अवाक रह गया था।

3. यतीन्द्रनाथ मुखर्जी उर्फ बाघा जतिन

आजादी की लड़ाई का इतिहास लिखे जाने के वक्त नाइंसाफी का शिकार होने वाले क्रांतिकारियों में एक अन्य नाम है यतीन्द्रनाथ मुखर्जी। उस दौर में जब आम लोग अंग्रेजों के खौफ से घरों में सिमट जाते थे, वो ऐसा जांबाज था जो अंग्रेजों को देख उन्हें पीट डालता था। कहा जाता है कि बलिष्ठ देह के स्वामी यतीन्द्रनाथ मुखर्जी ने एक बार निहत्थे ही बाघ को पीटकर भगा दिया था तभी से वे ‘बाघा जतिन’ के नाम से मशहूर हो गये। कलकत्ता सेंट्रल कॉलेज में पढ़ने के दौरान वे स्वामी विवेकानंद मिले और उनके सम्पर्क में आकर उनके भीतर ब्रह्मचारी रहकर देशसेवा का भाव जगा।

स्वामी विवेकानंद की प्रेरणा से उन्होंने कुश्ती सीखी थी। ज्ञात हो कि 16 वर्ष की अवस्था में ही क्रांतिकारी दल में शामिल हो जाने वाले बाघा जतिन के नेतृत्व में लाहौर जेल में 13 जुलाई 1929 से आमरण अनशन प्रारम्भ किया गया था और दो माह के अनशन के बाद जेल में ही माँ भारती की रक्षा में अपनी शहादत दे दी। कहते हैं कि उनका अनशन तुड़वाने के लिए जेल अधिकारी उनके बैरक में स्वादिष्ट भोजन, मिष्ठान और केसरिया दूध आदि रखते थे किन्तु यतीन्द्र इन खाद्य-पदार्थों को छूना तो दूर देखते तक न थे। 13 सितम्बर 1929 को अपने अनशन के 63 वें दिन जतिन ने सब मित्रों को पास बुलाया। छोटे भाई किरण ने उनका मस्तक अपनी गोद में ले लिया। विजय सिन्हा ने यतीन्द्र का प्रिय गीत “एकला चलो रे” और “वन्दे मातरम्” गाया और गीत पूरा होते ही चेहरे पर अलौकिक आभा लिये संकल्प के धनी जतिन परलोक सिधार गये। समूचा जेल परिसर बाघा जतिन जिंदाबाद, इंकलाब जिंदाबाद के नारों से गूंज उठा।

3. भगवतीचरण वोहरा

भगवतीचरण वोहरा भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के ऐसे अप्रतिम योद्धा थे जो अपनी अपराजेय आदर्शनिष्ठा, प्रतिबद्धता और मनोयोग से आखिरी सांस तक भारत माता की मुक्ति के लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पित रहे। क्रांतिकारी आंदोलन के संगठक, सिद्धांतकार व प्रचारक होने के साथ काकोरी से लाहौर तक कई क्रांतिकारी कार्रवाईयों के अभियुक्त होने के बावजूद वे कभी भी पुलिस के हत्थे नहीं लगे। भगवतीचरण ने “नौजवान भारत सभा” बनायी पर भगत सिंह को महासचिव बनाया और खुद प्रचार सचिव बने। सम्पन्न परिवार के होकर भी विलासिता को ठुकराकर उन्होंने क्रांति का रास्ता चुना।

1918 में मात्र 14 साल आयु में पांचवीं तक पढ़ी 11 वर्षीया दुर्गावती देवी के साथ विवाह हो गया लेकिन दुर्गावती पति के क्रांतिकर्म में कंधे से कंधा मिलाकर चलीं। वोहरा ‘बम’ बनाने में माहिर थे। कहीं बम ऐन मौके पर दगा न दे जाएं, इस संदेह के निवारण के लिए एक दिन जब वे रावी तट पर बम का परीक्षण कर रहे थे कि हादसा हो गया और भगवती अपनी जान गंवा बैठे। बम से उनके एक हाथ की अंगुलियां नष्ट हो गयीं और हाथ दूसरा कलाई से आगे पूरा उड़ गया और पेट में हुए बड़े घाव से आंतें बाहर निकल आयीं। मौत को सामने खड़ी देखकर भी वे विचलित नहीं हुए और साथियों से दो खास बातें कहीं। पहली-ये नामुराद मौत दो दिन टल जाती तो इसका क्या बिगड़ जाता? उनका मतलब था कि तब वे भगत, सुखदेव व राजगुरु को छुड़ा लेते। दूसरी-अच्छा हुआ कि जो कुछ भी हुआ, मुझे हुआ। किसी और साथी को होता तो मैं भैया यानी “आजाद” को क्या जवाब देता।

4. वासुदेव बलवन्त फड़के

महाराष्ट्र के पुणे निवासी वासुदेव बलवंत फडके को भारत के स्वतंत्रता संग्राम का आदि क्रांतिकारी माना जाता है।1857 ई. की प्रथम संगठित महाक्रांति की विफलता के बाद उन्होंने ही आजादी के महासमर की पहली चिंनगारी जलायी थी। ब्रिटिश काल में किसानों की दयनीय दशा से विचलित होकर उन्होंने सशस्त्र क्रांति की राह चुनी और क्षेत्र की कोल, भील तथा धांगड जातियों को एकत्र कर एक क्रान्तिकारी संगठन खड़ा किया। अपने इस मुक्ति संग्राम के लिए धन एकत्र करने के लिए उन्होंने धनी अंग्रेज साहूकारों को लूटा। फडके को तब विशेष प्रसिद्धि मिली जब उन्होंने पुणे नगर को कुछ दिनों के लिए अपने नियंत्रण में ले लिया था। 1879 ई. में अंग्रेज़ों ने बीजापुर से फड़के को गिरफ्तार कर काले पानी की सजा दे दी जहां 1883 ई. में उनकी शहादत हो गयी।

5. हेमू कालाणी

23 मार्च 1923 को सिंध के सख्खर (वर्तमान में पाकिस्तान) में जन्में हेमू कालाणी बाल्यकाल से ही अत्यन्त साहसी थे। देश प्रेम उनमें कूट-कूट कर भरा था। हेमू जब मात्र सात वर्ष के थे तभी वह तिरंगा लेकर अपने दोस्तों के साथ भारत माता की जय के नारे बुलंद किया करते थे। 1942 में जब उन्हें यह गुप्त जानकारी मिली कि अंग्रेजी सेना की हथियारों से भरी रेलगाड़ी रोहड़ी शहर से होकर गुजरेगी तो हेमू कालाणी ने अपने साथियों के साथ रेल पटरी क्षतिग्रस्त करने की योजना बनायी। वे यह सब कार्य अत्यंत गुप्त तरीके से कर रहे थे किन्तु फिर भी वहां पर तैनात पुलिस कर्मियों की नजर उन पर पड़ी और उनको गिरफ्तार कर लिया जबकि उनके बाकी साथी फरार हो गए।

किशोरवय हेमू को कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाई। सिंध के गणमान्य लोगों ने एक पेटीशन दायर कर वायसराय से फांसी की सजा न देने की अपील की। वायसराय ने इस शर्त पर यह स्वीकार किया कि यदि हेमू अपने साथियों का नाम और पता बताये तो उनकी फांसी रोक दी जाएगी पर हेमू कालाणी ने यह शर्त अस्वीकार कर दी। 21 जनवरी 1943 को फांसी से पहले उनसे आखरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने भारत वर्ष में फिर से जन्म लेने की इच्छा जाहिर की और इन्कलाब जिंदाबाद-भारत माता की जयघोष के साथ फांसी के फंदे पर झूल गये।

6. बसंत कुमार बिस्वास

बंगाल के प्रमुख क्रांतिकारी संगठन “युगांतर” के सक्रिय सदस्य युवा क्रांतिकारी बसंत कुमार बिस्वास ने अपनी जान पर खेल कर वायसराय लॉर्ड हार्डिंग पर बम फेंका था। फलस्वरूप 20 वर्ष की अल्पायु में ही उन्हें फांसी दे दी गयी। वायसराय हॉर्डिंग की हत्या की योजना क्रांतिकारी रास बिहारी बोस ने बनायी थी और बम फेंकने वालों में बसंत बिस्वास और मन्मथ बिस्वास प्रमुख थे। बसंत बिस्वास ने महिला का वेश धारण किया और 23 दिसंबर 1912 को जब कलकत्ता से दिल्ली राजधानी परिवर्तन के समय वायसराय दिल्ली में प्रवेश कर रहा था तब चांदनी चौक में उसके जुलूस पर बम फेंका था, पर वह बच गया किन्तु इस मामले में 26 फरवरी 1912 को बसंत को गिरफ्तार कर फांसी दे दी गयी।

7. अल्लूरी सीताराम राजू

विदेशी आक्रांताओं के विरुद्ध संघर्ष करने वाले वनवासी महानायक अल्लूरी सीताराम राजू 1897 को विशाखापट्टनम जिले के पांड्रिक गांव में जन्मे थे। अल्लूरी को उनके पिता अल्लूरी वेंकट रामराजू ने बचपन से ही क्रांतिकारी संस्कार दिये थे। अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ वनवासी संगठन बनाकर उन्होंने अंग्रेजी सैनिकों के खिलाफ जंग छेड़ी थी। ब्रिटिश अफसर राजू से लगातार मात खाते रहे। आंध्र पुलिस के नाकाम होने के बाद केरल की मलाबार पुलिस के दस्ते राजू को पकड़ने के लिए लगाये गये लेकिन हमेशा मुंह की खानी पड़ी।

6 मई 1924 को राजू के दल का मुकाबला असम राइफल्स से हुआ जिसमें उसके कई साथी शहीद हो गये लेकिन राजू बच गये। 7 मई 1924 को जब वे अकेले जंगल में भटक रहे थे तभी एक अफसर की नजर राजू पर पड़ी और पुलिस दल ने पीछे से गोली चलाकर राजू को जख्मी कर दिया। फिर उनको एक पेड़ से लटका कर गोली मार दी और मां भारती का यह जांबाज सपूत राष्ट्ररक्षा में कुर्बान हो गया।

8. बुधू भगत

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में प्राणों की आहूति देने वाले वीर शहीदों में वीर शहीद बुधू भगत छोटा नागपुर के उस जन आन्दोलन के नायक थे जिसे अंग्रेजों ने ‘कोल विद्रोह’ की संज्ञा दी थी। रांची के सिलंगाई गावं (चान्हो) में जन्मे वीर बुधू भगत और इनके पुत्रों हलधर और गिरधर की वीरता के सामने अंग्रेजी सेना और अंग्रेजों के चाटुकार जमींदारों को अनेक बार पराजय का मुंह देखना पड़ा था। सूत्र बताते हैं कि बुधू दैवीय शक्ति युक्त एक ऐसे महान सेनानी थे जिनके नेतृत्व में उरांव जाति के हजारों आदिवासियों ने सन 1826 ई. में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया था।

यह उनकी अद्भुतसंगठनात्मक क्षमता का प्रभाव था कि यह आंदोलन सोनपुर, तमाड़ एवं बंदगाँव के मुंडा मानकियों का आंदोलन न होकर छोटा नागपुर के समस्त भूमि पुत्रों आंदोलन हो गया था। सन 1832 ई. के जनाक्रोश की ज्वाला को तेजी से फैलते देखकर हताश अंग्रेज अधिकारीयों ने कैप्टन इम्पे को बुधू भगत को जीवित या मृत पकड़ने की जिम्मेदारी सौंपी थी। भले ही अंग्रेज सैनिकों ने बधू भगत व उनके भाईं-भतीजे की निर्ममतापूर्वक हत्या कर दी हो किन्तु अमर सेनानी बुधू भगत की यशोगाथा आज भी आदिवासी समाज में पूरी श्रद्धा से गायी जाती है।

Share
Leave a Comment

Recent News